सूर्य पृथ्वी का निकटमत तारा है जहाँ से प्रकाश को तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकण्ड की गति से पहुँचने में मात्र आठ मिनट लगते हैं अर्थात किसी भी समय हमारी आँखों से देखा जाने वाला सूर्य आठ मिनट पुराना होता है अर्थात यदि सूर्य पर कुछ घटित हो तो हमें आठ मिनट पश्चात दिखेगा।
प्रॉक्जिमा सैंटौरी तारा हम से दूसरा निकटतम तारा है जो कि लगभग सवा चार प्रकाशवर्ष की दूरी पर है अर्थात वहाँ से चले प्रकाश को हम तक पहुुँचने में सवा चार वर्ष लगेंगे अर्थात उसे जब भी हम देखेंगे, सवा चार वर्ष पुराना ही देखेंगे।
अब उन तारों, निहारिकाओं, मंदाकिनी इत्यादि की सोचें जो हमसे लाखों प्रकाश वर्ष दूर हैं, उनका वर्तमान तो हम जान ही नहीं सकते ! दिक्काल की सीमायें यही हैं।
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विराट ब्रह्माण्ड में यदि हम अपने क्षुद्र सौरमण्डल को देखें तो पृथ्वी अपने अक्ष पर जितने समय में एक चक्र पूरा करती है, उससे लगभग 365 गुना समय में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करती है। सूर्य भी अपने समस्त ग्रहों के साथ तीव्र गति से भागता जा रहा है किंतु हमें तो स्थिर प्रकाश पिण्ड ही लगता है जिसकी परिक्रमा हम कर रहे हैं। कारण है, तुलनात्मक रूप से हमारा अति लघु रूप। हमें दिन रात जो कि पृथ्वी के अक्षीय घूर्णन के कारण होते हैं, प्रति दिन पता चलते हैं, दिन की इकाई बनी ही उससे है किंतु उससे क्रमश: बढ़ने में समस्यायें होने लगती हैं।
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ऋतुयें इस कारण होती हैं कि पृथ्वी का घूर्णन अक्ष लट्टू की भाँति झुका हुआ है जिसका शीर्ष एक वृत्त में घूमता रहता है, आकाश के जिस क्षेत्र की सीध में किसी समय उसकी शिरोरेखा पड़ती है, उसे ध्रुव कहते हैं, धुरी की भाँति अटल जो कि वस्तुत: लगभग 21 से 26 हजार वर्षों के आवर्तकाल से परिवर्तित होता रहता है। उसकी दिशा ही उत्तर दिशा है - ऊपर, उदीचि, उत्तर। चूँकि यह एक धीमी गति है, इसका प्रेक्षण सभ्यताओं के विद्वान ज्योतिषी ही कर पाये, जनसामान्य के लिये तो ध्रुव धुरी बने स्थिर ही रहे।
इस गति के कारण ही सूर्य देव पूरब पश्चिम में क्रमश: उदित अस्त दिखते हुये भी उत्तर दक्षिण दिशाओं में झुकते, सीधे होते, पुन: झुकते एक आवर्ती गति करते प्रतीत होते हैं। झुकाव के अल्प एवं अधिक होने से विकिरण, ऊष्मा आदि की प्राप्ति में हुये एवं उनसे जुड़े अन्य परिवर्तनों के कारण विविध नाटकीय परिवर्तन धरा पर दिखते हैं, कभी फूल ही फूल, कभी सब पत्ते लुप्त, कभी वर्षा ही वर्षा तो कभी तपती धूप। ये परिवर्तन सहसा नहीं हो जाते, उनका पता हमें अपेक्षतया मंद गति से शनै: शनै: पड़ता है।
ये परिवर्तन एक लय में होते हैं - संस्कृत का ऋत, अंग्रेजी का rhythm. ऋतु अनुकूल आहार विहार से स्वास्थ्य ठीक रहता है, rhythm में विविध ध्वनियाँ सङ्गीत हो जाती हैं, जीवन सङ्गीत यही तो है ! आवर्ती लय।
इन दो घूर्णन गतियों के साथ साथ पृथ्वी द्वारा सूर्य की वार्षिक परिक्रमा है ही। चूँकि ये सारी गतियाँ लयबद्ध हैं, इनमें कोई यादृच्छ या अनिश्चित या सहसा परिवर्तन नहीं हो सकते; सूर्य सापेक्ष सबसे बड़े परास वाली गति 365 दिनों के वर्ष विभाजन के सापेक्ष हम शेष दो को व्यवस्थित कर सकते हैं। यही तो है अभियांत्रिकी एवं प्रबंधन की एक प्रिय कार्यविधि - सकल से सूक्ष्म की दिशा में, from WHOLE to PART !
