कल मेरे एक अति प्रिय शिल्पी ब्लॉगर घोषित रूप से ब्लॉगरी छोड़ गए। इससे पहले एक ब्लॉगर जिन्हें मैं अन्ना कहता था, चुपचाप ब्लॉगरी छोड़ गए। कल रात खिन्न होकर मैंने भी एक कविता रच मारी। आज के दो तीन और लेख भी कहीं न कहीं इस समस्या से साक्षात्कार करते दिखते हैं।
केंकड़ा शृंखला (दाहिनी ओर इस अधूरी लेखमाला की विभिन्न प्रविष्टियों के लिंक लगे हैं) का प्रारम्भ इस प्रवृत्ति और दूसरी नकारात्मक प्रवृत्तियों से लड़ने और एक अलग सी सकार लीक बनाने के लिए किया था, चल नहीं सका लेकिन लगता है कि चलना चाहिए - अकेले चलना हो तो भी, लेंठड़े को एकला चलो रे पर अमल करना होगा।
आभासी ब्लॉग संसार की स्वतंत्रता, उन्मुक्तता और सक्रिय हिन्दी ब्लॉगरों की कम संख्या - इन यथार्थों ने 'आभासी' से जुड़ी सुविधाओं, सहूलियतों को तनु किया है। नियमित ब्लॉगर मिलन से अलग तरह के मित्र मंडल तैयार हुए हैं। कई ब्लॉगर पहले से एक दूसरे को जानते रहे हैं। स्वाभाविक ही है कि नजदीकियाँ प्रगाढ़ हों, दूरियाँ घटें लेकिन एक नकारात्मक पक्ष सामने आया है - वस्तुनिष्ठता का क्षय। वास्तविक दुनिया का नकार पक्ष यहाँ भी मुखरित हो चला है। हो भी क्यों न, अधिक मीठे में कीड़े लगते ही हैं।
प्रगाढ़ आत्मीयता बस 'चरम प्रेम' में ही अनुभवहीन हो जाती है अन्यथा अधिक निकटता होने पर व्यक्तित्त्व के खोटे पहलू दिखने लगते हैं, आप के व्यवहार को प्रभावित करने लगते हैं। सच्ची मित्रता मित्र के दोषों को भी स्वीकारती है। मित्र को सम्पूर्ण रूप से स्वीकारती है - सदोष। लेकिन क्या इस आभासी संसार में भी वैसा हो सकता है?
आप की मित्रता यदि ब्लॉग माध्यम से जुड़ने के बाद घटित हुई है तो एक अपील है कि समग्र हित में थोड़ी दूरी, थोड़ा अलगाव बनाए रखें ताकि वस्तुनिष्ठता बनी रहे। व्यक्ति निष्ठा, प्रेम, घृणा आदि आप की अभिव्यक्ति पर ऐसे न सवार हों जाँय कि उनके बोझ तले आप की अभिव्यक्ति घुटे और फिर एक दिन आप साजो समान बाँध कर चलते बनें। व्यक्तिगत रूप से निर्णय आप का होगा, आप स्वतंत्र हैं लेकिन जरा उस निर्वात, कूड़े और अवसाद की कल्पना कीजिए जो आप अपने पीछे छोड़े जा रहे होंगे !
जो लोग हैं, बने हुए हैं, बने रहना चाहते हैं उनसे एक निवेदन है - इतने निकट न हों कि आप के साँसों की दुर्गन्ध एक दूसरे को सताने लगे। साँसों की दुर्गन्ध स्वाभाविक है, प्राकृतिक है लेकिन आप की निज है उससे दूसरों को दु:खी न करें और उन्हें भी इसकी अनुमति न दें कि आप को दु:खी करें।
कटु सत्य है पर हम भावनाओं में बहकर यह सब ध्यान नहीं रखते हैं।
जवाब देंहटाएंमेरा भी मानना है कि लोंगों के बीच संबंध, जान पहचान जरूर बने लेकिन इतना नहीं कि कहीं यह घुटन, बेमतलब की बातों और मुश्किलों सबब बनने लगे।
जवाब देंहटाएंएक हद के बाद दूरी भी जरूरी हो जाती है वाचिक रिश्तों, वाचिक संम्बन्धों की सुविधा के लिये।
एकदम सही मुद्दा उठाया है बंधु। पूरी तरह सहमत हूँ।
Great post !
