शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

एक पुनर्प्रस्तुति: शिलालेखों में अक्षर नहीं होते

ताड़ पत्रों के लेख पढ़ते और पत्थरों के गीत सुनते  
बबूल के जंगलों से घिरी थोड़ी छाँव
कुछ भाग्यशाली शिलायें रह रह जाती हैं झाँक। 
मन में तिरस्करिणियों के झूल रहे 
अंतहीन पारभाषी पाटल पट। 
हैं खिलखिलाहटें त्वचा पर 
काँटों ने लिख दिये हैं जीवंत सन्देश। 
आँखें  के स्पर्श नहीं, छू रहे हैं रोमकूपों के स्वेद स्राव। 
हैं सिसकारियाँ जाने किसलिये? 
शिलाओं पर हैं रक्त ,स्वेद - सद्य: मिटते  अभिलेख ।  
और कितनों ने लिखे होंगे और कितनों ने पढ़े होंगे! 
बस यूँ ही... इन बारिशों ने की है सरगोशी
हाँ...जो हमने लिखे, उन शिलालेखों में अक्षर नहीं बचने थे...
बस यूँ ही...टपक पड़ती हैं  कथायें ...मैं रचता  नहीं! 
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राजोद्यान में घूमते घूमते एक दिन राजकुमारी को बाहरी संसार देखने का मन हुआ और उसने रथ को गाँवों की ओर चला दिया। चलते चलते उसके कानों में वेणु के स्वर पड़े। वह मोहित सी उसे बजाते चरवाहे के पास बैठ कर सुनती रही। आसपास का समूचा संसार भी चुप हो उन दोनों को देखता सुनता रहा। प्रेम का प्रस्फुटन कभी कभी ही तो दिख पाता है! चरवाहे ने जब वादन समाप्त किया तो गायें घर की ओर दौड़ पड़ीं और उड़ती हुई धूल के पीछे लाज से लाल हुआ कोई छिप गया।
राजकुमारी ने चरवाहे को राजोद्यान में निमंत्रित किया। चरवाहा बोला – ना बाबा ना! वहाँ तो प्रहरी होंगे। मेरे स्वर भयग्रस्त हो जायेंगे। वेणु ठीक से नहीं बजेगी।
राजकुमारी ने कहा – वहाँ प्रहरी नहीं होते। महल के प्रहरियों से मुझे भय लगता है इसलिये पिता से कह कर उद्यान को प्रहरियों से मुक्त रखा है।
चरवाहा हँसा – विचित्र बात है! वहाँ राजकुमारी के भय से प्रजाजन नहीं जाते और राजकुमारी वहाँ इसलिये जाती है कि उसे महल के प्रहरियों से भय लगता है। विचित्र बात है!
अगले दिन चरवाहा उद्यान में पहुँचा। वहाँ सचमुच प्रहरी नहीं थे। चरवाहा वहाँ की शोभा देख मुग्ध हुआ और फिर कुछ कमी को जानकर उदास भी। वहाँ कुछ अतिरिक्त भी था जिसके कारण स्वाभाविकता दूर भागती थी। दोनों एक पत्थर पर खिले हुये फूलों के बीच बैठ गये। चरवाहा वेणु बजाने ही वाला था कि उसे फूल तोड़ती मालिन दिखाई दी। यह सोच कर कि अदृश्य ईश्वर के बजाय फूल को राज्य की सबसे दर्शनीय बाला को अर्पित होना चाहिये, चरवाहे ने सबसे सुन्दर फूल लोढ़ लिया और उसे राजकुमारी को दे कर वेणु बजाना प्रारम्भ किया।
