पिछले भाग से आगे ...
(ल)
माघ पुर्नवासी का दिन बड़ा सुहावन था। सग्गर सिंघ के आदि पुरखे आसमान में
ऊँचे चढ़ आये थे। गुनगुने घाम की गरमी सुखदायी थी। एक ओर सईस, दूसरी ओर भचकता
जुग्गुल और आगे पगहा थामे बैपारी दूर से आते दिखे। उनके बीच में चलता घोड़े का
बच्चा पड़वे जैसा लगा तो नमो नरायन कहते हुये सग्गर बाबू ने आसमान की ओर देखा।
चमकते पिंड में उन्हें बाप की अंगुली पकड़ घोड़ा सवार रैवत देवता दिखे और वे निहाल
हो गये। मंगलम मंगलाय जैसा कुछ बुदबुदाते हुये चौकी पर पालथी मार राजमुद्रा में
सीधे हो गये। गोंयड़े के मेड़ तक आते आते घोड़ौना के पीछे उत्सुक भीड़ जुट चुकी थी –
नाक पोंछते आपस में खोदा खोदी करते बच्चे, चुप
निहारते कुछ मनई और रह रह पल्लू सँभालती रमयनी काकी। जंत्री सिंघ ने गौर किया कि
घोड़ौना चितकबरा था – उज्जर करिया।
सामने पहुँच कर बैपारी ने बाकायदे सलामी बजाई। मगन सग्गर सिंघ ने पुकारा – ए मन्नी बाबू! हे आव!
और जनावर को निहारने लगे। मन्नी बाबू यानि बाल गोपाल मान्धाता सिंह उछलते कूदते
आये तो लेकिन घोड़ौना और भीड़ को देख कुछ सहम से गये। उसका पूरा सिर काला था लेकिन
मस्तक पर एक गोलाकार भाग उजला था – जंत्री सिंघ ने रुख फेर
लिया। चेहरे पर ईर्ष्या की राख पुत गई थी और मन में गाली – चूतियन
के भागि बड़वार!
बच्चे को गोद में उठा कर सग्गर सिंघ थोड़ा झुक कर उसका हाथ घोड़े के मस्तक पर
लगाये तो वह चिहुक कर पीछे हटा लेकिन बच्चे को मजा आ गया। मन्नी बाबू ताली पीट
खिलखिलाने लगे जिसे ओट से निहारती उनकी महतारी ने सुभ सगुन समझा। जुग्गुल के थरिया
आज रोटी दूध का खास होना पक्का हो गया – खोआ आ सोहारी!
मन्नी के हाथ में गुड़ का छोटा सा टुकड़ा दे घोड़े को खिलाने को कहा गया लेकिन
घोड़े ने मुँह फेर लिया। बैपारी ने हाथ जोड़ कर अर्ज किया – मालिक! बहुते भागि ले
के ई रउरे दुआरे आइल बा। एकर ठीक से देख भाल करब। हमार बिदाई आ सिरफल देईं,
अब हम चलीं। बैपारी के हाथ में सिरफल थमाते सग्गर बाबू ने घोड़े का
नामकरण किया – चित्तनसिंघ, चितकबरा तन
और चेतन मन।
सिंघ लगा कर उन्हों ने घोड़े को परिवार का अंग बना लिया था जिसे घर वालों से
अधिक पट्टीदारों और गाँव वालों को समझना था कि ‘सींघधारी’ इस चितकबरे घोड़े की इज़्ज़त
कैसी होनी चाहिये।
उठते हुये जंत्री बाबू ने मुस्कुरा कर सग्गर से आँखें चार कीं और जमीन पर
एँड़ी घुमा कर गोला सा बनाया जैसे बड़े प्यार से किसी को कुचल रहे हों। उस समय
जुग्गुल मन्नी को घोड़े पर बिठा कर एँड़ लगाने के लिये इशारे से बताने की कोशिश कर
रहा था और सँभालता सईस मुहम्मद उर्फ मद्दी मियाँ उसे बरज रहा था।
पिछवुड़ होते ही रमयनी काकी बुदबुदाई – मिलजुमला रंग माने गरहन!
