मोबाइल अलार्म पर भूमि सूक्त बज उठा है:
पुरी।
रात का अंतिम प्रहर 3:30। प्रथम प्रहर में पुरी तट की लहरों पर अठखेलियाँ करती अंग्रेजी कविता लुप्त हो चुकी है। आज धरती नहीं आदित्य से साक्षात्कार है। पुत्री को जगाता हूँ – उठो! तैयार हो जाओ। टैक्सी साढ़े चार तक आ जायेगी। सूर्योदय चन्द्रभागा तट पर देखेंगे...
...प्रसाधन कपाट बन्द होने के साथ वाक्य मन में पूरा करता हूँ ...और किरणों के स्वामी आदित्य को कोणार्क में।
कोणार्क: सन्धि विच्छेद कोण और अर्क क्रमश: ज्यामिति और सूर्य के लिये या कोण से कोना और अर्क से निचोड़ यानि समस्त दिशाओं के कोनों का निचोड़?
इतने महान उद्देश्य और इतनी उदात्तता के साथ स्थापित मन्दिर ध्वस्त कैसे हो गया? शापित क्यों हो गया?
कुछ भी हो शापित के लिये शापित 'कोणादित्य' ही आराध्य है।
एक मिथक कहता है - अनिन्द्य सुन्दरी सुमन्यु पुत्री चन्द्रभागा के साथ कामवश सूर्य ने दुर्व्यवहार किया और उसके पीछे भागा। निज को बचाती भागती चन्द्रभागा ने लज्जा बचाने को जिस नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली, वह उसके नाम से प्रसिद्ध हुई। पुत्री की आत्महत्या से क्षुब्ध सुमन्यु ने सूर्य को शाप दिया। कालांतर में शापित सूर्यमन्दिर ध्वस्त हो गया...
मन्दिर निर्माण के लिये पत्थर नदी मार्ग से लाये गये थे। कौन थी वह नदी? क्या हुआ उसके साथ?
...प्रश्नगुच्छ लिये बाहर आ गया हूँ। नभ में मेघों का आभास है और ऊषा कहीं नहीं है।
प्रणाम पुरी! ऊषा मिले तो ला दो न! अपने आकाश से मेघ घूँघट हटा दो, मैं देखना चाहता हूँ।
भला प्रकृति ने मनुष्य की कब सुनी जो आज सुनेगी?...
...किसी युग में दो ही आराध्य थे – धरती मैया और सूरज दादा। आज धरती मैया अपूजनीय है, चिंत्य है और गिने चुने सूर्य मन्दिर ही बचे हैं। और किस किसने शाप दिये? कुछ नहीं यह चक्र है - सभ्यतायें उत्कर्ष और अपकर्ष को प्राप्त होती हैं। सूर्य और धरती चुपचाप स्वयं को प्रवादग्रस्त होते देखते हैं। मनुष्य निज पछतावों के मिथक गढ़ते जाते हैं...
उमस है, भीगने लगा हूँ।
“पापा, जाइये नहा लीजिये।“
पहले जल स्नान और फिर टाल्क स्नान – घिसे हुये और सुगन्धित किये कोमल पत्थरों के बारीक प्रवाह - मैं श्वेतांग। आदित्य को स्वेद प्रसाद नहीं चढ़ाना लेकिन इस जलवायु में क्या यह सम्भव है? हम दोनों तैयार हैं। परदा हटा कर खिड़की के काँच से बाहर झाँकता हूँ। प्रत्यूष काल है। एक स्मृति जगती है और आश्चर्य से जड़... चेतन हो बाहर आ जाता हूँ। क्या मैं भविष्य देख सकता हूँ? सब कुछ तो वैसा ही है! प्रार्थना के आँसू छ्लक उठे हैं। वही स्वर पुन: उठ रहे हैं:
बन्द गवाक्षों में सागौन से घिरे क्षीण स्फटिक पल्ले हैं। उनसे झाँकता आसमान कुछ कम नीला है।नीचे धरा की लहलहाती चूनर। कोप प्रदर्शन के पहले की शांति? नहीं। दधि अच्छी नहीं बनी तो क्रोध में निकाल निकाल फेंक दिया। आसमान में यत्र तत्र श्वेत बादलों के टुकड़े हैं और नीचे शांति। खगरव आज बहुत कम है।
समीर कैसा है? घावों के दाह को कोई फूँक फूँक शमित कर रहा है। रह रह झोंके। छींकें, छींकें... भीतर बन्द रहने को अभिशप्त फिर भी घाव पर रह रह फूँक। बुदबुदाते नाना, आदिम मंत्र पढ़ते, चेहरे पर फूँक मारते नाना। देवमन्दिर में प्रकाश नहीं है। आज आराधना नहीं। आने दो छींक को।
नभ को तज कर गायत्री उद्धत विश्व के मित्र के पास कैसे आई होगी? बस चौबीस पगों में अनंत की दूरी पार कर ली!