उसके स्वरों में रँभाती गायें थीं, इठलाते कूदते बछड़े थे, मित्रों की आपसी छेड़छाड़ थी, लड़ाइयाँ थीं, पास के खेतों में की गई चोरियाँ थीं और कँटीले पेड़ों को दी गई गालियाँ भी थीं। बरसता भादो था, तपता जेठ था और फागुनी हवायें भी थीं। राजकन्या और मुग्ध हो गई। स्वाभाविकता आने लगी और वह कुछ अतिरिक्त जाने को हुआ कि मालिन को सुध आई। वह भागते हुये महल में गई और राजा को सब कुछ कह सुनाया। महल से भय चल पड़ा। अनजान राजकुमारी मुग्ध सी वेणु सुनती रही और चरवाहा नये सुरों से हवा को भरता रहा। उदासी दूर होती रही कि भय आ पहुँचा।
प्रहरियों ने चरवाहे को राजा के सामने प्रस्तुत किया। राजा ने सब कुछ सुन कर उसे दण्डाधिकारी को सौंप दिया। दण्डाधिकारी ने पूरा विधिशास्त्र ढूँढ़ डाला लेकिन न अपराध की पहचान हुई और न दण्ड की। अचानक ही उसकी दृष्टि विधिशास्त्र के अंतिम अनुच्छेद पर पड़ी और वह मुस्कुरा उठा।
“तुमने फूल तोड़ कर सुन्दरता को भंग किया है, राजकुमारी के दिव्य सौन्दर्य को भ्रमित किया है, भयग्रस्त किया है और राज्य के अनुशासन को तोड़ा है। यह राजद्रोह है, जिसका दण्ड बीस वर्षों का सश्रम कारावास है।“
चरवाहे ने कहा – आप की बातों में सच कितना है यह तो आप को भी पता है लेकिन मुझे भयग्रस्त करने के आरोप पर आपत्ति है। उसकी एक न सुनी गई और कारागार में बन्दी बना दिया गया।
कारागार पहाड़ियों में बना था और जिस क्षेत्र में चरवाहे को पत्थर तोड़ने का काम सौंपा गया था वहाँ दूजी वनस्पतियाँ क्या घास तक नहीं थी। चरवाहे की वेणु राजकोषागार में जमा थी। उसने उसे पाने के लिये मिन्नतें कीं तो उसका अनुरोध राजा तक पहुँचाया गया। राजा मान गया लेकिन दण्डाधिकारी ने कहा कि उसके वेणुवादन से वहाँ हरियाली फैलने का भय है, चिड़ियाँ चहकने का भय है और पत्थर के पिघलने का भय है; इसलिये नहीं दी जा सकती।
राजा पुत्री की स्थिति से पहले ही बहुत निर्बल हो चुका था, दु:खी था – कुछ कर न सका। चरवाहा पत्थर तोड़ने लगा। जब थकता तो राजकुमारी को याद करता और आँसू बहाता। एक दिन उसने देखा कि जहाँ प्रतिदिन बैठकर वह आँसू टपकाता था, वहाँ की भूमि पर दूब उग आई है। उसने बिना वेणु के संगीत का अनुभव किया और मारे प्रसन्नता के नाच उठा।
अगले दिनों में पत्थर तोड़ तोड़ कर उसने एक सोता ढूँढ़ निकाला। फिर क्या था! हरियाली फैलने लगी, पत्थर पिघलने लगे और कुछ वर्षों में ही किशोर पेड़ों पर चिड़ियाँ भी चहकने लगीं। बन्दीगृहप्रमुख पत्थरों से ऊब चुका था। उसने दूर राजधानी तक यह समाचार पहुँचने नहीं दिया। कर्मचारियों को दिखाने के लिये चरवाहे पर श्रमभार बढ़ाता रहा। चरवाहा हरियाली फैलाता रहा और अपनी वेणु के लिये उपयुक्त सरकंडा ढूँढ़ता रहा। जिस दिन उसे वह सरकंडा मिला उसी दिन बीस वर्ष पूरे हुये और उसे मुक्त कर दिया गया। कारागार से बाहर आते उसे सबने देखा और पाया कि चरवाहे के चिर युवा चेहरे पर पत्थर की अनेक लकीरें गहराई तक जम चुकी थीं, वह दुबला हो गया था लेकिन उसके होठ भर आये थे। कुछ ने इसे कारागार की यातना के कारण बताया तो कुछ ने वेणु न बजा पाने के कारण बताया।
