मंगलवार, 13 जुलाई 2010

रानी का डंडा

(1) 
मिडिल स्कूल के फील्ड में रानी का डंडा आने वाला था। गाँव भर जोशो खरोश में होश खो तैयार हो रहा था।
सोनमतिया बेटी के केश सँवार रही थी। उसने बेटी को एक धौल लगाया,” मोछिउखरनी, कहेलीं कि साबुन नाहीं बा त रोज काँचे पानी से सलवार समीज धो देहलि करु। कैसन महकता। लोगवा का कही रे ?” danda
बेटी ने जवाब दिया,” माइ रे, तोर मोछि कहाँ बा जो उखरी?”
धत्त! कह कर सोनमतिया पहले हँसी और फिर नम हो गई आँखें पोंछने लगी। उसके मरद को मरे तीन साल होने को आ रहे थे।
लाला अपने दुआरे बहोरना के साथ गम्भीर विमर्श में व्यस्त थे। “रानी के डंटा के मतलब का ? आखिर ई आवता काहें हो?”
पछिमही बोली में बहोरना बोला,” लाला, सात समन्दर पार से कभी एक रानी हम पर राज करती रही। उहे अंग्रेज राज के अब के रानी डंटा भेजिस है। पहिले तो वो सब डंटा मार मार पीठ की खाल उधेड़ राज किए अब खेल खेल में उसकी याद दिला रहे हैं। राजदंड तो सुनै होगा। एक तरह से वही समझ लो। बड़ी इज्जत है उसकी। सुना है बड़े बड़े लोग लुगाई उसके साथ चल रहे हैं। सिक्योरिटी एक्दम टैट है।“
लाला बुदबुदाए,”बड़वार लोग मजा लेवे खातिर भी डंटे ले घूमेला।“

