सोमवार, 26 मई 2014

चढ़ते सूरज को सलामी भर थी!

ये सुब्ह है खास कि हवाओं में है उनके पहियों की धूल
वो जिनके आने से उट्ठे हैं हजारो दिलों में शूल
वो जिनके आने से खिले हैं लाखों दिलों में फूल
वो आयेंगे कि उनके आने से उजली होंगी खादियाँ
वो आयेंगे जिनके आने से तमीजदार होंगी खाकियाँ
उनके आने से उतरेगी इजलास की दीवारों से मैल
चमकेंगे वे खम्भे जो उठाये हैं ईमान और दर्द के बोझ
गर्दमन्द पब्लिक की मदहोशियाँ और बीमारियाँ
उड़ा देते हैं जो इक झटके में बैठे एसी कमरों में नेक
वो सीखेंगे नई कोर्निशें दुखती पीठों को सेंक
हमे हैं उम्मीद कि ग़ायब होंगे गड्ढे हमारे रस्तों से
हमें है उम्मीद कि ठगी ग़ायब होगी बोझिल बस्तों से
हमें है उम्मीद कि होगी तीमारदारी उन जनानियों की
जो जनते उम्मीद सहती रहती हैं उकूबतें सड़कों की
हमें है उम्मीद कि जन की बेवकूफियाँ होंगी शुमार
माजी की उन किताबों में जिन्हें पढ़ती रहीं नस्लें बीमार
ये सुब्ह है खास कि दिल है उदास और निगाहों में प्यास
ये सुब्ह है खास कि तिजोरियों में खिलखिला रही चाभियाँ
और सोने के तमगे टँगे हैं खादी की वर्दियों में
ये सुब्ह है खास कि जो होता रहा वक्त की दहाइयों में
उससे अब है आस कि होगा कुछ खास चन्द बरसों में
मेरे हाथ की कालिखों पर नज़र न डालो इन लम्हों में
देखो कि दिया है बाला भरपूर रोशनी में भी यह जताने को
चन्द कतरे ही बचे हैं आँसुओं के बाती की देह
बुझ जायेगी ग़र तुमने ग़ौर फरमाया नहीं
सूरज आते हैं जाते हैं साँझें घिरती हैं अन्धड़ों के साथ
देखो कि यह सुब्ह रहे खास आगामी सदियों तक
कुछ करो कि न हो हमें तकलीफ सोच बरसों में
जो किया हमने वह चढ़ते सूरज को सलामी भर थी!
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~ गिरिजेश राव 