(व)
भउजी भोर का सपना देख रही है – बिसाल समुन्दर में वह डोंगी असवार है। जटा लटा धरे फटहा
जोगी खेवनहार है और डोंगी सरर सरर बही चली जा रही है। आकाश में सूरुज देव भी हैं
और जोन्ही भी। चन्दरमा अस्त हो रहे हैं। उनके नीचे उतरते ही जोगी उसकी ओर दौड़ा है।
भौजी को डर लगने लगा है। डोंगी तेजी से नीचे बैठने लगी है जैसे समुन्दर का पानी
खतम हो रहा हो! भउजी ने जोगी को लात मारी है – परे हट! कि
ठक्क! डोंगी बैठ गई है। नीचे बैठकी की छान्ह है और नीचे गिरा जोगी किसी छाया से
छीना झपटी कर रहा है। अरे! ऊ त हमार सुग्गा हे! अबहिन त जनमो नाहिं भइल!!
आतंकित भउजी चीख कर जाग गई। ढेबरी जल रही थी और गुमसुम सोहित उसे निहारे जा
रहा था।
“बबुना! ई का?”
चोरी पकड़ी गई, सोहित मारे डर के भागता सा घर के बाहर हो गया। पता नहीं क्या सोच भउजी खुश
हो गई। ढेबरी ले जँतसार में प्रवेश कर गई और हर हर आवाज़ के साथ जाने कौन किसिम का
गीत पिसने लगा:
हे सइयाँ चँवरे पूरइन बन फूले, एगो फुलवा हमार हे
लाउ सइयाँ फुलवा आनहु जाई, पाँखुर जइहें कुम्हलाइ हे
पाँखुर भीतर कार भँवरवा, लीहें रस रसना लगाइ हे
हे सइयाँ फुलवा महादेव देवता, पाँखुर गउरा सराहि हे!
फुलवा कौन, सइयाँ कौन? भँवरा कौन, महादेव कौन, गौरा
कौन? लेकिन अबूझ गीत के पीछे जो स्वर था उसमें आह्लाद,
ममता और पीर के ऐसे मिले जुले गहरे भाव थे कि दिसा मैदान को जाते
खदेरन के पाँव ठिठक गये। सामने डाल पर गुरेरवा उन्हें घूरे जा रहा था। छू कह कर
उन्हों ने बाँया हाथ हवा में चलाया कि पीछे से जुग्गुल ने पुकारा – अरे ए तरे नाहिं भागी पंडित! सार बड़ा हरामी हे! ढेला फेंकते जुग्गुल को
देख खदेरन को लगा जैसे खुद उन्हें और जुग्गुल को उल्लू की आँखें लग गई थीं लेकिन
दोनों स्थिर बैठने के बजाय अन्धेरे होड़ में अनजान राह भागे जा रहे थे जिसका कोई
अंत नहीं था, कोई नहीं!
भउजी ने आखिरी गाया:
दुसमन फुलवा खाँच भर दुनिया, आनहु देवता दुआर हे!
और जाँत की हर हर बन्द हो गई, देवता जो जाग गये थे!
वाह!
जवाब देंहटाएंओह, अब फुर्सत मिली है गुरुवर को :)
जवाब देंहटाएंबाऊ के पिछले दो अंक पढ़ने पढेंगे तभी १८वें अंक का आनंद आएगा.
रात को पिछली २ अंक भी पढ़े.... पर लगता है सब भूल गए हैं, एक दम से शुरू करना पड़ेगा...
जवाब देंहटाएंआर्य... इतना विलम्ब क्यों कि उत्तर रामायण शुरू होते होते पाठक पूछ बैठे ... सीता किसका बाप था.
इन सब पात्रों को साथ लिए घूमते हैं आप ? !! :)
जवाब देंहटाएंयह मेरे लिए नो कमेंट्स वाली शृंखला है। :)
जवाब देंहटाएंham strike par hain - bole to satyaagrah - ham nahi padhenge :( :( :( haan - yahaan aae the - so attendance darj kara rahe hain x-(
जवाब देंहटाएंVilamb se padh raha hoon ,kshama chahta hoon. Baau ka deewana.
जवाब देंहटाएंbahoot khoob..
जवाब देंहटाएंसब कुछ स्पष्ट, क्या सचमुच, शायद हाँ! काल का उलझाव काल ही सुलझाता है|
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