शनिवार, 3 अप्रैल 2010

झिरी से झाँक


तुम जो आए हो आज सुबह सुबह खिड़की की झिरी से झाँक रहे हो। मुझे सरसराहट सी लगी है। सुबह सुबह ऐसा होता है क्या कि दिन दुपहर सा लगे? सिल पर जमी धूल से गुजरती आँखें बोगेनविलिया के निर्गन्ध गुलाबी फूलों पर टिकी हैं। सुना है कार्बन मोनो आक्साइड को ऑक्सीजन समझ रक्त सोख लेता है तो गुलाबी हो जाता है - पूरब की अरुणाई लाली होती है क्या ? तुम ऐसे समय क्यों आते हो ? जानते हो अभी अभी आँखों की लाली से खीझ कर मैंने ब्लॉग फीड से अपनी यात्राओं के सारे निशाँ मिटा दिए हैं - जागूँ , प्रतीक्षा करूँ, देखूँ कि रोऊँ ? लाली के इतने अवसर ज़िन्दगी को दुरूह बनाते हैं।
हवा की ठंडक सुबह को ताज़ी बना देती है। कुत्ते तक मालिकों को खींच बाहर निकालते हैं, हगना होता है, घूमना होता है और शायद बिजली के खम्भे पर ... सुबह सुबह करते मैंने नहीं देखा। 
तुमने घंटी बजाई और झाँक रहे हो। घुटने के दर्द कहाँ घूमने देंगे बाबा? आज कल भाग दौड़ बहुत बढ़ गई है और ज़िन्दगी ज़िद किए ठहरी हुई है अड़ियल टट्टू की तरह .. कल देखा था कि दाढ़ी के बाल श्वेत होने लगे हैं - भरी भींड़ में से हँसते झाँकते कुछ चेहरे। उन्हें पता है कि मेरे घुटने अब जवाब देने लगे हैं। न चलने से पेट निकलने लगा है और अब आँखों को कागज से दूर करना पड़ता है - अक्षर साफ नहीं दिखते तो उनसे दूरी बनानी पड़ती है। आलमारी में रखी पुस्तकों पर जो धूल जम गई है उसका कारण बिमारी नहीं दूरी है। 
याद है एक बार तुमने मेरी हॉबी पूछी थी और मैंने बताया था पढ़ना - ढेर सारा और सब कुछ। तुम ने व्यंग्य भरे अन्दाज़ में देखा तो मुझे तुम्हारी आँखों में चौसठिया के वाक्य दिख गए थे - शायद तुम्हारे लिए 'सब कुछ' वैसा ही होता है।
 तुमने पूछा था क्यों पढ़ते हो? मैं तो तुम्हारे आस पास ही हूँ हमेशा। मुझे अक्षरों में क्यों ढूढ़ते हो ?
 मैंने समझा था  कि तुम प्रलाप कर रहे हो । 
मुझे लगता है कि तुम पूरे कभी मेरे पास नहीं रहे और अब भी लगता है कि पढ़ने से तुम पूरे पास रहने लगोगे लेकिन इन आँखों का क्या करूँ, जिनमें नींद नहीं, दम नहीं केवल लाली है जो लील गई है तुमको मुझसे?...
सिल पर जमी धूल से गुजरती आँखें बोगेनविलिया के निर्गन्ध गुलाबी फूलों पर अभी भी टिकी हैं। तुम लौटे जा रहे हो। सामने बिजली के खम्भे पर एक कुत्ते का मालिक .... दिन श्वेत हो चला है।
...खखार रहा हूँ, आँखों को धो रहा हूँ, वाश बेसिन का पानी लाल गुलाबी हो रहा है... गले से टपक रहा है या आँखों से

22 टिप्‍पणियां:

  1. शायद यह ललित निबंध है मगर इनका हश्र यही होता है की अमूमन ये उनके द्वारा नहीं पढ़े जाते जिनके लिए लिखे जाते हैं और अगर खुदा न खास्ता पढ़ भी लिया जाता है तो उसी लेटर एंड स्पिरिट में समझा नहीं जाता जिसमें वह लिखा जाता है -हाय रे मजबूरी ,ये प्रातः समीर और ये दूरी !