विश्वामित्र! कितना अधैर्य, कितनी प्रतीक्षा, कितनी करुणा रही होगी तुम्हारी पुकार में!! उस दिन खगरव अवश्य शून्य रहा होगा। धरा उस दिन भी रूठी रही होगी। ऋचा गायन छोड़ दधि बिलोने में लग गई होगी।
... शांति इतनी प्रबल भी हो सकती है। ध्वनियाँ होकर भी नहीं हैं।
ऐसे में प्रार्थना गाने को मन करता है।
क्या गाऊँ?
खेळ चाललासे माझ्या पूर्वसंचिताचा,
पराधीन आहे जगतीं पुत्र मानवाचा?
या
अमृतस्य पुत्रा:..
सब दूसरों के स्वर हैं। मुझे तो अपने स्वरों में गाना है।
छत पर समीर से भेंट कर लूँ। दधि टुकड़े नील श्वेत में लुप्त से होने लगे हैं।...
...और मोबाइल में पुन: भूमि सूक्त बज उठा है, इस बार बुलावा है। टैक्सी चालक बाहर खड़ा है – 4:30। तुम्हारी निष्ठा को प्रणाम चालक! ...हम चल पड़े हैं...कोणार्क को जो पुरी से 35 किलोमीटर की दूरी पर है।
भीतर जैसे बाहर का सारा मौन निचुड़ कर समा गया है। मैं वर्षों पीछे जा पहुँचा हूँ...
तुर्कपट्टी महुअवा, जिला कुशीनगर, उत्तर प्रदेश। सूर्यमन्दिर के प्रांगण में खड़ा हूँ। सूर्य की नीलम प्रतिमा सामने है। गुप्तकाल पाँचवी या आठवीं सदी। सिवाय प्रतिमाओं के कुछ नहीं बचा। आदित्यप्रतिमा से पहला साक्षात्कार है। किसी पुराकथा की अंतिम पंक्ति उड़ी सी आती है – मनुष्य नष्ट हुआ और प्रस्तर बच गया...
“मनुष्य पुनर्जन्म ले रहा है। नहीं लेता तो यह प्रतिमा पुन:स्थापित नहीं होती।“
“किस भुलावे में हो यायावर?”
“मैं यायावर नहीं, यहीं का वासी हूँ और तुम्हारा उत्खनन मेरे जन्म के बाद हुआ है। समझे कि नहीं?“...
...पुत्री सो गई है। मैं कालडाल पर पेंगे मार रहा हूँ – स्वप्न, जागृति, स्वप्न, जागृति ... समय में और पीछे चला गया हूँ...
कार्तिक शुक्ल पक्ष की छठवीं तिथि। सूर्य षष्ठी का पर्व यानि छठ। अपना जन्म किसे याद आता है?
परंतु मैं निज जन्म की रात के पश्चात के सबेरे में हूँ। घाटों पर स्त्रियाँ दीपक जलाये भोर से ही प्रतीक्षा में हैं। प्रसूतिगृह में जलती हुई लालटेन है। पीड़ा की नदी से उबरी मास्टरनी अब ममता तट पर आह्लादित खड़ी है। मास्टर जी सद्य:जात को गोद में लिये बैठे हैं और मन ही मन जैसे उगते सूर्य को अर्घ्य दे रहे हैं:
...पुरी से 31 किलोमीटर पर समुद्र का चन्द्रभागा तट।
नदी कहाँ है? बताओ देव! कहाँ है?