दण्डाधिकारी ने उसे कुटिल मुस्कुराहट के साथ बताया – वेणु को दीमक चट कर गये। इस बार चरवाहे ने कोई आपत्ति नहीं जताई और प्रणाम कर उद्यान की ओर चल पड़ा।
उद्यान उजड़ गया था। चारो ओर कँटीली झाड़ियाँ फैल गई थीं। एक आह भर कर उसने उद्यान में कुछ ढूँढ़ना शुरू किया और पुराने स्थान पर पहुँच कर ठिठक गया। राजकुमारी पत्थर की प्रतिमा बनी बैठी थी। उसकी आँखें भर आईं। उसने देखा कि राजकुमारी के हाथ में फूल अभी भी था और वह कुम्हलाया नहीं था। गमछे में जुगनू सहेज चाँदनी में चरवाहा रात भर सरकंडे को भाँति भाँति विधियों से पत्थर पर घिसता रहा।
प्रात हुई और वेणु के स्वर उजड़े उद्यान में गूँज उठे। जहाँ तक स्वर पहुँचे, सब कुछ स्तब्ध हो गया, थम गया। उस प्रात चिड़ियाँ नहीं चहकीं, फूल नहीं खिले, भौंरे नहीं गुनगुनाये। जब स्वर थमे तब चरवाहा घूमा और राजकुमारी जीवित हो उठी। दोनों आलिंगन में कसे और फिर गाँव की ओर भाग पड़े।
राजा ने यह सब सुना और बहुत पछताया। उसने दूर दूर तक अपने प्रहरी दौड़ाये लेकिन उनका पता नहीं चला।
राजा ने समूचे विधिशास्त्र को निरस्त कर दिया। दण्डाधिकारी को प्रस्तर कारागार भेज दिया लेकिन यह सूचना मिलने पर कि वहाँ तोड़ने के लिये पत्थर बचे ही नहीं थे, उसे सोते ढूँढ़ने के काम पर लगा दिया। राजा ने पूरे राज्य में बड़े बड़े शिलालेख लगवाये जिन पर केवल यह लिखा था – प्रेम।
कुछ नासमझ लोग आज भी यह कहते हैं कि सोतों के खलखल कुछ नहीं, दण्डाधिकारी के पछ्तावे हैं और प्रात:काल चिड़ियों की चहचह कुछ नहीं, शिलालेखों को पढ़ने के बाद चरवाहे  और राजकुमारी की खिलखिलाहटें हैं। चरवाहे के चेहरे की लकीरें हर पत्थर पर हैं जो उन्हें तोड़ने की राह देती हैं और शिलालेखों में अक्षर नहीं होते। 

  

5 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद खूबसूरत कथा...


    बीस साल बाद भी यौवन बचा रहा, फूल तक नहीं मुरझाया। यही तो प्रकृति की खूबसूरती है...

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  2. पत्थरों के बोल उनके कोनों में छिपे होते हैं, कोई उन्हें पहचान सके, काश।

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  3. जब बीस साल तक फूल न मुरझाया तो साल छह महीने में इस शिलालेख पर क्या असर पढ़ना था? उतना ही जादू समेटे जितना पहली प्रस्तुति में था| अंगरेजी में कुछ है न, joy for ever टाईप की चीज, वही है बिलकुल|

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  4. राजा ने पूरे राज्य में बड़े बड़े शिलालेख लगवाये जिन पर केवल यह लिखा था – प्रेम।
    बहुत देर कर दी राजा ने समझने में ..

    सुंदर कहानी !!

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