आजकल एक नया ट्रेंड देख रहा हूँ। बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रतिनिधि अपने विजिटिंग कार्ड ऐसे प्रस्तुत करने लगे हैं जैसे कोई राजदूत किसी महामहिम को अपना परिचयपत्र सौंप रहा हो।
वे बहुत आदर के साथ दोनों हाथों में विजिटिंग कार्ड को पकड़ते हैं जैसे गुरु महराज के सामने किसी शुभ कार्य का प्रथम निमंत्रण हो। थोड़ा झुकते हैं - कोई तीनेक अंश। चेहरे पर संतुलित, संयत मधु मुस्कान ले आते हैं, कोई कोई उस तरह थोड़ा हँस भी देते हैं जैसा आप टीटीई के सामने बर्थ के लिये अनुरोध करते हुये करते हैं लेकिन वे ध्यान रखते हैं कि केनाइन दाँत न दिखें! वैसी ही स्थिति में वे आप के हाथ में विजिटिंग कार्ड पकड़ाते हैं। उन्हें लगे न लगे, आप को लगता है कि पुरी धाम का प्रसाद मिल रहा है!
ऐसा करते हुये वे विनम्रता की प्रतिमूर्ति होते हैं और उनकी खाल तक मुलायम हो जाती है। ऐसे अवसरों पर मुझे प्रभामंडल (aura) का ध्यान आने लगता है। बहुत बार व्यक्ति कितना भी सुगढ़ ढंग से क्यों न पेश आ रहा हो, मुझे भीतर कहीं लग जाता है कि आदमी ठीक नहीं है। आज तक मेरा ऐसा लगना ग़लत साबित नहीं हुआ है। समस्या यह है कि ऐसा हर बार नहीं होता। सम्भवत: जो जन उस प्रकार के दुष्ट हैं, जिस प्रकार का मैं स्वयं हूँ; उनका प्रभामंडल मुझे विकर्षित नहीं करता। विज्ञान के 'समान आवेशों या चुम्बकीय ध्रुवों में विकर्षण' वाले नियम के अनुसार ऐसा नहीं होना चाहिये, लेकिन ऐसा होता है। वो कहते हैं न - स वर्गे परमाप्रीति:।
मैं जाते समय उनके व्यक्तित्त्व की तुलना आये हुये व्यक्तित्त्व से करता हूँ तो चकित हो जाता हूँ - मनुष्यता कृत्रिमता की जननी है। हम लगभग हर पल नकली व्यवहार कर रहे होते हैं। सभ्य होने के लिये यह आवश्यक है और मार्केटिंग का मोल (सॉरी, मूल) मंत्र भी।
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लन्दन और सरे में एक विद्यालय की शाखायें हैं जिनमें संस्कृत पढ़ाई जाती है। पिताजी के दिये संस्कार ही हैं कि संस्कृत के प्रति मैं आकृष्ट रहा जब कि हमलोग ब्राह्मण नहीं हैं। सुयोग से कार्यालय में मेरे एक वरिष्ठ हैं जो मित्रवत रहते हैं - *** जी। सप्ताह में दो तीन बार तो हो ही जाता है कि वे किसी सन्दर्भ में कोई संस्कृत सुभाषित बोल जाते हैं और हम दोनों प्रसन्न मन चर्चा कर लेते हैं। ***जी भी ब्राह्मण नहीं हैं। किसी विपणन संस्था में ऐसे संयोग हो सकते हैं, वे भी आज के युग में! मुझे विचित्र लगता है।
तो लन्दन के उस विद्यालय का वेब साइट है - www.stjamesschools.co.uk । आध्यात्मिकता को आवश्यक मानने वाला यह विद्यालय संस्कृत को नर्सरी से लेकर +2 स्तर तक पढ़ाता है। विद्यालय के प्रतिनिधि सूत्र ये हैं:
“I believe that the influence of Sanskrit literature will penetrate not less deeply than did the revival of Greek literature in the 15th century.” - Schopenhauer“Let there be spiritual courses right from primary school.” - H P Kanoria
स्कूल और भी बहुत कुछ बताता है:
पढ़ो बच्चों! यह है देवनागरी लिपि।
खेल खेल में ऐसे पढ़ाई जाती है संस्कृत!