दोनों मिडिल स्कूल के फील्ड की ओर चल दिए। वहाँ लोगों का जुटान अभी शुरू हो रहा था। बहोरन को लगा कि एक हरमुनिया की कमी है नहीं तो अभी लौडस्कीपर पर बजती तो कितने लोग जुट जाते। फिर उसने खुद को कोसा, “अरे, हरमुनिया क्यों बजेगी? कोई नौटंकी थोड़े हो रही है?” मन के किसी कोने ने सरगोशी की – ये नौटंकी ही तो है। बात बढ़ाने की गरज से नए पीपल के नीचे लाला को ले पहुँचा जहाँ दो तीन और खड़े थे।
बहोरना बोला, "अरे, सुना है कि रानी के डंडा बहुत दिन से घूम रहा है, हम्में कौनो खबरे नाइँ!"
रजुआ ने खबर की अखर को आगे बढ़ाया,
"खबर का लंड होई! बिसवरिया से बिजली नपत्ता बा। टीवी चलते नैखे। रेडियो त घर घर बिगड़ल धइल बा।"
लाला कब चुप रहने वाले थे, बोल पड़े "अरे, आवेले - राति के एगारे बजे अउर बिहाने चारे बजे फुर्र! उहो रेगुलर नाहीं।"
"त लाला, दुन्नू परानी रतजग्गा करss जा।"
"हे बुरधुधुर, लोग का कही रे? सगर गाँव सुत्ता परि गे अउर लाला ललाइन जागल का करता? उहो ए उमिर में!"
इस बात पर सब लोग पिहिक पिहिक हँसने लगे। लाला जारी रहे,
"वैसे ई बाति हम ललाइन से कहले रहलीं त ऊ कहली कि लनटेम बारि के बिजली अगोरले से का होई? राम जाने आई कि नाहीं। माटी के तेल जरी अलगे से। नज़र सेंकले के शौक बा त बैटरी के जोगाड़ करss"
रजुआ ने याद दिलाया कि बिधायक के यहाँ छोटा टी वी था जो ट्रैक्टर की बैटरी से चलता था। बहोरना ने याद पर वर्तमान का लवना लगाया," का रजुआ, जानते हुए भी अनजान बन रहै हो। मज़ा लेना कोई तुमसे सीखे। अरे लोन नाहीं जमा किए रहे सो बैंक वाले ट्रैक्टर खिंचवा ले गए।"
" हँ, बिधायक सोचलें कि वोहू के कर्ज़ा माफ हो जाई।"
बेचारे बिधायक का बस नाम ही विधायक। सो उसका सारा विधि विधान पब्लिक के उल्टा पुरान का अंग बन गया था।
"भाई, कल पुरजा के चीज में माफी नाहीं चलेले।
सरकारो बड़ी चँलाक हो गइल बा। कल-पुर्जा एहि से दिन रात बढ़ावतिया। अब बैंकवे में देख sss। कारड डार। बटन दबाव ss। कड़कड़ौवा नोट हाथे में। कुछ दिन के बादि कर्जा वसूलियो एहि तरे होई। कड़कड़ौवा नोट लेके मशीन में डारे के परी। कौनो माफी नाहीं। सरकार कही कि कल पुर्जा के बात में कउनो छूट नाहीं मिली।"
बात मजाक की थी लेकिन कई लोगों के दिलों में धुकधुकी होने लगी। मामला गम्भीर होते देख बहोरना ने शांति पाठ किया," अरे मशीन चलेगी तब न ss। बैंक में हमेशा तो खराब रहती है। खजांची बाबू खुदे नहीं चलने देंगे। बहाना एकदम टंच। बिजली नहीं रहती और बड़े जनरेटर का पुर्जा मिल नहीं रहा। मतलब कि कल पुर्जा की काट भी कल पुर्जे से। कर्जा माफी होती रहेगी, निश्चिंत रहें।"
लोगों की धुकधुकी फिर कच्ची लीक चलने लगी। अटकी साँसें सामान्य हो चलीं।
रानी के डंडे की बात सुन कर 'दिल्ली रिटर्न' रमपतिया अखबार वाले से भी नहीं रहा गया। लाठी ठेगते वह भी पहुँचा जहाँ की चौकड़ी अब दहाई हो रही थी। साँवला चेहरा काला पड़ गया था। देह के नाम पर ठठरी लेकिन आँखें बत्ती की तरह रोशन। देख के डर लगता था। उसे देख सब लोग दूरी बनाने लगे। उसने चर्चा का सूत्र पकड़ा," अखबार नहीं रहने से सूचनाएँ नहीं मिलतीं। मैं ठीक रहता तो अखबार से सूचना मिल गई होती। अब मोबाइल थोड़े रानी के डंडे के बारे में बताएगा!"
रमपतिया पिछले तीन महीने से बिस्तर पकड़े हुए है। ठीक था तो लक्ष्मीपुर टेसन से जाकर भोरहरे अखबार ले आता था। गाँव में दो तीन ग्राहक थे, बाकी कुछ गिने चुने लोग उधरिया एक दिन की बासी खबर पढ़ते थे, देश दुनिया की खबर से लेकर नरेगा के घपलों तक से वाकिफ रहते थे। सबसे बड़ी अचरज की बात यह थी कि क़स्बे गए लोग अखबार पढ़ आते थे लेकिन बस लोकल खबर। फ्रंट पेज की खबरें जब तक कोई विवेचित न करे, उनकी समझ में न आती थीं और न ही वे कोई रुचि ही रखते थे। पढ़ी हुई बातें भी छिपा कर रखी जातीं और ऐसी जुटानों में चटकारेदार मनोरंजन का सामान बनतीं।
ऐसे में रमपतिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका उसकी बीमारी के कारण समाप्त हो चली थी। गाँव में अब सहज हो चली उदासीनता के कारण उसका एक तरह से लुप्त हो जाना भी किसी को नहीं अखरता था।
रजुआ ने उसे कोंचा," त भैया कैसे बेराम परि गइल? टी बी हे का ??"
रमपतिया की बीमारी के बारे में तरह तरह की बातें गाँव में प्रचलन में थीं, बात साफ करने के लिए रजुआ ने मौके का फायदा उठाते हुए यह प्रश्न किया था।
रमपतिया की आँखों में गर्वीली चमक आई और खाँसते हुए उसने बताया,"मुझे एड्स हो गया है।"
रजुआ ने इस बीमारी के बारे में सुना भर था। जान बूझ कर बनाते हुए बोला," अँड़ास? ई कौन बेमारी हे?"
रमपतिया की खाँसी खामोश हो गई। उसने डाँटते से स्वर में जवाब दिया," अनपढ़ तो हो ही, कान भी खराब हो गए हैं क्या? एड्स कहा एड्स। बहुत भारी बीमारी है। एक्के दुक्के को ही होती है लेकिन इसके लिए प्रधानमंत्री से लेकर फिल्मी हिरोइनें तक फाइव स्टार होटलों में मीटिंग करते हैं। भरी दुपहरी पोस्टर बना जुलूस निकालते हैं। जिसे कभी साक्षात न देख पाओ उसे इन जुलूसों में देख लो। बस बम्बई, दिल्ली जाने की ज़रूरत है। अँड़ास ! हुँह"
लोगों को भौंचक करने के बाद रमपतिया लाठी ठेगते चल दिया।
बीमारी का इतना घमंड ! लोगों के अचरज पर बहोरना ने मुलम्मा चढ़ा कर उसे सामान्य करने का प्रयास किया," ये बीमारी कई लोगों से देंहजी सम्बन्ध बनाने से होती है। हमको हमेशा शक था कि अखबार के बहाने ये भिंसारे क्या करने जाता है? सारी कमाई टेसन के बगल में उड़ा आता होगा। भिंसारे कुकर्म! छि:"
लोगों ने इशारे समझे और बहोरना की कल्पनाशक्ति पर शक करें कि शोर उठा," डंटा आ गइल! बेटहनी डंटा आ गइल!!"
लाला को हँसी आ गई,"बेटन बेटहनी हो गइल। ई रजुआ के खेला हे। सारे घूम घूम के कलिहें से बतावता।"