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  2. अरविन्द मिश्र से आगे ...और संभव है वे किसी अन्य की प्रातः कालीन चाय के जतन कर रही हों ?
    यदि निबंध में से नायक को विलोपित कर अन्य की स्थापना कर दी जाये तो भी सारे दृश्य / सारे शब्द यथावत रहेंगे :)

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  3. आपको पढ़ना हमेशा की तरह अच्‍छा लगा। राम-राम।

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  4. सुबह दुपहर सी ...गंधहीन गुलाब ...बोग्नोवेलिया में गुलाब भी खिलते हैं !!
    वाशवेसिन का लाल पानी ...सब ठीक तो है ...

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  5. गिरिजेश सर, क्या कहूं? शब्द नहीं सूझ रहे हैं। नि:शब्द शायद सही शब्द है इस समय।
    आभार।

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  6. @वाणी जी,
    गद्य लेखन की एक नई लीक बनाने का प्रयत्न - यह एक प्रयोग है।
    जीवन जटिल हो रहा है, इसे लेखन में समेटना मतलब अभिधा, व्यंजना और लक्षणा तीनों का एक साथ प्रयोग।
    'जिन ढूढ़ा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ'

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  7. एक बार पढ़ लिया है, चार बार और पढ़ना है।
    बहुत सुन्दर फूल है।

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  8. अपनी गलती पर गुलाबी होता है या यह जानकर कि किसी को यह भेद ज्ञात नहीं ।

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  9. ये कविता वाला ब्लॉग तो नहीं है आपका। भ्रम हो गया।

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  10. मुझे अक्षरों में क्यों ढूढ़ते हो ?
    ........यह खास बात है...

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  11. ज्ञानदत्त जी ने सही कहा...
    कविता का सा आनंद...

    यह भी सटीक है...
    ‘...मैंने समझा था कि तुम प्रलाप कर रहे हो’

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  12. ये इंजिनियर प्रयोग करना नहीं छोड़ेगा... लोग कनफुजिया रहे हैं पद्य है की गद्य. ब्लॉग-पोस्ट भी हो सकता है ये तो कोई सोच ही नहीं रहा !

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  13. बेहतरीन। शानदार। बधाई। वैसे ब्लाग का नाम भी कम दमदार नहीं है। किसने सुझाया।

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  14. गिरजेश जी किसी ने आपसे पूछा है कि क्या आपको धोती पहननी आती है। इसका जवाब अगर आप मेरे ब्लाग पर ही आकर देंगे तो अच्छा लगेगा।

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  15. ये कौन है जो झाँकता है तुम्हारे मन की झिरी से. तुम पहचानते नहीं इसे. कहो, क्या ये तुम्हारी गंध तो नहीं.

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  16. यह पोस्ट पढ़ने के बीच बार-बार सिर खुजाने का जी करता है..और जितनी बार इसे बाचा जाय उतनी बार ही सिर के परस-संवेदी तंतुओं की सुरसुराहट शांत करने का अवार देती है..खाट के नीचे बिखरे हुए स्फुट विचारों पर समग्रता के साथ अनौपचारिक दृष्टिपात..बृह्ममुहूर्त की बेला के नियंत्रणमुक्त अविचारित चिंतन की तरह..जिसमे कि रात की नींद की छोटी सी बटलोई मे बाकी अधपके विचार दृश्यचिंतन के साथ गडमड होते जाते हों..और आँखों की यह लाली अधकच्ची नींद का रंग भी हो सकता है..गद्दर आम की तरह..सुबह का सूरज भी अक्सर तभी लाल नजर आता है!..और फिर बोगन्विलिया...कोई नयी सी चीज मालुम पड़े है हमे इधर तो..:-)

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  17. लिखा कुछ भी जाये, पढने वाला वही पढता है जो वो पढना चाहता है..मैंने ये पढ़ा

    'तुमने पूछा था क्यों पढ़ते हो? मैं तो तुम्हारे आस पास ही हूँ हमेशा। मुझे अक्षरों में क्यों ढूढ़ते हो ?'

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  18. Poori tarah samjh nahi paya aapki is darshnik abhvykti ko lekin beech beech me hava ke thande jhokon ko jaroor mahsoos kiya

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  19. अदभुत, अद्वितीय...
    लौट कर आईये, और ऐसा लिखा पाइये..बस चुप रह जाइये !

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