(1)
प्रात साँझ की ठिठुरन बीच, आलस की रजाई छोड़, ज़िन्दगी तनतनी। कुछ काम कुछ धाम, हरारत भरी बनी। आस सी गुनगुनी, धूप अधिक बनी, कम ठनी।
(2)
शहर की पेटी। मची दबी दबी सी खलबली। थकी थकी शीत की दुपहर, खिली। ठेले के पास खड़ी, आँच सिगड़ी में सनी। स्वाद में तपी मूँगफली। साहब सूबा, यादो पाँड़ें, बच्चा बचिया घेरे ठाढ़े, जीभ पर कुछ कुछ सनसनी, धूप खिली।
(3)
गोरी की पुकार खुली। पोटली में रोटी, डली, आँख सी सिकुड़ी, धूप किकुरी। देह में थकान, नरखे नीचे कुछ पसीना भी परेशान, फिर भी सीना उतान, सामने ऊँची मचान। धूप चढ़ी, भूख बढ़ी!
काल चिंतन - राजेन्द्र अवस्थी - कादम्बिनी - सत्तर-अस्सी का दशक!!
जवाब देंहटाएं:) सारे 'है' निकाल दिये, अब लोग कविता कहेंगे।
हटाएंनम्बर-३ ’सार’ है..आज की बात,कल-सी..सनातन!
हटाएंसूरज शरीर से संवाद स्थापित करता हुआ।
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