चंद्रमा को आप प्राकृतिक कैलेण्डर मान सकते हैं जो कि भीति पर टँगा होने के स्थान पर आकाश में टँगा कलाओं के माध्यम से तिथियाँ बताता रहता है। आज सामान्य जन भले चंद्र को देख तिथि न बता पायें, एक पीढ़ी पूर्व तक लोग देख कर बता देते थे - अन्हार या अँजोर, चौथी या पञ्चमी !
उसकी सोलह कलाओं में से आरम्भ एवं अंत को हटा दें तो चौदह चौदह दिन की दो अवधियाँ हुईं अट्ठाइस एवं वे दो मिला कर एक अवधि हुई तीस दिन की। मा, चंद्रमा से मास, moon से month. 365 को जब इन तीस दिनों में बाँटा गया तो बारह इकाइयाँ हो गयीं, बारह नामों वाले महीने। बचे खुचे दिनों का समायोजन विविध रीतियों से कर लिया गया। एक दूसरा गणित, अधिक सटीक 'पक्ष' वाला हुआ - जब चंद्र घट रहा हो तो अन्हार, बढ़ रहा हो तो अँजोर - क्रमश: कृष्ण एवं शुक्ल पक्ष। माह में दो पक्ष हो गये मानोंं मास रूपी उड़ते पक्षी के दो पंंख हों !
दो महीने मिला कर हो गयी एक ऋतु जब कि परिवेश का समेकित सकल प्रभाव निश्चित प्रकार से पारिभाषित किया जा सकता है। बारह अद्धे छ: ऋतुयें हुईंं।
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इनके अतिरिक्त जो भी गतियाँ हैं, उनके लिये हमें विशेष यंत्र, प्रेक्षण, विद्या इत्यादि की आवश्यकता पड़ती है। उन्हें हम इनके बिना नहीं जान सकते, अतिशय मेधावी जन अनुमान मात्र लगा सकते हैं।
रात में आकाश देखें तो हमें भिन्न भिन्न तारामण्डल दिखाई देते हैं जो विविध आकृतियों में सहस्राब्दियों से यथावत मानव को दिखते रहे हैं। इस कारण ही अनेक कल्पनाओं एवं कहानियों का सृजन हो पाया किंतु उन ताराओं में भी सापेक्ष गतियाँ हैं जो कि अतिशय दूरी के कारण हमें कोरी आँखों से पता नहीं चल पातीं। लाखों वर्षों के पश्चात उनके आकार वही नहीं रहने जो आज दिखते हैं, सप्तर्षि पूँछ वाली पतंग की भाँति उड़ते नहीं दिखेंगे, आकार परिवर्तित हो जायेगा।
कल्पना करें कि पृथ्वी की परिधि पर एक वृत्तीय पथ बना हुआ है जिस पर हम किसी वाहन में सवार अबाध गति से चल रहे हैं। पहला परिक्रमण पूरा होते ही हमें खिड़की से वही संरचनायें दिखने लगेगीं जो आरम्भ में दिखी थीं। बाह्य परिवेश हमारा स्थिर संदर्भ बिंदु हो जायेगा जिसके सापेक्ष हम गतिमान होंगे, कहेंगे यहाँ पहुँच गये, अब आगे वह वृक्ष आयेगा, सरोवर पीछे छूट गया आदि आदि।
