रविवार, 6 अक्टूबर 2013

अथर्वण संहिता - 2

[1] से आगे


(क)
किताबी मजहबों के आने से पहले संसार भर में स्त्री पुरुष सम्बन्ध समग्रता में देखे जाते थे। उनमें गोपन तो था किंतु घृणास्पद कुछ नहीं था। विक्टोरियन 'पवित्रता' और इव की कथित पतनमुखी प्रलोभनी वृत्ति को ले स्त्री के प्रति इसाई घृणा भाव का जुड़ाव 'नारी नरक का द्वार' की चरम नकारात्मकता के साथ हुआ तो स्त्री पुरुष सम्बन्धों के प्रति जो सहज स्वीकार्य भाव था वह विकृत हुआ। सभ्यता का नागर देहात के गँवार पर चढ़ बैठा।
नवरात्र पर्व स्त्री तत्त्व को समझने का पर्व है। ऋतु परिवर्तन के साथ जननी के नव रूपों की आराधना का पर्व है। वर्ष में विषुव के दो दिन जब कि दिन रात बराबर होते हैं और ऋतु परिवर्तन की भूमिका बनती है, धरती गहिमणी होती है, नभ आतुर होता है तो सृष्टिजनक काम के अनुशासन को नवरात्र पर्व मनाया जाता है। छ: महीने पश्चात 20 मार्च को विषुव पड़ेगा और 31 मार्च को युगादि या वर्ष प्रतिपदा यानि नववर्ष का प्रारम्भ। मदनोत्सव कामपर्व उच्छृंखल होली बीत चुकी होगी। पुन: अनुशासन पर्व होगा मातृ आराधना के नव दिनों के रूप में।
इस बार नवरात्र के पश्चात विजया पड़ेगी यानि सुपुरुष राम की कुपुरुष रावण पर विजय। उस समय रामनवमी पड़ेगी यानि राम का जन्म। यह जो जन जन में रमा राम है न, बहुत पुराना है। ऋतुचक्र के साथ उसके जन्म और विजय को देखिये। मातृशक्ति उपासना के साथ उसकी संगति को समझिये और समझिये कि ये पर्व महज प्रदर्शन या ढकोसले नहीं, समाज के नियामक रूप में ऋतुचक्र की संगति में गढ़े गये हैं। अब यह हम पर है कि हम इनका क्या करते हैं।
(ख)
ऋचि यजुषि साम्नि शांतेऽथ घोरे - गोपथ ब्राह्मण

द्वैपायन व्यास द्वारा संकलन और पुनर्व्यवस्थन के पहले एक समय ऐसा भी था जब पाँच वेद थे। यह जो अथर्ववेद है न, उसकी दो धारायें थीं - अथर्वण और अंगिरा। अथर्वण धारा भैषज विद्या यानि आयुर्वेद से सम्बन्धित थी जिसे 'शांत' कहा गया और आंगिरस धारा यातु यानि जादू, टोने, टोटके से सम्बन्धित थी जिसे 'घोर' कहा गया। आंगिरस धारा के ही हैं देवगुरु वृहस्पति और ऋषिशिरोमणि भृगु भी!
छान्दोग्य उपनिषद में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर आंगिरस का शिष्य बताया गया है। कृष्ण मगदेश (वर्तमान ईरान) से सूर्यपूजक अग्नि परम्परा के (सकलदीपी, शाकल या शकद्वीप के वासी, वर्तमान पारसी) ब्राह्मणों को बुला कर मूलस्थान (मुल्तान) में सूर्यमन्दिर की स्थापना करवाते हैं। ये सकलदीपी आज भी यातुविद्या प्रवीण माने जाते हैं। कृष्ण के पुत्र साम्ब का कोढ़ अर्कक्षेत्र कोणार्क में इन्हीं पुरोहितों के निर्देशन में की गयी आराधना से दूर होता है।
पुराण भी मगदेशियों के चार वेद बताते हैं - वाद, विश्ववाद, विदुत और 'आंगिरस'।
एक बात स्पष्ट है कि देव दानव या आर्य अनार्य के आजकल के अकादमिक भेद अति सरलीकरण हैं और दूसरी यह कि वैदिक संस्कृति का प्रसार वर्तमान भारत की सीमाओं से परे बहुत दूर तक था। कतिपय भेदों के साथ उनमें आपसी सम्वाद, सम्पर्क और प्रतिद्वन्द्विता भी थी। तीसरी यह कि चाहे मगदेशियों को बुलाना हो या द्वारिका तट से समुद्र मार्ग दवारा यमदेश (मालागासी, मेडागास्कर?) से सम्पर्क बनाना हो, कृष्ण का योगदान अप्रतिम है।