सोमवार, 12 मई 2014

मतदान के दिन लौटती बारात के संग

... बारात प्रात: 5 बजे ही वापस चल दी। प्रयाग से बलिया पहुँच कर मतदान अनिवार्यत: करना था, भले बस सीधे बूथ पर ले जानी पड़े! मैं उत्साह को देख अभिभूत हो गया।
लौटती बारात एक स्थान पर चाय के लिये उतरी तो पार्श्वासीन श्वेतकेशी वृद्ध समाचारपत्र ले आये और बस के चलते ही उद्घोषणा किये - अपने ही जड़ मट्ठा डाल दिया! ग़ैर क़ानूनी माल उनके काशी ऑफिस में पकड़ा गया।
मैं नेट पर पहले ही प्रशासन की इस मामले में हुई छीछालेदर पढ़ चुका था लिहाजा मैंने उन्हें वैसे ही सलाह दी जैसे इस मंच पर वहाबियों और सेकुलरों को देता रहता हूँ - पहले पढ़ तो लीजिये!
उन्हों ने मेरी ओर तिरस्कार भरी दृष्टि फेंकी ही थी कि पीछे से नमो समर्थकों के शब्द रेले आये - अरे, पूरा बताइये तो सही, क्या हुआ?
सज्जन समाचार पढ़ कर वास्तविकता जान चुके थे लेकिन हार कैसे मानें? पुन: दुहरा दिये  - ग़ैर क़ानूनी माल ...
मुझसे रहा नहीं गया - बासी समाचार है दद्दू! कुछ भी ऐसा वैसा नहीं मिला और जो बरामद हुआ था, उसे वापस भी कर दिया बिना कोई केस किये!
आगे बैठे युवा को मसखरी सूझी - ये बताइये चचा, अबकी किसे भोट देंगे?
चचा उवाच - अब की तो कुंजर को
युवा - कुंजर को या चक्रिका को देने से अच्छा है कि कर को ही दे दें।
चचा भड़क उठे - काहें?
युवा - चुनाव के बाद ये दोनों कर का ही दंडवत करने वाले हैं। दलालों के बजाय सीधे महरानी को ही न दिया जाय, कम से कम क्रय विक्रय जोड़ तोड़ तो न होंगे!
बस में ठहाके गूँज उठे। खिसियाये वृद्ध ने कहा - अरे, मेरे एक भोट से क्या होगा?
युवा ने कहा - वही तो सब सोचते हैं, इसीलिये तो बंटाधार है।
... मामला और लम्बा खिंचता किंतु बस का वीडियो प्लेयर ठीक हो गया था। कलात्मक फिल्म 'गुंडईराज' चल पड़ी और बाल, किशोर, युवा, वृद्ध सभी मुँह बाये, आँखें फाड़े, आँखें चुराते, निर्विकार आदि आदि मुद्राओं में शांत हो महासाहित्यिक भोजपुरी गीत 'देख'ने लगे - ले ल, ले ल, ले ल ... ले ल हमके कोरा में, चोली के बटाम खोल ...
मुझ रात भर के जगे को नींद आने लगी, पब्लिक तो  हँचड़ के खाने के बाद ए सी डॉरमेट्री में फसड़ के सोयी थी, तरो ताजा थी सो बटन खुलने के बाद के 'गुंडईराज' की कल्पना के साथ दृश्य़ श्रव्य नृत्य का आनन्द लेने लगी।
मैं इस सोच को लिये निद्रालीन हो गया - इस पब्लिक को लोकतंत्र के बन्द खुलने के बाद उससे हो रहे बलात्कार को देखने में मजा आता है... 'गुंडईराज' सनातन है!

बुधवार, 7 मई 2014

कुर्सियों पर इकराम

बहुत ढूँढ़ने के बाद कुर्सियों की फैब्रिक साफ करने वाला कोई मिला। पूछने पर नाम 'इकराम' बताया। यह नाम अरबी शब्द 'करम' का बहुवचन है जिसका अर्थ अनुग्रह या कृपा होता है। बहुवचन में इसका अर्थ प्रतिष्ठा या सम्मान की वृद्धि करने वाले अनुग्रह हो जाता है। जिन्हें ढूँढ़ते इतने दिनों से हैरान परेशान था, उनके मिल जाने से लग रहा है कि मेरे ऊपर किसी देव की कृपा हुई है किंतु मेरे ये नये कृपालु स्वयं के नाम की विपरीत स्थिति में हैं। श्रमिक के लिये कहावत का प्रयोग मुझे श्रम का अपमान लग रहा है, इसलिये नहीं कर रहा।

मैंने इकराम से घूम कर काम कितना है यह समझ लेने को कहा। लगभग आधे घंटे पश्चात लौटे तो पर्याप्त प्रफुल्लित थे। मैं समझ गया कि कमाई अच्छी जान खुश हैं। उसके बाद हमारा वार्तालाप कुछ यूँ हुआ:

"आप के चार्जेज क्या हैं?"
"कुर्सी का अस्सी रुपया और सोफे का सौ रुपया पर सीट ... आप के लिये सत्तर और नब्बे कर दूँगा।"
"काम देख लिया?"
"हाँ, बहुत है, कुछ नयी कुर्सियों को भी सफाई की आवश्यकता है। लोग इज्जत से नहीं रखते न!"
"अच्छा! ... और क्या कर सकते हैं?"
"हम रिपेयर भी करते हैं... देख लिया है। कुल चौदह व्हील, चार हाइड्रॉलिक और तीन बेस भी बदल दिये जायँ तो कुर्सियाँ ठीक हो जायँ। रेट की चिंता मत कीजिये, एकदम जेनविन लगाऊँगा - व्हील का साठ रुपया, बेस तीन टाइप का आता है। फाइबर का चाइनीज क़्वालटी के हिसाब से ढाई सौ से तीन सौ। मेटलिक देसी साढ़े चार सौ। हाइड्रॉलिक ओरजिनल साढ़े पाँच से लगाई सवा छ: सौ तक।"

कुर्सियाँ अरसे से न साफ हुईं और न रिपेयर की गयीं। आने वाले आते रहे, जाने वाले जाते रहे। आदमियों के बजाय इस बार कुर्सियों को ही ठीक कर दिया जाय, यह सोच मैंने हामी भर दी। इकराम भाई जोश से लग गये। सधे हाथ - थोड़ा सा केमिकल, पानी, स्पंज और दमदार वैक्यूम क्लीनर। कुछ कुर्सियाँ ही चमक पायी थीं कि अचानक कुझे कुछ याद आया। मैंने उन्हें बुलावा भेजा:

"आप के पास TIN है?"
"अरे साहब! आप को पक्का बिल देंगे। पेरमेंट कराते आप को तकलीफ नहीं होगी।"
“TIN जानते हैं कि नहीं? सर्विस टैक्स रजिस्ट्रेशन?"
इकराम के श्रम उत्फुल्ल साँवले चेहरे पर परेशानी के बादल घिर आये।
"कहाँ साहब! इतनी कमाई कहाँ होती है? ... जितनी होती है उसमें टैक्स भरने की जरूरत ही नहीं!"
 
"कितनी होती है ... साल भर में?"
"यही कोई एक सवा लाख।"
"बस?...यह तो बस दस हजार रुपये महीना हुआ?"
"इतना ही है साहब... आगे काम बढ़ाऊँ या ..."
"अरे नहीं नहीं... काम खत्म करिये। पेमेंट हो जायेगा... आप स्टैम्प पेपर पर लिख कर दे देंगे न कि आप की सालाना इनकम इतनी ही है? बैंक खाता है न?"
"चाहे जो लिखवा लीजिये। सच है तो है! ... खाता तो है लेकिन ज्यास्ती यूज में नहीं है। कैश पर ही काम करते हैं साहब! इतने में बैंक में क्या रखें और जियें क्या?"
"कोई बात नहीं। आप काम करिये। पेमेंट हो जायेगा।"
....
इकराम भाई काम में लगे हैं और चुनावी माहुर लिये मेरा मन खुराफात में - कुर्सियों पर लोग आते रहे, जाते रहे। कुछ खानदानी तो कब्जा ही जमा लिये। बकिये सात पुश्तों के लायक कमाई में लगे हुये हैं। कुर्सियों की साख गिर गई है। वे मैली हो गयी हैं, उन्हें रिपेयर की जरूरत है। उन पर हम जैसों की जाने कब करम होगी! जाने कब कोई इकराम मिलेगा। इकराम का मिलना कठिन है।

पसीने का, ईमानदारी का काम डरा डरा सा भी रहता है। उसे उन नियम क़ानूनों की समझ भी कम ही है जिनकी आड़ में पसीने के टैक्स भरे जाते हैं और कुर्सियाँ मैली होती गन्धाती हैं। कुर्सियों की धुलाई और मरम्मत मेहनती और कम फायदे का काम है, नियम क़ानून के अड़ंगे अपनी जगह हैं ही।     
उन्हें नेकदिल, प्यार और जतन से काम करने वालों की दरकार है। उनकी सफाई के लिये सर्विस टैक्स भरने को तैयार जाने कब मिलेंगे! कुर्सियों पर इकराम में अभी देर है।