जवाब देंहटाएंA bitter truth ! but alas ! people don't understand this.
ksahi mashwira hai... Amal karne ka prasyaas kiya jayega...
जवाब देंहटाएंसांकेतिक रूप से आपने कईयों की लू उतार दी ...मेरा तो ख्याल है कि सांसों की दुर्गन्ध की सीमा के आगे संबंधों का स्थायित्व है...मित्रता के सदोष स्वीकरण जैसा !
जवाब देंहटाएंअली सा की भी तो बात सुनिए ,देखिये क्या बात की है -हम चन्द्रमा को केवल इसलिए नकार देगें की वह थोड़ा दोषयुक्त हो गया है ?
जवाब देंहटाएंगिरिजेश सर, आपकी बातों से अक्षरश: सहमत।
जवाब देंहटाएंजूली फ़िल्म का गाना याद आता है, "इतना भी पास मत आओ"
आभार, हमारी भावनाओं को अपने शब्दों में व्यक्त करने का।
कोशिश करें कि साँसों मे दुर्गन्ध न हो ..यह तो सायास ही करना होगा । निकटता मनुष्य का सहज स्वभाव है , उसके लिये क्या किया जा सकता है ।
जवाब देंहटाएंव्यक्ति निष्ठा, प्रेम, घृणा आदि आप की अभिव्यक्ति पर ऐसे न सवार हों जाँय कि उनके बोझ तले आप की अभिव्यक्ति घुटे और फिर एक दिन आप साजो समान बाँध कर चलते बनें...
जवाब देंहटाएंसही है ...इतनी दूरी तो होनी ही चाहिए कि दूसरे का व्यक्तित्व भी नजर आये ...
@ चन्द्रमा भी दूर से ही अच्छा लगता है ..दोषपूर्ण हो या निष्कलंक ....खगोलशास्त्रियों /चन्द्र वैज्ञानिकों से पूछ लें ..
इस बात को अपने अंतर्मन पर ले जायें तो वहां भी लागू होता है। एक साधक अपने आप में जब बहुत प्रोब करता है तो शुरू में स्वयं से विरक्ति होती है। कभी कभी तो भय भी लगता है। कई बार वह अटपटा बहिर्मुखी व्यवहार करता है।
जवाब देंहटाएंकुछ अनुभव किया है मैने।
Girijesh ji bhale hi durgandh na aati ho lekin thodi doori banaye rakhna sab ke liye achcha. Mujhe aap kitana door rakh paate hain ye to aap per hi nirbhar hai aur mujhe kitna paas aana hai ye mai janta hun .. koi sanshay nahi :)
जवाब देंहटाएं""आप की मित्रता यदि ब्लॉग माध्यम से जुड़ने के बाद घटित हुई है तो एक अपील है कि समग्र हित में थोड़ी दूरी, थोड़ा अलगाव बनाए रखें ताकि वस्तुनिष्ठता बनी रहे। व्यक्ति निष्ठा, प्रेम, घृणा आदि आप की अभिव्यक्ति पर ऐसे न सवार हों जाँय कि उनके बोझ तले आप की अभिव्यक्ति घुटे और फिर एक दिन आप साजो समान बाँध कर चलते बनें। व्यक्तिगत रूप से निर्णय आप का होगा, आप स्वतंत्र हैं लेकिन जरा उस निर्वात, कूड़े और अवसाद की कल्पना कीजिए जो आप अपने पीछे छोड़े जा रहे होंगे !
जवाब देंहटाएंजो लोग हैं, बने हुए हैं, बने रहना चाहते हैं उनसे एक निवेदन है - इतने निकट न हों कि आप के साँसों की दुर्गन्ध एक दूसरे को सताने लगे। साँसों की दुर्गन्ध स्वाभाविक है, प्राकृतिक है लेकिन आप की निज है उससे दूसरों को दु:खी न करें और उन्हें भी इसकी अनुमति न दें कि आप को दु:खी करें। ""
सही कह रहे हैं,इस दौर में यह सजगता आवश्यक है नहीं तो रोज दुखी होंगे.