इसी प्रकार पृथ्वी की गति अंतरिक्ष में है। वे विविध तारामण्डल स्थायी स्थिर संरचनाओं की भाँति संदर्भ बिंदु हैं, स्थिर stationary station, स्थिर स्थानक हैं जिनके सापेक्ष गाड़ी की गति का लेखा जोखा रखा जाता है। अंतर इतना ही है यह गाड़ी विलम्ब नहीं करती, न कभी समय से पहले चल पाती है। लगभग स्थिर मान का वर्ष उसकी इस समयबद्धता के कारण ही है। गति में विविध सूक्ष्म अंतर हैं किंतु उनकी उपेक्षा की जा सकती है या उन्हें जटिल बृहद गणित में समोया जा सकता है। बृहस्पति का साठ वर्षीय चक्र, सप्तर्षि का 2700 वर्षीय आदि ऐसी ही व्यवस्थायें हैं।
हमारी गति के कारण वर्ष भर सूर्य जिस पथ पर चलता दिखाई देता है, उस पर सम दूरी पर विविध तारों एवं तारामण्डलों के 27 स्थानक मान लिये गये जिन्हें नक्षत्र कहते हैं। 27 ही क्यों?
यहाँ पुन: चंद्रमा रूपी प्राकृतिक कालेन्द्र calendar काम आया। सूर्य के साथ समस्या यह है कि जब वह दिखता तो कोई अन्य तारे या नक्षत्र नहीं दिखते। चंद्रमा के साथ यह समस्या नहीं है। वह नक्षत्रों के साथ साथ रात में दिखता है, सबसे प्रभावी दिखता है। इसी कारण से उसे नक्षत्र रूपी स्त्रियों का स्वामी मान लिया गया। देखा यह गया कि वह किसी नक्षत्र की सीध में 27 से 28 दिनों के बीच की अवधि में बारम्बार आ जाता है, चंद्र के रूप में मानव को सूर्य गति के प्रेक्षण हेतु एक स्वतंत्र मापनी मिल गयी !
ऋतु कोई हो, सूर्य पृथ्वी कुछ भी कर रहे हों, चंद्रमा अपनी यह 27 दिवसीय यात्रा निरपेक्ष भाव से करता रहता है। चूँकि पृथ्वी की परिक्रमा के साथ साथ वह सूर्य की भी परिक्रमा कर रहा है, वह निरपेक्ष होते हुये भी इनके सापेक्ष सत्यापन की युक्ति हो सकता है।
वह आभासी पथ जिस पर सूर्य अपने समस्त ग्रहादि एवं उनके उपग्रहों के साथ गतिमान प्रतीत होता है, उसे क्रांतिवृत्त कहते हैं। क्रांतिवृत्त को 27 स्थानकों या नक्षत्रों में बाँट दिया गया - सूर्य जी जब इस स्थानक आये थे तो चंद्र जी अपनी फला कला में फला स्थानक पर थे ! घड़ी की व्यवस्था हो गयी।
आकाश में चलते चलते सूर्य जब किसी नक्षत्र पर पहुँचता है अर्थात जिसकी सीध में दिखता है, उसे उस समय का सूर्य नक्षत्र कहते हैं या इस भाँति कहते हैं कि अभी सूर्य उस नक्षत्र पर है। ऐसा ही चंद्र के साथ है। इस कारण ही किसी दिन सूर्य नक्षत्र एवं चंद्र नक्षत्र, दो होते हैं। दोनों का एक साथ एक ही नक्षत्र पर होना बहुत सुलभ घटना नहीं है।
365.25 दिनों की पृथ्वी की वार्षिक गति को 27 नक्षत्रों से भाग दें तो सूर्य एक नक्षत्र पर साढ़े तेरह दिनों से किञ्चित अधिक समय तक रहेगा।
(कभी यह भी था कि मानव निर्मित ये विभाजन समान नहीं थे किंतु हमें तो अब का देखना है।)