रानी का डंडा बड़ी शानदार कार से उतरा। उसे हाथ में लिए काला चश्मा लगाए जो नार निकली वह बिटिहनी थी की औरत? पता नहीं चल रहा था। लाला ने यह भी नोटिस किया कि वह थी तो देसवाली लेकिन अंग्रेजन सी दमक रही थी। ब्लाउज जैसा जो कुछ उसने पहन रखा था वह खतरनाक स्तर तक नीचे की ओर कटा हुआ था। लाला को सनसनी होने लगी लेकिन फिर ललाइन की सोचे तो सनसनी शांत हो गई। उन्हों ने बहोरना के कान में फुसफुसी की – गोरकी के देख! मस्त माल !!
कार के साथ इतनी गाड़ियाँ की पूछो मत – जीप पर पुलिस वाले। अम्बेसडर से उतरे तोंदू लोग। कई मोटरसाइकिलों पर लखेरे और एक बड़ी सी वैन में ऊपर छाता ताने टी वी वाले। इंतजाम एकदम पोख्ता था।
गाँव के कुत्ते इकठ्ठे हो जोर जोर से भोंकते इधर उधर भागने लगे और लोग घेर कर तमाशा देखने लगे । रजुआ बेटहनी डंटा ली हुई बिटिहनी को घूरे जा रहा था। बहोरना ने सब छोड़ डंडे पर ध्यान केन्द्रित किया। बे सूल साल का डंडा - न किसी को मार सको, न डरवा सको और न पड़रू हाँक सको ! ऊपर से डिजायन बना उसे भी जनाना बना दिए थे। ठीक है, आदमी हाँकने के लिए डंटा अउर तरह का होना चाहिए। उसे भैया जी और उनके आदमियों की अनुपस्थिति पर भी आश्चर्य हो रहा था। होगी कोई बात, सोचते हुए उसने सिर झटक दिया।
एकाएक गोरकी ने डंडे को ऊपर किया और कुछ हे हू जैसा बोला। ब्लाउज ऊपर को खिसकी तो छातियाँ उभर आईं। सनसनाया रजुआ फिलिम की तरह की गोरकी को देखे कि डंडे को ? आँखें फट गई थीं।
भरे दिन में भी लैट जला कर कैमरा चलवा एक फिटर्रा मनई जोर जोर से चिल्लाने लगा,” अभूतपूर्व है! अभूतपूर्व है यह नज़ारा!! इंसान के भाईचारे की भावना को लिए यह बेटन पहली बार किसी गाँव में आया है। देखिए गाँव वालों को, कितने खुश हैं ! सच है भाईचारे की भावना अमीरी गरीबी, गाँव शहर, जाति पाति , धर्म मज़हब कुछ नहीं देखती। हमें उम्मीद है कि इस बार के खेलों से वह घटित होगा जो कभी नहीं हुआ।“
कैमरा बन्द करवा कर उसने पसीना पोंछना शुरू किया,”शिट ! ये उमस, धूल धक्कड़।“

