आवारगी हमेशा बुरी नहीं होती। तब जब ब्लॉग जगत में यूँ ही निरुद्देश्य घूमा जाय तो यह बहुत अच्छी हो जाती है। हिन्दी सिनेमा को मैं निरर्थक मनोरंजन की एक विधा मानता था। पूर्वग्रह जब मस्तिष्क पर काई सा बैठ जाय और पसरता हुआ जड़ जमा जाय तो घातक रोग में तब्दील हो जाता है।
लगभग साल भर पहले की बात है। हिन्दी सिनेमा घृणा का घातक रोग लिए ब्लॉगरी के शुरू के दिनों में यूँ ही भटक रहा था कि आवारा हूँ के इस लेख पर पहुँच गया।
... लगा कि जैसे राजदरी देवदरी प्रपातों के नीचे खड़ा हूँ - झर झर झर
और सब कुछ धुलता चला गया। ...
हाँ, लिखा जा सकता है - किसी पर भी।हर किसी में कुछ न कुछ सार्थक होता है । सिनेमा तो कला है। सुख-दु:ख-जीवन की अभिव्यक्ति है! उस पर तो जाने कितने पन्ने रँगे जा सकते हैं !
मिहिर पण्ड्या अपने इस ब्लॉग पर अनवरत रचना संसार सृजित कर रहे हैं। सेल्यूलाइड पर अमर कर दिए गए दृश्य, ध्वनियाँ, गीत, संगीत, भावनाएँ, प्रकाश, अन्धकार .... सबको बहुत बारीकी से विश्लेषित करते हैं और तह दर तह खोलते जाते हैं।
लाइट, कैमरा, ऐक्शन !!
ये तीन शब्द जो रचते हैं, उस पर बहुत कुछ रचा जा सकता है। ज़रा देखिए तो सही । बस समीक्षा नहीं, साहित्य भी मिलेगा।
नेट की धीमी गति के कारण अब मैं यहाँ बहुत कम जा पाता हूँ लेकिन मेरा दावा है - आप निराश नहीं होंगे।
एक अनावश्यक सूचना:
जवाब देंहटाएंमैं गुलजार का प्रशंसक नही हूँ। पूर्वग्रह नहीं, एक अलग दृष्टि है।
कभी इस बारे में भी लिखूँगा - सम्भवत: कविता वाले ब्लॉग http://kavita-vihangam.blogspot.com पर।
ये तीन शब्द जो रचते हैं, उस पर बहुत कुछ रचा जा सकता है।
जवाब देंहटाएंसही बात .. और फिर यही तीन शब्द क्यों किसी भी शब्द में इतना विस्तार है कि उसपर बहुत कुछ लिखा जा सकता है.
आवारा हूँ के लेख तक ले जाने का शुक्रिया
एक और गली जहां से नया आसमान खुलता है ! शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंएक अनावश्यक सूचना:
जवाब देंहटाएंमैं गुलजार का प्रशंसक नही हूँ। पूर्वग्रह नहीं, एक अलग दृष्टि है।
गुलजार (बाग जलाने वाला) या गुलज़ार?
;)
जवाब देंहटाएंआवारगी आपके सामने वह प्रस्तुत कर देती है जो आपने कभी सोचा नहीं हो।
जवाब देंहटाएंये तो पहले से पता था।
जवाब देंहटाएं:)
भई मैं तो गुलज़ार का प्रशंसक हूँ.....भयंकर प्रशंसक।
जवाब देंहटाएंबताई गई साईट पर विजिट कर देखता हूँ।
मिहिर पंड्या जी की साईट तो धांसू लगी। स्पेशली उनकी समीक्षा। थ्री इडियट के विवादों पर भी उन्होंने अच्छा लिखा है।
जवाब देंहटाएंजा रहे हैं वहीं..खरामा खरामा!!
जवाब देंहटाएं@ स्मार्ट भैया,
जवाब देंहटाएंकहते हैं कि एक नुक्ते के फर्क से खुदा जुदा हो जाता है। :)
वैसे यह 'जार'शब्द बहुत खतरनाक है। 'यार' की उत्पत्ति इसी शब्द से हुई है। मूलत: यह वैदिक शब्द है। अथर्ववेद में तो प्रिया के 'जार' से निपटने के लिए मंत्र तक बताए गए हैं।
गुल भी कम नहीं। बाग तो है ही। गुल होने से ग़ायब होने का भी अर्थ लगता है...
ये क्या? मैं तो भाऊ की तरह शब्द मीमांसा करने लगा !
आप अच्छी जगहों पर पहुंचा रहे हैं , आभार !
जवाब देंहटाएं.
लगे हाथ जार-शाही पर भी कुछ कहते जांय ! जरापा जार-जार जरे !
कभी उधर का भी रुख करगें अभी जरा इक्तीस्वे साल पर शोध चल रहा है
जवाब देंहटाएंसिनेमा कला ही तो है ...अन्य कलाओं की ही तरह ...
जवाब देंहटाएंबस बनाने वाले की दृष्टि सही हो ...
गुलज़ार को कोई नापसंद कैसे कर सकता है ...मैं इस पर लिखने वाली हूँ ...:)
आप अच्छी जगहों पर पहुंचा रहे हैं , आभार !
जवाब देंहटाएंदेखा तो यह हमने भी था लेकिन नज़र आपकी पड़ी है ।
जवाब देंहटाएंराजदरी-देवदरी प्रपातों का जिक्र ! पहुँचे हैं क्या यहाँ ?
जवाब देंहटाएंइन्हीं पहाड़ों-झरनों की गोद में हूँ आजकल !
मिहिर के ब्लॉग पर पहुँच पढ़ गया हूँ बहुत कुछ ! अविरल प्रवाह ! प्रपात-सा ही ! आभार ।