..आज का तीक्ष्ण-शर-विधृत-क्षिप्र-कर, वेग-प्रखर
शतशेल सम्वरणशील, नील नभ-गर्जित-स्वर,प्रतिपल परिवर्तित व्यूह - भेद-कौशल-समूह
राक्षस-विरुद्ध-प्रत्यूह, - क्रुद्ध-कपि-विषम-हूह,
. .है अमानिशा, उगलता गगन घन-अन्धकार;
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार;
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल;
भूधर ज्यों ध्यान-मग्न; केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय
रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय भय;
जो नहीं हुआ है आज तक हृदय रिपुदम्य-श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
..फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत, -
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;
.. उद्वेग हो उठा शक्ति-खोल सागर अपार,
...शत घूर्णावर्त, तरंग-भंग, उठते पहाड़,
जल-राशि राशि-जल पर चढ़ता खाता पछाह,
तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत -वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश-भाव,
जल-राशि विपुल मध मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।
रावण-महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम-पूजन-प्रताप तेज:प्रसार;
...रावण? रावण - लम्पट, खल कल्मष-गताचार,
...अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल-छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुन: ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमक लक्ष्मण तेज: प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह-युग-पद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, - समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, - हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
...आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर,
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त;
शक्ति की करो मौलिक कल्पना; करो पूजन,
... "मात:, दशभुजा, विश्व-ज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है महिषासुर खल मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मात: समझा इंगित;
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"
...सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगत : नभ के ललाट पर प्रथमकिरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा-ज्योति-हिरण;
हैं नहीं शरासन आज हस्त-तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़ मुकुट-वन्ध;
सुन पड़ता सिंहनाद रण-कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार;
...संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर;
...हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध;
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध;
... जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युत-गति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।
...काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय -
...देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्कर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर,
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध-अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित
"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के बदन में हुई-लीन।
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रचयिता - महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' |
बहुत पहले राम की शक्तिपुजा पढ़ा था.....आज फिर पढ़ने को मिल गया और टाइमिंग भी एकदम सही....कचहरीया झंझावात।
जवाब देंहटाएंहम छह सौ सैंतालिस बार कह चूका हूँ.... कि हमको हिंदी नहीं आती.... फिर काहे इ निराला जी अईसा लिखते हैं .... कि हमको आत्महत्या करना पड़े... आप हई इसको हिंदी में ट्रांसलेट कर दीजिये... भई...
जवाब देंहटाएं.हम छह सौ सैंतालिस बार कह चूका हूँ.... कि हमको हिंदी नहीं आती.... फिर काहे इ निराला जी अईसा लिखते हैं .... कि हमको आत्महत्या करना पड़े... आप हई इसको हिंदी में ट्रांसलेट कर दीजिये... भई...
जवाब देंहटाएंसानंद पढ़ गया !
जवाब देंहटाएंबेहतर होता आप कविता को व्याख्या के साथ मार्मिक बनाते हुए रखते , अपनी सधी शैली में ! महफूज भाई को भी आनंद आता !
हमें राजा राम की अपेक्षा उन का धनुर्धर रूप ज्यादा पसंद है, भले ही वह खिन्न होकर सिंधु दलन के लिये धनुष उठायें या दुष्ट दलन के लिये।
जवाब देंहटाएंजहाँ शस्त्र-बल नहीं, शास्त्र भी सिसकते हैं और रोते हैं
ऋषियों को भी तप से सिद्धि तभी प्राप्त होती है,
जब पहरे पर स्वयं धनुर्धर राम खड़े होते हैं।
निराला जी की लेखनी गज़ब है।
बहुत सुन्दर!
जवाब देंहटाएंयूँ ही ध्यान में आ गया कि यही महापंडित रावण, मरने से पहले श्रीराम को उस शासन-पद्धति का ज्ञान देंगे जिस (राम-राज्य) के लिये राम का सम्मान विश्व के रहने तक रहेगा। राम के गुरु - वसिष्ठ, विश्वमित्र, परशुराम, रावण। हर किसी से हमेशा विनम्रता से सीखने को तत्पर राजा राम से हमने क्या सीखा?
सामयिक
जवाब देंहटाएं647
जवाब देंहटाएं6+4+7 = 17
17 =1+7
1+7=8
अपूर्ण है आर्य! एक बार और पढ़िए ताकि 9 हो जाय। सबसे बड़ा एकलांक।
बोल कर पढ़िए। ध्वनियाँ अपने अर्थ स्वयं उजागर करेंगी। निराला की सांगीतिक प्रतिभा सक्षम है।
झरने की ध्वनि को अर्थ नहीं चाहिए
कोयल की कूक को भाष्य नहीं चाहिए
सिंह गर्जना को विस्तार नहीं चाहिए।
निराला काव्य की ध्वनियाँ हजारो वर्षों की उस परम्परा से आती हैं जो रक्त बन हम सबमें प्रवाहित है।
जय हो!
चयनित अंश पुनर्प्रकाशित करने के लिये आपका आभार !
जवाब देंहटाएंकई बार पढ़ा और अपने अन्दर के कवि को तौला। ढूढ़ा शब्दों के प्रबल प्रवाह के पीछे कोई जाना पहचाना बिन्दु जिससे अपनी मित्रता सिद्ध कर सकूँ।
जवाब देंहटाएंइस प्रवाह का एक झोंका ही परिवेश में साहित्यिक सुगन्धित बयार भर देता है। बस आँख बन्द कर जितना होता है, समेट लेता हूँ।
"कहती थीं माता मुझे सदा राजीव-नयन।
जवाब देंहटाएंदो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मात एक नयन।"
जो पुरषोत्तम नवीन इस स्तर के त्याग को आतुर हो उसकी विजय तो निश्चित है.
@महफूज भाई : हिन्दी से द्वेष है या स्वयम से. आत्महत्या न कीजिये, यदि शब्द न समझे तो भाव समझ लें :
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,
अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द
वर्षों बाद पुनः पढ़ कर मन प्रसन्न हुआ. आभार.
जवाब देंहटाएं"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"
जवाब देंहटाएंकह महाशक्ति राम के बदन में हुई-लीन।
राम श्क्ति पूजा पर निराला जी की कालजयी रचना पढवाने के लिये आभार।
...सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद -
समाज को क्या आज फिर शक्ति पूजा कि आवश्यकता है?
राम के लिये शक्तिपूजा करनी पडेगी शायद
जवाब देंहटाएंबधाई हो आपकी आराधना सफल रही.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद पढ़वाने का.
जवाब देंहटाएं@ विचार शून्य
जवाब देंहटाएंमज़हबी हठधर्मिता अभी विराम की मुद्रा में नहीं है। मस्तक का घाव लिए अश्वत्थामा अमर है। दुर्गन्ध अमर है। ...जीवन चलता रहेगा। कुछ देर मुदित होने में बुराई नहीं है।
झरने की ध्वनि को अर्थ नहीं चाहिए
जवाब देंहटाएंकोयल की कूक को भाष्य नहीं चाहिए
सिंह गर्जना को विस्तार नहीं चाहिए।
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nishabd...
pranam.
अद्भुत है जी। पढ़वाने का आभार।
जवाब देंहटाएंभाई महफ़ूज अली की बातों में मत आइए। ये मास्टर साहब सब समझ रहे हैं। बस दुनिया को बना रहे हैं ताकि आप उन्हें गणित समझाने पर आ जाएँ।:)