प्रश्नपत्र का एक नमूना:
कुछ नमूने बच्चों की कॉपियों से:
संस्कृतलीन छात्र
देखा! तनिक कठिन नहीं है।
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और अब अंत में ईर, बीर, फत्ते और हम!
इस गाने के 'हम' जैसे हैं हम- हमें ईर, बीर और फत्ते जैसे मित्र मिल ही जाते हैं। संसार ऐसा विविध और समायोजी है कि मिसफिट ही सही हम जैसे भी कहीं न कहीं फिट हो ही जाते हैं! :)
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(आशा है कि इस पोस्ट में विवाद लायक कुछ नहीं निकल पायेगा और मुझे यह नहीं दुहराना होगा:
The gods must be crazy )
thanks
जवाब देंहटाएंसुन्दर पोस्ट परन्तु "उनका प्रभा-वलय मुझे प्रतिकर्षित नहीं करता" अपने भेजे में नहीं घुसा.
जवाब देंहटाएंलाइक डिजाल्व लाइक :)
हटाएंसंस्कृत को प्रोत्साहन देने के लिए आपका प्रयास प्रशंसनीय है |
जवाब देंहटाएं@ केनाइन,
केनाइन से जुड़ा एक प्रश्न काफी समय से मुझे परेशान करता रहा है | मैंने कभी एक पुराने संस्कृत शास्त्र, नाम और सन्दर्भ याद नहीं, में पढ़ा था कि जिन प्राणियों के सींग नहीं होते उनके केनाइन दांत निकल आते हैं और जिनके सींग निकल जाते हैं उनके केनाइन दांत नहीं निकलते | इस बायलोजिकल प्रक्रिया में वहाँ कुछ चन्द्रमा के प्रकाश का सम्बन्ध भी बताया गया था, पर अब मुझे ठीक से याद नहीं |
मैं बस किन्ही जानकारों या जूलोजिकल विद्वानों ये जानना चाहता हूँ कि सींग और केनाइन वाली बात क्या पूर्णतया १००% सत्य है | मैंने एक-दो जूलोजिकल एक्सपर्टस् से पूछा तो उन्होंने इस बाबत जानकारी ना होने की बात कही |
@ औरा विकर्षण
गुरूजी जहाँ तक आवेश या चुम्बकीय ध्रुवों की बात है समान में तो विकर्षण ही है |
पर विचार कणों के समूहों के बारे में तो हमने यही पढ़ा, सुना और अनुभव किया है की सामान विचार कण आपस में जुड़ते हैं, पास आने लगते हैं | ध्यान की पूरी कीमिया ही इस सिद्धांत पर चलती है कि जैसा आप सोचने (ध्यान करने) लगते हैं, वातावरण में घूम रहे, वैसे ही दूसरे समान विचार कण भी आपके नजदीक इकट्ठे होने शुरू हो जाते हैं |
कंपनियों के नफे नुकसान में विजिटिंग कार्ड महत्वपूर्ण हो गयी है अब ..
जवाब देंहटाएंएक क्लाएंट ने मुझे बताया कि उसने विजिटिंग कार्ड वास्तु के हिसाब से छपवाया है ..
.. और संस्कृत की महत्ता तो निर्विवाद है ..
