सोमवार, 29 जुलाई 2013

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 25

पिछले भाग से जारी

गदबेर घिर रही है। मतवा बेचैन हैं। कैसे पहुँच पायेंगी? जाने दुखिया किस हाल में होगी? वेदमुनि तो अभी जगा हुआ है, सुत्ता पड़ते पड़ते बहुत देर हो जायेगी। बेर कुबेर जग कर रोने वाला और बिना महतारी के बझाये न बझने वाला लड़का वहाँ रहते जग गया तो पंडित सँभाल पायेंगे? बात खुल गई तो??

पच्छिम की लाली बदरी से फूट रही थी। ऊपर धुँधले चन्द्रमा की छवि सी थी। निहारती मतवा को रमायन जी के सिव सम्भू की प्रतीति हुई और होठ बुदबुदा उठे:

नाम महाराज के निबाह नीको कीजै उर, सब ही सोहात, मैं न लोगनि सोहात हौं।
कीजै राम बार यहि मेरी ओर चखकोर, ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं ।

डबडबाई आँखों से एक लोर धतूरे पर टपक पड़ी। मतवा ने अनुमान लगा थोड़ा भाग लिया और पीसने लगीं। वेदमुनि को गोद में लिटा धतूरा मिला दूध पिलाती मतवा गुनगनाती रहीं - सिव राम रच्छा करें। ॐ नम: शिवाय, जाके केहु नाहिं ताहि रामै रे गोंसइयाँ। दूध पीते पीते लड़का सो गया तो हिरदया में धिक्कार उठी – कइसन महतारी हउवे रे तें? अन्धेरे कमरे में मिट्टी की भीत पर सिर पटक पटक मतवा सिसकने लगीं। सिव की बूटी से माते वेदमुनि की नींद गहराती गई ...

... गुरेरवा की असमय चीख सुन मन की झंझा से जूझते खदेरन जैसे तन्द्रा से जगे, मतवा के पाथर बोल ठठा ठठा उठने लगे – हम सँभारि लेब! हम सँभारि लेब!! बिना शरीर शुद्धि के खदेरन घस्स से भुँइया बैठ गये – इस संझा ऐसे ही सन्ध्या। भान ही न रहा कि दक्षिण दिशा को उन्मुख थे। सविता का मंत्र पंचतंत्र के शोक श्लोक की बलि चढ़ गया।

शम्बरस्य च या माया या माया नमुचेरपि

बले: कुम्भीनसेश्चैव सर्वास्ता योषितो विदु:!

फेंकरनी, माई, मतवा, कमच्छा की माता, सुभगा, नगिनिया .... माया हैं, माया! इनसे बली कोई नहीं। इन्हीं के जोर से जीवन भर घूमता रहा। अब यह घड़ी! किसकी लड़ी? कौन है सूत्रधार, कौन रचयिता? मन की हर दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ हहरा उठीं – महाश्मशान में मृदंग नाद और साथ ही पैशाची ध्वनियों के आवर्त – तुम हो! तुम हो!!

अहोम अनुष्ठान याद आया – रक्तविहीन बलि, सिर पर चोट से छटपटाते दम तोड़ते बटेर – वयस्क, शिशु, सभी। हत्या तो हत्या है खदेरन! चाहे जैसे की जाय। सुभगा की अमानुषी खिलखिलाहट, स्वयं प्रसार, स्वयं परास – ही, ही, ही, ही ... मुझे सँभाल पाओगे साधक?

माया है माया!!

शिव, शिव! सँभारो, उबारो – यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्र: सर्वत्र वन्द्यते।

साधक दुसह मनव्याधि सह नहीं पाया। शिव ने मूर्च्छा भेजी, खदेरन भूमिशायी हुये।

 

...शोकमूर्ति कर्तव्यशीला माता ने शुभ्र साड़ी पहनी, काली चादर ओढ़ी और निषिद्ध घर की ओर प्रस्थित हुई। नागिन ने प्रसव वेदना को अब तक दबा रखा था। उसे बीज के बोवइये किसान की प्रतीक्षा थी, देह की जमीन से जमीन बचाने वाले का जन्म होने वाला है, सँवाग आ तो जाये!

शिशु पृथु न हो सीता हुई तो? क्या होगा??...


आँख की पुतरी रह रह लपलपा जा रही थी। भउजी! भउजी!! सरेह में देरी कर चुका सोहित घर की ओर झड़क चला। (जारी)    

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत दिनो के बाद वही रंग पकड़ती कथा..जय हो।

    जवाब देंहटाएं
  2. आपके ब्लॉग को ब्लॉग एग्रीगेटर "ब्लॉग - चिठ्ठा" में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।

    जवाब देंहटाएं
  3. bahut lamba intezaar karwaya aapne. padh raha hoon.....BAU KA DEEWANA.

    जवाब देंहटाएं
  4. Meri upasthiti par dhyan dene ke liye dhanyabad. likhte rahiye. BAU KA DEEWANA.

    जवाब देंहटाएं

कृपया विषय से सम्बन्धित टिप्पणी करें और सभ्याचरण बनाये रखें। प्रचार के उद्देश्य से की गयी या व्यापार सम्बन्धित टिप्पणियाँ स्वत: स्पैम में चली जाती हैं, जिनका उद्धार सम्भव नहीं। अग्रिम धन्यवाद।