"अति प्रिय शिल्पी ब्लॉगर घोषित रूप से ब्लॉगरी छोड़ गए।"
जवाब देंहटाएंKafi Koshishon ke bawzood ghaseet rahi hai bloggery.
इतने निकट न हों कि आप के साँसों की दुर्गन्ध एक दूसरे को सताने लगे।
Bhai log ek dum se muh khons kar blogging karte honge . Filhaal mere paas aise mitorn ki kami rahi hai. Wajah Shaayad Sassoon ki durgandh ho ya phir bagal ke paseene ki.
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंइसे 11.04.10 की चर्चा मंच (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
http://charchamanch.blogspot.com/
सबकी साँसों में दुर्गन्ध नहीं होती ! और जिनकी साँसों में दुर्गन्ध होती है थोड़ी दूर से ही पता चल जाता है...
जवाब देंहटाएंजब भी घर का कूड़ा साफ करने जायेंगे तो उड़ते हुये कूड़े से लगेगा कि गन्दगी और बढ़ गयी है ।
जवाब देंहटाएंsahi he
जवाब देंहटाएंbahut khub
http://kavyawani.blogspot.com/
shekhar kumawat
प्रश्न-जब ढक्कन गोल था तो फ्रेम आयताकार क्यों लगवाया ?
जवाब देंहटाएंउत्तर-ताकि पानी का दम न घुटने पाए.
पूर्णतया सहमत भी नहीं पर असहमत भी नहीं हूँ आपसे !
जवाब देंहटाएं.
हाँ , प्रसंग से हटकर(मुझे अच्छे लगने के लिहाज से ) ही सही पर बड़े मन की
बात लिख दी आपने --- '' सच्ची मित्रता मित्र के दोषों को भी स्वीकारती है। मित्र को सम्पूर्ण रूप से
स्वीकारती है - सदोष।'' --- यूँ ही कहा था कुछ ही दिन पहले किसी से यही बात , पर बेदर्दी ने
एक न सुनी , आपको पढ़ते हुए कुछ कुरेद सा गया सो उद्धृत कर बैठा ... प्रसंगांतरण के लिए क्षमा !
खरी-खरी बात कर दी आपने।
जवाब देंहटाएंलेकिन मनुष्य का मनुष्य के नजदीक आना भी उतना ही स्वाभाविक है जितना दूर रहना। :)
साँसों की दुर्गंध से संबंधों का समीकरण तो क्लोज-अप के विज्ञापन में दिखता है ! क्या यहाँ भी ...
जवाब देंहटाएंशीर्षक ने आलेख की गम्भीरता को क्षति दी है साहब !
ब्लागिंग की दृष्टि से उचित... कई बार टिप्पणी करते समय मित्रता हलाकान करती है
जवाब देंहटाएंआभासी दुनिया के सत्य से रूबरू कराने का शुक्रिया। अब तो मैं भी साक्षात अनुभव कर रहा हूं। वस्तुतः, बद्बू तभी आती है जब हम आत्मनिरीक्षण करने के स्थान पर अपने ही निर्णय को सही ठराने की ज़िद करने लगते हैं। वैचारिक लचीलेपन के अभाव में मित्र का सदोष स्वागत नहीं हो पाता और विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। कुल मिलाकर, एकला चलो की नीति ही फ़िलहाल अच्छी है। यूँ, आभासी दुनिया के कुछ सम्बन्ध मीठे हो कर भी साँसों में बद्बू नहीं दे रहे हैं मुझे। ज़रूरी नहीं कि हर टूथपेस्ट में नमक हो ही .....
जवाब देंहटाएंसच्ची मित्रता मित्र के दोषों को भी स्वीकारती है।
जवाब देंहटाएंमित्र को सम्पूर्ण रूप से स्वीकारती है - सदोष।
पूर्णतया सहमत ||