जिस समय फील्ड में यह सब होना शुरू हुआ था, उसके कुछ पहले यशवंत प्रधान के यहाँ दो तीन लोग आग बबूले हो रहे थे। पांड़े बोला,” ई कौन कायदा ? डंटा परधान के इहाँ न आई ?”
यशवंत पढ़े लिखे युवा थे। उन्हें फील्ड पर जाने में कोई उज्र नहीं था लेकिन कचोट यह थी कि कुँवर बाबा ने डंडे के आने की खबर उन्हें एडवांस में नहीं बताई। मैडम आती हैं तो कितनी अच्छी व्यवस्था कराई जाती है ! इस बार कोई इंतजाम नहीं कर पाए। हाथ मलते घूम घूम सोच रहे थे, टीवी पर आने का मौका विचल गया !
 पाँड़े ने समाधान दिया।
“भैया हो ! टट्टर ले के जातनी। सबके इहें ले आवतनी।“ मौन सहमति पा कर पाँड़े ने ट्रैक्टर ट्रॉली स्टार्ट किया और भैया जी के दसियो कार्यकर्ता उस पर सवार हो फील्ड की ओर चल दिए।
टी वी वालों ने समेटना शुरू कर दिया था और गाँव वाले ? ग़जबे निराश थे। इतने का ही इत्ता सारा हल्ला था! सब तैयारी धरी ही रह गई – न खेल, न तमाशा, न भाषण। औरतें रजुआ को कोस रही थीं कि भैया जी का ट्रैक्टर आ पहुँचा। पाँड़े सीधा गोरकी के पास पहुँचा और डंडे को करीब करीब छीनने लगा। फिटर्रे मनई ने फौरन कैमरे वाले को इशारा किया और जोर जोर से अभी शुरू ही किया था,” कुछ असामाजिक तत्त्व ...” धप्प! एक कार्यकर्ता ने कैमरे के लेंस पर गमछा पहना दिया। दूसरे ने फिटर्रे का हाथ जोर से दबा कर चुप रहने की शिक्षा सेकंडों में दे दी। तीन कार्यकर्ता दारोगा जी से बातें करने लगे।
गाँव वाले तो लहालोट! अब मज़ा आई!! पाँड़े ने गोरकी को कहा,” कारे में नाहीं, टाली पर चले के परी हो रानी! पूरा जुलूस निकली, गाँव भर घूमी। ऐसहे कैसे चलि जैबू? ”। जाने पाँड़े की वज्र पकड़ का प्रभाव था कि ‘रानी’ नाम का कि ‘रानी’ सम्बोधन का – गोरकी ट्रॉली में सवार होने के प्रयास करने लगी। रानी का डंडा पाँड़े के हाथ में था। रजुआ और बहोरना गोरकी को ट्रॉली पर सवार कराने के बहाने जिस्म की नरमी का अन्दाजा ले रहे थे। बाकी कार्यकर्ताओं ने टीवी वालों को और साथ में आए साहब लोगों को भी ट्रॉली पर चढ़ा दिया। पाँड़े ने जोर से नारा लगाया,” बोल रानी के डंटा के ...!”
“जय!” गगनभेदी समवेत स्वरों में मंगलकामना लिए अभिवादन गूँजा। प्रजा धन्य हो उठी । जुलूस चल पड़ा। दारोगा जी की गाड़ी सबसे पीछे एस्कॉर्ट की तरह लग गई। लाला से बहोरना बोला,” ये है गँवई स्वागत! रानी का डंडा भी याद रखेगा। हम तो कहे कि दुर्गाधसान के टैम से भी बढ़िया है नज़ारा !आरकेस्ट्रा के कमी रही सो गोरकी पूरी किए दे रही है।” (अगले भाग का लिंक )

20 टिप्‍पणियां:

  1. हा हा ! अल्टीमेट पीस निकाल के लाये हैं ये वाला तो. ४-५ जगह तो हंसी नहीं ही रुकी. झाडे रहिये.

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  2. बहुते लम्बा है..आलसी का तो नहीं लग रहा...आराम से पढ़्कर कमेंटियाते है..अभी बुक मार्क किए है रात घिर आने के चक्कर में.

