(1)
इस साँझ, प्राची में टँगा है गोल पीला सोना चाँद। पवन काँपता
खड़ा है बूढ़े सुनार के आगे, जिसने बना दिया है परखने को बड़ा सा गोला कसौटी
शालिग्राम। श्वेत श्मश्रु श्वेत केश श्वेत लबादा। रात की कारिख पसरती है पानी में
मसि की टिकिया। वो सब जो श्वेत है, ग़ुम हो रहा धीरे धीरे पानी का पानी। शक़ है पवन
को नीयत पर सुनार के, जाने किस छोर छिपा दिया गहना। वह सहमता है, काँपता है। आज की
रात तो न रोये धनिया। प्रतिदिन की यह बात, जाने कैसी ज़िद। पवन रोज लाता है, गोला
छोटा होता जाता है, सुनार न गहना चमकाता है, न छोड़ता है बनाना कसौटी पर घटते गोले।
धनिया सँवरने को सिसकती है रोज, रोज ओस पड़ती है।
(2)
साँझ की आराधना। लगा दिया तुम्हारे साँवले माथे, श्वेत
पीत तिलक चन्दन चाँदना। देखा नहीं कभी देह को यूँ वस्त्रों पर फैलते, वसनहीन कह
दूँ? जाने कैसा अभिचार, बिठा मुझे सामने सपनों के, उतारती हो परत दर परत बलायें प्याज
सी। अश्रु? ना, ओस झरती शुभकामना, धुन्ध धूम धरा धुन धीमी, प्रात के कुहरे की
प्रस्तावना, विभावरी आराधना!
प्रकृति के सुन्दर रूपों की मानुषी कल्पना, हमें उनके और भी निकट ले आती है..बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंwaah...
जवाब देंहटाएंkavymai gaddya .......... sundar...........
जवाब देंहटाएंpranam.
मगर सांझ इतनी सुन्दर है कि ऐसी ऐसी हज़ार कवितायें लिखी जा सकती हैं , न ?
जवाब देंहटाएंआपका कम्पाइलर ठीक काम नहीं कर रहा है . ;) इ बीच बीच मे कोबोल, पास्कल कहां से आ जा रही है !
जवाब देंहटाएंइस लेखक (कवि) की खुद की परिभाषाओं में तो यह अत्युत्तम कविता होगी।
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