ग्रेगरी का अंग्रेजी कैलेण्डर शुद्ध सौर है अर्थात उसमें चंद्रमा की कलाओं, मास, दिन, तिथि आदि के संयोजन नहीं होते, न उस उद्देश्य से गणितीय संशोधन किये जाते हैं; इस कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित इस कैलेण्डर के दिनाङ्कों को सौर गति अर्थात उसके विविध नक्षत्रों में प्रवेश से जोड़ा जा सकता है। उदाहरणतया :
अगस्त मास में 18 को सूर्य मघा नक्षत्र में प्रवेश कर 30 तक रहते हैं, 31 को पूर्व फाल्गुनी में, 14 सितम्बर को उत्तर फाल्गुनी में एवं 28 सितम्बर को सूर्य रूपी गाड़ी हस्त स्थानक अर्थात नक्षत्र पर पहुँचती है।
(दिन सूर्योदय से गिनते हैं अत: रात्रि में या सूर्योदय के पश्चात हुये परिवर्तनों के लिये +/- 1 दिन की परास रहेगी।)
स्पष्ट है कि इसी प्रकार ऋतु आरम्भ एवं अंत के दिनाङ्क भी बताये जा सकते हैं जो वर्षो वर्ष एक ही रहेंगे। तमिळ कैलेण्डर भी पूर्णत: सौर है, भारतीय मानक शक संवत भी। इनमें भी ऋतुओं की आरम्भ तिथियाँ निश्चित एवं स्थिर होंगी।
24 अगस्त को शरद ऋतु का आरम्भ हो जाता है, 26.50 उत्तरी अक्षांश के निकटवर्ती क्षेत्रों में इसी दिन के निकट अगस्त्य का उदय होता है अर्थात सूर्य की ओट में अपनी कांति खो चुके अगस्त्य उससे मुक्त हो पुन: भोर में दिखना आरम्भ करते हैं। (यहाँ समस्या यह है कि इस प्रकार के उदय अस्त अक्षांश आधारित होते हैं। क्यों ? कभी समझायेंगे।)
अक्षांश आधारित स्थानीय प्रेक्षण भारत में बहुत हुये एवं कृषि आधारित समाज में उन्हें ऋतुओं से जोड़ कर एक मौखिक परम्परा के ढीले ढाले लोक-कैलेण्डर के रूप में बारहो महीनों, छहो ऋतुओं के लिये सँजो लिया गया। पीढ़ियों तक इस कला में निष्णात 'घाघ भड्ढरी' प्रकार के जन किसानों का मार्गदर्शन तो करते ही रहे, उन्हें शिक्षित कर एक स्वतंत्र सशक्त वैज्ञानिक परम्परा को भी सुरक्षित सम्वर्धित करते रहे।
ऐसे प्रेक्षणों के साथ समस्या यह है कि ये सार्वदेशिक नहीं लागू किये जा सकते। कोल्लम का प्रेक्षण काशी में काम नहीं आयेगा। हाँ, यदि दोनों स्थानों के औपचारिक ज्योतिर्विद एक साथ बैठें तो अपने अपने क्षेत्रों के लोकज्ञान के संयोग से जाने कितने रहस्य उद्घाटित कर सकते हैं।
उत्तर भारत में अगस्त्य दर्शन को वर्षा ऋतु का अन्त माना जाता है। वर्षा इससे आगे भी होती है किन्तु अवसान वाली। लगभग महीने भर पश्चात जब 28 सितम्बर को सूर्य हस्त नक्षत्र में होते हैं तब अंतिम वर्षा के झँकोरों के साथ ही जाड़े की भूमिका हो जाती है।
लोक में कहते हैं - हथिया के पेटे जाड़। हस्त नक्षत्र हाथ के आकार में समाता चार तारकों का समूह है जो कि लोकगिरा में हस्त से हाथ, हाथ से हाथी हो गया है (हाथी या हस्ति को यह नाम इस कारण दिया गया है कि चौपाया होने पर भी उसकी सूँड़ ऐसे काम करती है जैसे मनुष्य का हाथ।)