एक नजर समग्र गत्यात्मक ज्योतिष पर भी डालें
संस्कृत और संस्कृति विजेताओं ने क्षीण की हैं, गुण और गुणी इसे पुनः संस्थापित करेंगे।
जवाब देंहटाएंबहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रतिनिधि अपने विजिटिंग कार्ड प्रस्तुत करते समय विनम्र दिखने का प्रयत्न करने लगे हैं, खुशी की बात है। विद्या विनयं ददाति - मानव सभ्यता के रहते विनम्रता का मूल्य कभी कम होने वाला नहीं। ओह, ध्यान ही नहीं दिया कि आज की बात से सहमत होते समय संस्कृत का पुराना उद्धरण लिख गया, शायद विद्या और विनय की तरह ही संस्कृत भी लम्बे समय तक टिकने वाली है, भारतीय न सम्भालें तो कोई और सम्भालेगा! शुभमस्तु!
जवाब देंहटाएंकापियों के सुंदर-सुलेख अक्षर देख कर विश्वास नहीं हो रहा कि वे बच्चों का लिखा है.
जवाब देंहटाएं:) मुझे अपना बचपन याद आ गया। साठी और नरकुल की कलम से हमलोग ऐसे ही 'अक्षर बगा कर' लिखते थे। सराहना पाते थे। अच्छी हैंडराइटिंग एक बहुचर्चित गुण होती थी और सातवीं आठवीं में कभी कभी जीवन के पहले क्रश या प्रेम का कारण भी ;) सहशिक्षा विद्यालय में उन्हीं की कापियाँ गृहकार्य पूरा करने के लिये 'उधार' माँगी जातीं जिनकी राइटिंग अच्छी होती थी। माँगना, देना और पा लेना इन सबके बीच आंतरिक केमिस्ट्री के पहले पाठ पढ़े जाते!
हटाएंगौरांग बच्चों की अच्छी हैंडराइटिंग के एकाध और नमूने थे जिन्हें रोक लिया। वाकई मुझे भी आश्चर्य हुआ कि इस युग में दूर यूरोप में अच्छी लिखाई पर जोर है। वैसे बंगाल में अभी भी अच्छी लिखावट पर ध्यान दिया जाता है।
क्लाईंट से मिलना और होने वाली औपचारिकताओं की आजकल बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है और जिसमें विजिटिंग कार्ड देना भी उसी प्रशिक्षण का एक हिस्सा है, जैसे कि कार्ड को दोनों हाथों से पकड़ना चाहिये और ऐसे पकड़ना चाहिये कि कंपनी का नाम,लोगो कार्ड देने वाले का नाम ना छिप पाये और थोड़ी कमर झुकी हुई हो और चेहरे पर मुस्कान हो। ऐसे ही बहुत सारी छोटी छोटी चीजों का प्रशिक्षण दिया जाता है, कहने को ये छोटी बातें होती हैं, परंतु वाकई यह सब अमल में लाना थोड़ा मुश्किल होता है, परंतु बारंबार प्रक्रिया दोहराते हुए यह उतना कठिन भी प्रतीत नहीं होता।
जवाब देंहटाएंकभी हमारा भी लेख बहुत सुँदर था अब तो सब की हैंड राईटिंग (कम्पय़ूटर पर फ़ोंट) एक जैसी हो चली है। अगर छोटे से ही अच्छा लेख होगा तो संस्कार भी अच्छॆ होंगे ।
ईर बीर फ़त्ते हमारा भी मनपसंदीदा है खासकर जैसे कि फ़िल्माया गया है ।
बच्चों को संस्कृत पढ़ते देखना सुखद है।
जवाब देंहटाएंविवाद लायक निकला ना 'कुछ'.. अरे वो आख़िरी तस्वीर में अध्यापिका और छात्रा नहीं बल्कि दोनों ही छात्राएं हैं.. जी आपने एक १२-१३ साल की लड़की को अध्यापिका बनाया कैसे.. स्पष्टीकरण दें वर्ना विवाद खड़ा करूंगा मैं.. :P
जवाब देंहटाएंहा,हा,हा...मान गये कि धरती अभी वीरों से खाली नहीं है। आप ने पकड़ लिया!
हटाएंयूनिफॉर्म ही समझने के लिये काफी है, आयु तो खैर है ही...हटा दे रहा हूँ। मुझे विवाद नहीं चाहिये :)