अहा शबरी! सिद्धा सिद्ध सम्मता
कच्चित् ते नियमाः प्राप्ताः कच्चित् ते मनसः सुखम् !
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जन्मों की साध पूरी हुई है, प्रभु पधारे हैं। सिद्ध तापसी शबरी पहले कृताञ्जलि मुद्रा में आवभगत करती है और दोनों के पाँव पकड़ लेती है। श्रीराम 'कच्चित अर्थात है कि नहीं' के बहाने सुध लेते हैं:
कच्चित् ते निर्जिता विघ्नाः कच्चित् ते वर्धते तपः
कच्चित् ते नियतः कोप आहारः च तपोधने
कच्चित् ते नियमाः प्राप्ताः कच्चित् ते मनसः सुखम्
कच्चित् ते गुरु शुश्रूषा सफला चारु भाषिणि
आप के विघ्न समाप्त हैं, हैं कि नहीं,
तप बाढ़ पर है, है कि नहीं,
हे तपोधनी! उनसे आप की उद्विग्नता और रोगादि नियत, सम पर हैं कि नहीं।
हे चारु भाषिणी! तुमने अपने नियम की सिद्धि पा ली है, है कि नहीं,
मन सुखी है, है कि नहीं,
गुरु की शुश्रुषा सुफल हुई है, है कि नहीं।
रामेण तापसी पृष्ठा सा सिद्धा सिद्ध सम्मता
शशंस शबरी वृद्धा रामाय प्रति अवस्थिता
ऐसे हाल चाल पर सिद्धों द्वारा सम्मत उस सिद्धा ने राम के लिये स्वयं को अवस्थित कर उत्तर दिया:
अद्य प्राप्ता तपः सिद्धिः तव संदर्शनात् मया
अद्य मे सफलम् जन्म गुरवः च सुपूजिताः
अद्य मे सफलम् तप्तम् स्वर्गः चैव भविष्यति
त्वयि देव वरे राम पूजिते पुरुषर्षभ
तव अहम् चक्षुषा सौम्य पूता सौम्येन मानद
गमिष्याम्यक्षयांलोकांस्वत्प्रसादादरिन्दम
तुम्हारे आज दर्शन हो गये राम! तप सिद्धि हो गयी।
आज मेरा जन्म सफल हुआ, आज गुरु की पूजा सफल हुई।
आज मेरे जो भी तप थे, सफल हुये और स्वर्ग भी होगा।
हे पुरुषोत्तम! आज मैंने तुम्हारा स्वयं पूजन किया।
तुमने
अपने सौम्य रूप का दरस दे आँखें जुड़ा दीं, मुझे इतना मान दिया। हे अरिंदम!
तुम्हारे प्रसाद से मैं अब तुम्हारे लोक जाना चाहती हूँ।
शबरी
के लिये महर्षि वाल्मीकि सञ्ज्ञायें प्रयोग करते हैं - श्रमणीम् धर्म
संस्थिताम्। दोनों भाइयों को पाद्य और अर्घ्य अर्पित करती है - यथाविधि।
धर्मसंस्थिता श्रमणी यथाविधि सत्कार करेगी और जूठे बेर खिलायेगी? कदापि नहीं।
अतिथि
को जूठा नहीं खिलाया जाता ।
शबरी के घर तो स्वयं आराध्य अतिथि बन कर पधारे
थे । ऋषियों के सान्निध्य में रहने वाली तपोधनी इतनी मर्यादा भी नहीं
जानती होगी ?
देसी भाषा में रचना के समय भक्तिधारा का मार्ग भिन्न था, वाल्मीकीय रामायण देखिये जो समस्त सरिताओं का हिमालय है।
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मुनीनाम् आश्रमो येषाम् अहम् च परिचारिणी - मैं ऋषियों के आश्रम की परिचारिणी भी हूँ।
मया तु विविधम् वन्यम् संचितम् पुरुषर्षभ
तव अर्थे पुरुषव्याघ्र पम्पायाः तीर संभवम्
ऋषि ने कहा तो हे पुरुषोत्तम, तुम्हारे लिये लिये इस पम्पा तीर पर वन में उपजने वाले विविध खाद्य सङ्गग्रहीत कर रखी हूँ।
शबरी राम को आश्रम के दर्शन कराती हैं। राम विस्मित हैं - प्रहर्सम् अतुलम् लेभे आश्चर्यम् इदम् च अब्रवीत् ।
आराध्या
'वृद्धा रामाय प्रति अवस्थिता' से आराध्य इतना चकित है कि बिन माँगे ही
सरि फूट पड़ती है - अर्चितो अहम् त्वया भद्रे गच्छ कामम् यथा सुखम्।
शबरी
निहाल हैं, अब किसलिये यह देह धारण करना ? जो स्वयं चल कर आया है, क्यों न
उसके लिये आहुति ही दे दूँ !
आहुति के समय वाल्मीकि क्या लिखते हैं - जटिला चीर कृष्ण अजिन अंबरा । अनुज्ञाता तु रामेण हुत्वा आत्मानम् हुत अशने... आहुति के पश्चात शबरी कैसी हो जाती हैं?
दिव्यम् आभरण संयुक्ता दिव्य माल्य अनुलेपना
दिव्य अंबर धरा तत्र बभूव प्रिय दर्शन
विराजयन्ती तम् देशम् विद्युत् सौदामिनी यथा
दो
विरुद्ध स्थितियों के बीच साधक और साध्य; अग्नि एवं आहुति जैसे एकाएक
दीप्त हो उठे हों! वाल्मीकि भक्त और ईश्वर के साक्षात्कार को अद्भुत प्रभा,
ऊर्जा और संलयन प्रदान करते हैं - विराजयन्ती तम् देशम् विद्युत् सौदामिनी
यथा।
...
इसे कहते हैं जीवन की सिद्धि कि आगे के लिये कुछ बचा ही नहीं!
जाने शबरी के भाव कैसे रहे होंगे, दर्शन तो राम ने बहुतों को दिये।
अरिंदम
अर्थात शत्रुओं का दमन करने वाला शब्द प्रयोग चिह्नित करने योग्य है। शबरी
के लिये राम अरिंदम सिद्ध हुये, भीतर जो भी विकारी दोष शत्रु थे, नष्ट हो
गये। वह मुक्त हो गयीं।
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