(ग)
ये जो राम और कृष्ण हैं न, बहुत रहस्यमय हैं या यूँ कहूँ कि अथर्वण धारा में बढ़ते हुये मेरे लिये रहस्यमय हुये जा रहे हैं। अवतारवाद के पीछे बहुत कुछ छिपा हुआ है जो आज दिखता ही नहीं। विकासवादी वाममार्गी क्षत्रिय जनक के दरबार को उपनिषद और आरण्यकों से जुड़ा और वेद परवर्ती बताते हैं लेकिन ऐसा है क्या?
बृहदारण्यक को ही ले लीजिये। यह बहुत पुरानी शतपथ परम्परा का अंश है। इसके पाँचवे अध्याय के तेरहवे ब्राह्मण में चार मंत्र हैं। ये चार वेदों से एक एक कर जुड़ते हैं। पहले में ऋग्वेद के लिये उक्थं का प्रयोग है, दूसरे और तीसरे के यजु: और साम स्पष्ट हैं। चौथे के लिये 'क्षत्रं' का प्रयोग है:
'क्षत्रं प्राणो वै क्षत्रं हि वै क्षत्त्रं त्रायते हैनं प्राण: क्षणितो: प्र क्षत्त्रमन्नमाप्नोति क्षत्त्रस्य सायुज्य ँ सलोकतां जयति य एवं वेद'
आचार्य शर्मा अर्थ करते हैं:
प्राण ही क्षत्र (बल) है, इसलिये प्राण की उपासना करें। प्राण ही क्षत्र है अर्थात् इस शरीर की शस्त्रादि जनित क्षति से रक्षा करता है। अत: क्षत से रक्षा करने के कारण प्राण का क्षत्रत्व प्रसिद्ध है। अन्य किसी से त्राण (रक्षा) न पाने वाले क्षत्र (प्राण) को प्राप्त करता है। जो भी व्यक्ति इस तरह जानता है, वह क्षत्र के सायुज्य और सालोक्य को प्राप्त कर लेता है।
अथर्वण का क्षात्र से सम्बन्ध प्रमाणित है - चाहे भैषजविद्या द्वारा प्राण रक्षा हो या यातुविद्या द्वारा या शस्त्रविद्या द्वारा।
आचार्य शर्मा आगे अन्यत्र बताते हैं:
गायत्री का चतुर्थ पद 'परो रजसे सावदोम्' भी आठ अक्षरों वाला कहा गया है। विश्वामित्र कल्प तथा प्राचीन संध्या प्रयोगों में इसका उल्लेख मिलता है। उपनिषद् का कथन है कि गायत्री के तीन पाद ही जपनीय हैं, यह चौथा पाद 'दर्शत' पद - देखा जाने वाला - अनुभूतिगम्य कहा गया है। इसका पदच्छेद होता है - परो रजसे - असौ- अद: ॐ अर्थात रजस् पदार्थ या प्रकाश से परे यह और वह सब ॐ अक्षररूप ब्रह्म ही है। जब साधक के प्राणों के स्पन्दन गायत्री के तीन पदों से एकात्मकता स्थापित कर लेते हैं, तो चौथे पद का आभास-अनुभव होने लगता है। इसलिये इसे दर्शत पद कहा है।... (विद्रोही) विश्वामित्र पर अटक जाता हूँ। याद आता है कन्हैयालाल मुंशी के उपन्यासों लोपामुद्रा लोमहर्षिणी में कहीं एक अवैदिक स्त्री को गायत्री का दर्शन कराता और उसे आश्रम की प्रथम पूजनीया बनाता विद्रोही विश्वामित्र। ... 'दर्शन' महत्त्वपूर्ण है। महत्त्वपूर्ण हैं राजा के दरबार में दार्शनिक बहसें, महत्त्वपूर्ण है philosophy के लिये दर्शन शब्द का प्रयोग और महत्त्वपूर्ण है मंत्र के लिये 'द्रष्टा' की परिकल्पना। कहीं यह विश्वामित्र की गायत्री के बाद ही तो प्रचलित नहीं हुई?
...पहले देख चुका हूँ - इक्ष्वाकुओं की राम धारा में फलते फूलते अथर्वण आचार्य। यह रजस, यह प्रकाशमार्गी सूर्य, अग्नि और उससे भी परे जाने की क्षात्र अभिलाषा, गोपन यातु, अवतारवाद, विष्णु के वक्ष पर लात मार कर उसकी महत्ता सिद्ध करते 'आंगिरस' परम्परा के भृगु... जाने कितने संकेत छिपे हुये हैं।

आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:

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यह एक उत्सुक प्रयास भर है। फुटकर नोट हैं, मन की तरंगे हैं। अकादमिक गुणवत्ता की अपेक्षा न रखें। 

6 टिप्‍पणियां:

  1. इन दिनो आचार्य चतुरसेन की पुस्तक वयं रक्षामः पढ़ रहा हूँ। आपका आलेख भी उसी तिलस्म के अंश की तरह बांच गया।..बहुत सुंदर।

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  2. यूँ ही तो आचार्य नहीं कहता आपको :)
    कुछ दिन से विचार आ रहा था कि क्यों न कुछ लोग अपनी रुचि\सामर्थ्य\उपलब्धता के अनुसार अलग-अलग ग्रंथ का अध्ययन करें और अपनी समझ सामर्थ्य के अनुसार वर्तमान परिपेक्ष्य में इनकी उपयोगिता खोजें\जनें। टेलीपैथी पर अपना विचार और सुदृढ़ हुआ। पिछली पोस्ट पर सलिल भाई का मुग्ध होने वाला कमेंट है, वही स्थिति अपनी है।
    ईश्वर की कृपा बनी रहे।

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  3. वैदिक साहित्य अब भी रहस्य लगता है, अंग्रेज़ जितना इसे मटिया गये उतना ही सशक्त बन कर उठ रहा है यह।

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  4. @@ यह एक उत्सुक प्रयास भर है। फुटकर नोट हैं, मन की तरंगे हैं। अकादमिक गुणवत्ता की अपेक्षा न रखें।

    some people are tooooooo modest. you can not help it - the gunvatta of your articles is bound to be high, you just can't help it

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