बाबा घहर रहे हैं - घह घह घह घहा घह घह घहा।
आँधी नहीं आ रही।
दधि के टुकड़ों से समीर तृप्त हो डकारे ले रहा है। उसका स्वर ऐसा ही होता है।
यह मेरे बाबा की घहरन नहीं है?
“भविष्यद्रष्टा! तुम्हें चन्द्रभागा नहीं मिलेगी। प्रतीक्षा करो, आदित्य आ रहे हैं। उन्हीं से पूछ लेना।“
आदित्य! आओ न! देखो, हमने स्तूप बनाया है। शिव को स्थापित किया है और मन्दिर भी बनाया है। प्रकाशित कर जाओ न! आओ न!
(अगले भाग का लिंक)
अवाक हूँ, कहूं क्या - बस आंसू बह रहे हैं आपकी यह रचना पढ़ कर, अविवर्णनीय हैं भाव जो इसे पढ़ कर मन में आये | |
जवाब देंहटाएंआश्चर्य है - यह सब भी इसी धरा पर है ?
धरा निस्तब्ध है - सूर्य निःशब्द
जवाब देंहटाएंमौन का शब्द कर देता स्तब्ध
सृष्टि प्रकृति सदा शांत है
सूर्योदय में नभ प्रशांत है
मौन ने कहा मौन ही ने सुना
मानव ने अपना ही कथानक बुना
हे यायावर - तेरी कथाएँ
पिघली मिश्री सी कहानिकायें ....
sach mein?
जवाब देंहटाएं@मानव ने अपना ही कथानक बुना
जवाब देंहटाएंहे यायावर - तेरी कथाएँ
जी यही.
आप पुरी में थे, सो अपेक्षा थी! लग रहा था रिपोर्ताज, यात्रा-वृतांत की अबूझी नई भंगिमा आकार लेगी!
जवाब देंहटाएंआभार!
कोर्णाक सूर्य मंदिर ..बहुत कुछ याद आया.परन्तु आपका यह विवरण..निशब्द हूँ.
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - दा शो मस्ट गो ऑन ... ब्लॉग बुलेटिन
जवाब देंहटाएंसूरज और पृथ्वी के बीच शेष सब पूज्य हो गया है अब, सब।
जवाब देंहटाएंआदित्यप्रतिमा से पहला साक्षात्कार है।
जवाब देंहटाएंbahut sundar !
पढ़ा, सुना और अब गहरी सोच में डूबा हूँ ..
जवाब देंहटाएंइस यात्रा में हम सभी को अपने साथ शामिल करने के लिए धन्यवाद सर !
अनुपम! कब से जाने की इच्छा है, देखूँ कब जा सकूँगा।
जवाब देंहटाएंपर यायावरी शब्द यह, सब जीवंत कर गए।
एक और मोर्चा खोल लिया है आपने, बबुना वाला राग छेड़ दिया और अब ये कोणार्क वाला भी। दिक्कत ये है कि सब एक से एक पाश में जकड़ने वाले हैं। पहले बबुना कथा का इंतजार था, अब इस कोणार्क यात्रा का भी।
जवाब देंहटाएंधन्य भये !
जवाब देंहटाएंइस भाव से देखा!
जवाब देंहटाएंमैं तो बच्चे जैसा कूदता-फांदता, मौज उड़ाता, शिल्प सौंदर्य पर मुग्ध होता, थका हारा, घूम-घाम कर सो गया था।
पुरी ही जाना नही हो पाया कभी...साथ लेने का आभार...
जवाब देंहटाएंkab se mann ban raha tha is shrankhla ko padhne ka...mera ghuma hua hai isiliye adhik judav lag raha hai...chitr ubhar rahe hain subah,shaam ke ..
जवाब देंहटाएंलम्बे समय से पेंडिंग था यह...
जवाब देंहटाएंपढ़कर तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि पता था, ऐसा ही कुछ मिलेगा पढने को...
पर हाँ, इसे पढने से पूर्व जो मनःस्थिति चाहिए थी, उस तक पहुंचे बिना इसका पाठ रचना का अनादर होता , सो कर लिया एक लम्बा ,बहुत ही लम्बा इन्तजार ...
हम भी आ गए यहाँ :) शायद हमारा भी दिमाग कुछ खुले
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