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  3. बाऊ , ठहर के टीपेंगे .. पढ़ते हुए मुझे अपने अवधी में संवाद करने वाले कौवा और बगुला पात्रों की याद भी आ रही है ! .. आता हूँ ..

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  4. वाह गिरिजेश भाई
    बहुत अच्छा चित्र खींचा है रानी के डंडा के।
    मजा आ गया।

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  5. ये रानी का डंडा तो हम पर चल गया मुझे पूरे 20 मिन लग गये इसे पढते और कमेन्ट करते। बहुत अच्छी लगी रचना। आभार।

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  6. कृपया हिंदी में लिखें, ग्रामीण भाषा समझने में कठिनाई होती है.

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  7. @ बेनामी जी,

    आपकी इस बात से तो मैं सहमत हूँ कि गिरिजेश जी के इस लेख में कहीं कहीं अन्य भाषाई लोगों को यह देहात की भाषा समझने में दिक्कत आती है लेकिन हो सके तो इस ग्रामीण भाषा का भी आनंद लिजिए....।

    पाकिस्तान के लेखक मुश्ताक अहमद युसुफी के खोया पानी में कहीं पढ़ा था कि -

    गाली, गिनती और गंदा लतीफा तो अपनी मादरीजबान में ही मजा देता है।

    इस मजेदार लेख में आए तमाम पात्र भदेस ढंग से जो बातें कह रहे हैं उसका मजा इसी अंदाज में पढ़ने पर आएगा।

    यह लेख बज्र देहात का ऐसा कोलाज है जिसका आनंद उस देहात का अनुभव ले चुके लोग ही अच्छी तरह समझ सकते हैं।

    लेकिन जो उस देहात से न हुए वह भी कम से कम अनुभव लेने के लिए तो पढ़ ही सकते हैं।

    और आप बेनामी होकर काहे लिख रहे हैं महाराज.....नाम के साथ अपनी बात रखिए.....कोई चोरी-छुप्पा थोडौ न है :)

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  8. शानदार लेख है गिरिजेश बाबू.... एकदम रापचिक।

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  9. रानी के डंडे में बड़ा जोर है ...वो सात समंदर पार वाली हो या ...??
    स्वागत सत्कार बढ़िया करे हैं ...आगे आगे देखते हैं होता क्या है ...!

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  10. रानी और बेटन के इर्द गिर्द बुना गया कथानक आंचलिकता के स्पर्श से और भी निखर उठा है ,बेटन से दासत्व बोध और गोरकी से दासत्व का शहरोन्मुखी होना तथा उसका गांव पर जबरिया आरोपण सहज कह पाए हैं आप ! दासत्व को किसी ना किसी रूप में ढोते रहने से आपकी असहमति से सहमत हूं !

    एक बात जरुर खटकती है कि कथानक में ज्यादा से ज्यादा प्रसंग जोड़ने के कारण से कथा प्रवाह धीमा हो गया ! मसलन विधायक का विस्तार और एड्स वगैरह ! शायद इन्हें समेटा / हटाया भी जा सकता था ?

    इसके बावजूद राजदंड और गोरकी नें समा बांध रखा है ! वैसे एक फोटो और अपेक्षित था :)

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  11. सच है देर तो लगती है पढने में किन्तु बीच बीच में ग्रामीण भाषा में सवांद होने से कथन की सम्पूर्णता बनी रहती है और पूरा का पूरा चित्र आँखों के सामने आ जाता है |
    बहुत अच्छा लगा रानी का डंडा |

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  12. राव साहब ,
    संवाद में सजीवता है , जो स्थानीय भाषा में खिली है , सबसे पहले यही विशेषता अपनी ओर ध्यानाकर्षण कराती है | 'ग्रामीण भाषा समझने में कठिनाई' पर जवाब देने के दौरान पंचम जी कोलाज का जिक्र कर गए हैं | कोलाज तो सही सोचा गया है पर पात्रों की आवाजाही और उन पात्रों का पारस्परिक मिलान नहीं हो पा रहा है | नाटक के शिल्प की जरूरत को सपाट गद्य से पुरवाने पर ऐसा होने की संभावना प्रबल हो जाती है | लघु नाटक में जब पात्रों का पारस्परिक मिलान नहीं होता तो अलग अंक की योजना इस कमी को अक्सर 'मेंटेन' कर देती है | निष्कर्ष में कहूँ तो बात कहने के लिए आप जितना सहज भाषा में हैं उतना ही असहज शिल्प को लेकर हैं | नहीं जानता कि अगली प्रविष्टियों में आपकी योजना क्या है पर यहाँ यह खटक रहा है | प्रतीक में बोलूं तो एक राजदंड इतने पात्रों को नहीं हांक पा रहा है !