देखें तो बारह महीनों में छ: ऋतुओं हेतु प्रति ऋतु दो माह ही पड़ते हैं किंतु संधि काल का ध्यान लोक में रखा गया है। शरद है किंतु उसमें हो रही वर्षा को अगस्त्य तारे से जोड़ कर सँजो लिया गया।
शरद है किन्तु उसमें हो रही अंतिम वर्षा के साथ हेमन्त (हिम का अंत अर्थात हिमपात अब ठहर जायेगा, पिघलेगा तो दाँत कड़कड़ाने वाले शिशिर का आगम होगा) अर्थात जाड़े की पूर्वऋतु से जोड़ कर स्मृतिबद्ध कर लिया गया।
वस्तुत: शरद-हेमन्त-शिशिर की तिकड़ी ऐसी रही कि उनमें ऋतुओं का संक्रमण उतना स्पष्ट न होने के कारण पाँच ऋतुओं की भी संकल्पना करनी पड़ी।
इसके अनेक उदाहरण वैदिक वाङ्मय में उपलब्ध हैं।
शतपथ ब्राह्मण में वर्षा एवं शरद को मिला कर पाँच ऋतुओं की बात की गयी है:
लोको॑वसन्त॑ऋतुर्य॑दूर्ध्व॑मस्मा॑ल्लोका॑दर्वाची॑नमन्त॑रिक्षात्त॑द्द्विती॑यम॑हस्त॑द्वस्याग्रीष्म॑ऋतु॑रन्त॑रिक्षमेवा॒स्य मध्यमम॑हरन्त॑रिक्षमस्य वर्षाशर॑दावृतू य॑दूर्ध्व॑म्न्त॑रिक्षादर्वाची॑नं दिवस्त॑च्चतुर्थम॑हस्त॑द्वस्य हेमन्त॑ऋतुर्द्यउ॑रेवा॒स्य पञ्चमम॑हर्द्यउ॑रस्य शि॑शिर ऋतुरि॑त्यधिदेवतम्।
ऐसा क्यों? इसमें उस समय की स्मृति है जब वर्ष का आरम्भ वर्षा से था। शरद मिला देने पर शरद विषुव (23 सितम्बर) जो कि वसंत विषुव (21 मार्च) से छ: महीने के अंतर पर पड़ता है, वर्षा के साथ आ जाता है, नाक्षत्रिक एवं ऋत्विक प्रेक्षणों के सम्मिलन से सुविधा हो जाती है (विषुव अर्थात जब उत्तर दक्षिण में दोलन करता सूर्य माध्य स्थिति में दिखे, ठीक पूरब में उगे, ठीक पश्चिम में अस्त हो।)
ऐतरेय ब्राह्मण में हेमंत एवं शिशिर को मिला दिया गया है:
हेमन्तशिशिरयो: समासेन तावान्संवत्सर: संवत्सर: प्रजापति: प्रजापत्यायतनाभिरेवाभी राध्नोति य एवं वेद।
आजकल के आधे कार्त्तिक से आधे फाल्गुन तक के इस कालखण्ड में माघ महीना पड़ता है जो कभी संवत्सर का आरम्भ मास था, वही शीत अयनांत वाली उत्तरायण अवधि जिसे अब लोग संक्रांति के रूप में मनाते हैं।
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आगे लिखते रहेंगे। हमारी मान्यताओं में जाने कितनी सहस्राब्दियों के अवशेष छिपे हुये हैं। सावधान विश्लेषण करें तो !
ऐसा लेख तो मुझे लिखना चाहिए था, मेरी अकर्मण्यता के कारण आपको अधिक श्रम करना पड़ रहा है। और मैं लिख भी लेता तो यह शैली नहीं ला पाता, सो यह भी अच्छा ही रहा... :)
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