रविवार, 18 अप्रैल 2021

संवत्सर - आनन्द या राक्षस?

 

कभी ५ वर्ष का एक युग होता था, ६० महीनों का (वेदाङ्ग ज्यौतिष)। जब आप शताब्दियों की परास में कालचक्र का प्रेक्षण करना चाहते हैं तो बड़ी इकाई की भी आवश्यकता पड़ती है। जितनी बड़ी संख्या, त्रुटि की सम्भावना उतनी ही अल्प।
धरा के १२ माह १२ आदित्यों से जोड़ कर देखे जाते थे, सूर्य नमस्कार मन्त्रों का ध्यान करें। सूर्य के आभासी वार्षिक पथ को १२ आदित्यों में बाँट कर देखा जाता। यह पाया गया कि गुरु ग्रह लगभग एक वर्ष में एक आदित्य की दूरी पूरी करता है। अर्थात् १२ वर्षों में पूरा चक्र। अर्थात् यदि एक पृथ्वी वर्ष को महामास मानें तो महावर्ष हुआ १२ पृथ्वी वर्ष और ऐसे ५ महावर्षों का हुआ एक महायुग (कलि, द्वापर आदि को इसमें न लायें, यह भिन्न बीज वाला गणित है।) १२×५ = ६० वर्षों के संवत्सर चक्र का यही रहस्य है। सबको भिन्न भिन्न नाम दिये गये और एक चक्र पूरा होने पर पुन: उन्हीं नामों का दूसरा चक्र आरम्भ होता। लेखा जोखा व गणना हेतु बड़ी परास मिल गयी।
किन्तु प्रकृति व पूर्णाङ्क में बैर है। गुरु एक आदित्य से दूसरे के घर ~३६५.२५ दिनों में न जा कर ~३६१.०३ दिनों में ही पहुँच जाते हैं। आप जानते ही हैं कि चान्द्रवर्ष अर्थात चन्द्रकलाओं वाले २९.५ दिनों के १२ मासों का वर्ष मात्र ३५४ दिनों का होता है तथा लगभग प्रत्येक ८ वर्ष में ३ मलमास लगा कर उसे सौरवर्ष के निकट लाया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक १९वें वर्ष सौर दिनांक व चान्द्रमास तिथि सम्पाती हो जाते हैं।
अर्थात् जो हमारा सौर-चान्द्र समन्वित वर्ष है, उसे लम्बी परास में सौर वर्ष माना जा सकता है।
अब देखिये कि किसी वर्ष प्रतिपदा को आपका वर्ष और बार्हस्पत्य संवत्सर एक साथ आरम्भ हुये, परन्तु बार्हस्पत्य संवत्सर का अन्त वर्षान्त से ४.२३ दिन पहले ही हो गया। अगले वर्ष यह अन्तर हो जायेगा २×४.२३ दिन, उसके अगले वर्ष ३×४.२३ दिन... इसी प्रकार यह अन्तर बढ़ता जायेगा और लगभग ८५ या ८६ वर्षों पश्चात ऐसा होगा कि पीछे घटता नया संवत्सर नये वर्ष का स्पर्श ही नहीं कर पायेगा। ऐसा होने पर उसका लोप माना जाता है क्योकि नववर्ष लगने पर उससे आगे वाले संवत्सर का क्रम आ जाता है। चक्र ऐसे ही चलता रहता है।
इस वर्ष आनन्द नामधारी का लोप हो गया और राक्षस का क्रम आ गया।
एक अपर बात।
६० संवत्सरों को २०-२० कर ब्रह्मा, विष्णु व रुद्र की ३ 'बीसियों' में बाँटा गया है। प्लवङ्ग से ही रुद्र की बीसी चल रही है (विक्रम २०७१, 2014-15 CE) से। रुद्र की बीसी को सामान्यतया ज्योतिषी विनाशी ही बताते हैं किन्तु संहार से निर्माण भी जुड़ा है। केन्द्र में दशक पश्चात हुये सत्ता परिवर्तन को देखें। विष्णु की बीसी में तो वेटिकनी मौनी राज था। उससे तो अच्छा ही है।
दक्षिण भारत ने लगभग १२०० वर्ष पूर्व आर्यसिद्धान्त को अपनाया और बार्हस्पत्य संवत्सर चक्र से लोप प्रक्रिया का त्याग कर दिया। परिणामत: उनके संवत्सर नाम की संगति उत्तर के सूर्यसिद्धान्तीय पद्धति से नहीं बैठती।

यह भी है कि यदि वह आरम्भ बिन्दु जब बार्हस्पत्य संवत्सर एवं सौर-चांद्र वर्ष सम्पाती माने गये किसी पद्धति में भिन्न हुआ तो उसमें लोप हुआ संवत्सर आनन्द से भिन्न होगा।

पुनश्च:

१९ वर्षीय सम्पात की बात की न! १९×५ = ९५ वर्षों का एक अन्य युग वैदिक याज्ञिक परम्परा में प्रयुक्त होता था। श्येनवेदी अर्थात पंख पसारे गरुळ की आकृति वाली महावेदी जोकि संवत्सर चक्र की रेखागणितीय प्रारूप होती, उसमें ९५ की संख्या भी मह्त्वपूर्ण थी। अपने आप में बहुत रोचक है जिसका सैद्धान्तिक ज्यौतिष से कोई सम्बन्ध नहीं।

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