    बाकी जो सकारात्मक है , उसके बारे में क्या कहूँ , आनंद ले रहा हूँ | राजदंड पर ठोस आंग्ल-मूलाधार और इटैलियन नक्काशी की चमक दिख रही है |

    @ बेचारे बिधायक का बस नाम ही विधायक।,,,,,,,,,,,,,,
    एक अवधी - कहावत याद आ गयी ---
    '' उद्धा की कौड़ी से , पान वै चबावैं |
    जेबी मा झांट नहीं, चौधरी कहावैं || '' { इतना भदेस तो चल सकता है न ? }

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  13. झन्नाटेदार ,उन्ही डंडवा के चक्कर में त हमहूँ परेशान हई दुई दिन से ..ससुरी छूहऊ क नाई मिली ...मुला इंही बहाने कुछ जरूर मन्सायन हुई ग .... यहाँ का महापौर एके गुलामी क प्रतीक मानिके आपन जोरदार कवरेज कराई लेहेन ...ई हमहू सोचत बाटी की किसान उसान के बजाय कैसन कैसन लोग लुगायीं ऐके थामे देखात बाटेन -सब रानी क परिवार वाले और लाठ साहब लोग जनात हईन....आपु ई डंडवा नई पकड़न? हम एक मनई से जब यिही सवाल पूछे त उहौ इहै कहेस कि डंडवा हमार लंडवा पकडई-जाथई आपन कम धाम करई -ई डंडवा क साथे घूमब त मिट्टिया के खोदे ?
    *उपर नहीं ऊपर

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  14. राव साहब इ रानी के डंडा हम जैसन लोगों के लिए थोरा पढने में सखत रहा पर डंडा सखत ना रहे तो भला मजा कैसे आइल .भाई हमका तो बहुते ही मज़ा आया.. आगे देखते हैं कि इ डंडा किस ओर झुकले है. (ये एक कुमाउनी कि भोजपुरी है किसी तरह से झेल लो )

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  15. अच्छी पोस्ट,बेहतरीन रचना-मजा आ गया

    अमरेंद्र जी का भदेस स्लोगन भी जोर दार है।:)

    यह पोस्ट ब्लाग4वार्ता पर भी है

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  16. लुआठी अउ रानी के बढि़या किस्‍सा सुनावत हावस भाई. रानी ह बिलाउज पहिने रहिसे ये हमर उपर किरपा करे रहिसे, नई त बड़े लोगन बड़े बात. काला तोपना हे काला नई तोपना हे ये इहीं मन जानथे. आखिर जेखर हाथ मा लुआठी भंइसी ओखरे.

    अउ जब गवंहा मन जब अपन औकात म आथे त, लुआठी सम्‍मेत रानी हमर ट्राली मा रपोटा जाथे।

    जय जोहार, आघू के कड़ी के अगोरा हे .........

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  17. गिरिजेश सर,
    टाईटिल ही बहुत मस्त है ’रानी का डंडा’
    सोनमतिया की मोछि पर उसकी बेटी का सवाल और उसके मरद को मरे तीन साल वाली बात, ऐसा इंगितीकरण आप ही के वश का है।
    पोस्ट पढ़कर मज़ा आ गया।

    @ जोर से नारा लगाया,” बोल रानी के डंडा के ...!” - इस प्वायंट पर एक पोस्ट लिखनी है, बस थोड़ी बोल्डनेस का इंतज़ार है, हा हा हा।
    अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार।


    @ सतीश पंचम जी:
    --------------
    भाई जी, ’खोया पानी’ के आप भी फ़ैन हैं, हुर्रे!
    स्पैशल आर्डर देकर मंगवाई थी मैंने, और यहाँ पंजाब में हिन्दी पुस्तकों की अनुपलब्धता के चलते समझ लीजिये हर दूसरे महीने एक बार बांच लेते हैं इसे।

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