...रोरवती सरस्वती नदी का विस्तीर्ण क्षेत्र। समय पश्चिम का उष:काल। वृष साँड़
पीठ पर उत्तुंग कुकुद और गले से लटकती प्राकृतिक माला लिये मस्त हो चोकर रहे हैं। कविगण
को धरा सींचने वाले आकाशी इन्द्र की गर्जना, मस्ती और सौन्दर्य के लिये इनसे अच्छे
रूपक नहीं मिलते। धरती पर बीज वर्षा कर उसे गर्भिणी बनाने वाले इन्द्र वृषभ बन ऋचाओं
में पूजित होते हैं। जिनके कन्धों पर व्यापार तंत्र टिका है, खेती का भार है
उन्हें अपनी सुन्दर दिनांक और बैच वाली मुद्राओं पर सेठ लोग स्थान देते हैं।
दान दक्षिणा पा कृतकृत्य पुरोहित वर्ग के लिये सारे देवता ही कृपा बरसाने वाले वृषभ हो जाते हैं जो जजमान का भी बराबर कल्याण करते हैं। भरत रूपी अग्नि को आगे रख उनके कन्धों पर जुआठा चढ़ा खेती का विस्तार करता क्षेत्र भारत होता जाता है।
... वन वन अपने श्वान और शस्त्रास्त्र के साथ भटकता कभी वनदेवी अरण्यानी से
तो कभी ग्रामदेवी से आहार की भीख माँगता औघड़ लाल रुद्र किसी पर्वतीय वनप्रांतर में
अपनी गोरी से मिलता है। ढेर सारी खट पट और मान मनव्वल वाले जीवन में रुद्र पर धीरे
धीरे गौरी का रंग चढ़ने लगता है। घर बसता है, व्याध का त्रिशूल जाने कब खेतिहर का
हल हो जाता है, गौरा पार्वती जाने कब आम घरनी हो घर घर की खबर रखने लगती हैं और सूरज
की ताप से झँउस कर लाल हुये रुद्र, लाल शिव घर की छाँव में कर्पूर गौर शम्कर हो जाते
हैं – जो सब बाधाओं का शमन कर देवी अन्नपूर्णा को इस योग्य बनाये रखे कि उसके
द्वार से कोई खाली न लौटे । उनकी लाली गोलवा बैल में समा जाती है!
जिसके आँगन खर पतवार से ले कर साँप बिच्छू तक सबको ठाँव है और जिसके खेतों पर रात में सोम अमृत उड़ेल समस्त प्रजा को अमृतस्य पुत्रा: कर देता है। यह गृहस्थ गँवई भारत है जो ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी सबका पेट भरने वाला सबसे ऊँचा महादेव है।
जिसके आँगन खर पतवार से ले कर साँप बिच्छू तक सबको ठाँव है और जिसके खेतों पर रात में सोम अमृत उड़ेल समस्त प्रजा को अमृतस्य पुत्रा: कर देता है। यह गृहस्थ गँवई भारत है जो ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी सबका पेट भरने वाला सबसे ऊँचा महादेव है।
...वर्षा है, वन प्रांतर है, वनस्पतियाँ हैं, उपज है लेकिन पेट भरने को
पर्याप्त नहीं। धरती तो माँ है उसके साथ छेड़छाड़ कैसे हो सकती है, वह अहल्या है! बिना
छेड़छाड़ के उपज कैसे बढ़े? गोतम प्रकृति के साथ बरजोरी के समर्थक नहीं। वर्षों से भूमि को हेरते तप कर रहे हैं कि कोई
राह मिले। प्रजा का संयम टूटने को है।
खेती का विस्तार करने वालों का नायक इन्द्र किंचित प्रलोभन द्वारा और किंचित
बलपूर्वक अहल्या पर हल चला ही देता है। कुपित गोतम दोनों को शाप देते हैं – ऐसी भूमि
का त्याग करो, यह विधि कोई न अपनाये। बैल की सहायता से अहल्या पर हल चला। उस वृषभरूप
को हल चलाने योग्य बनने के लिये अपने पुंसत्त्व अर्थात वृषण अंडकोष से मुक्त होना
पड़ा, बधिया होना पड़ा, बरदा बलिवर्द बनना पड़ा। जनता ने उसे भी इन्द्र स्वरूप वृषभ
पर गोतम के शाप की तरह समझा – आँड़ी थुरा गे!
अहेरी शिव के धनुष को अपने यहाँ रखवा कर शिकार बन्द करवाने वाले और कृषियज्ञ
में स्वयं हल चलाने वाले राजा हैं जनक। अपनी पुत्री को भूमिजा कह सीता नाम दिये
हैं, सीता अर्थात खेत का घोहा! उनकी राह में गोतम का शाप वर्षों से खड़ा है – खेती बढ़
नहीं रही! प्रतीक तोड़ने और नये प्रतीक गढ़ने का समय आ गया। राजा घोषणा करते हैं –
मेरी पुत्री सीता वीर्यशुल्का है, जो वीर शिवधनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा मेरी
पुत्री उसी का वरण करेगी।
प्रतापी इक्ष्वाकु वंश। वनस्पतियों की अथर्वण परम्परा का पोषक। वह वंश
जिसमें कभी पुरंजय हुये जिन्हों ने देवताओं का साथ देना तब स्वीकार किया जब उनका राजा
वृषभ इन्द्र उन्हें अपने कुकुद (भारतीय बैल के पीठ का उभार) पर बैठा कर उनकी सवारी
बनने पर तैयार हुआ। इस कारण वे काकुत्स्थ कहलाये। उसी वंश में हुये प्रतापी रघु और
दशरथ नन्दन राम।
बैल की सवारी करने वाले काकुत्स्थ का कोई वंशज ही दूसरे बरद के सवार का
निवारण कर सकता था। कथायें गुंफित हुईं। राम जनक क्षेत्र पहुँचे। आश्रम की वर्षों से
बंजर पड़ी अहल्या धरा का स्पर्श कर खेती की विधि को शापमुक्त किया, उसकी जनस्वीकारता
सुनिश्चित की; शिव का धनुष तोड़ अहेरी वनचारियों
को सदा सदा के लिये तिरस्कृत बनच्चर बना दिया और सीता का वरण कर गाँव गाँव के वह रघुवा
किसान बन जन जन में रम गये जिसकी घरवाली सीता थीं। सुदूर दक्षिण दंडकारण्य से भी
आगे तक उनके रामराज्य का मॉडल आदर्श मान अपना लिया गया। एकराट राम के अनुशासन वाला
भारत इस तरह उभरा।
...किसी और कालखंड में पशुचारण
और कृषि के बीच समन्वय की कमी को पहचाना एक काले कन्हैया ने। उन्हों ने इन्द्र को ठेंगा
दिखा कृषि द्वारा आक्रांत होती गोचारण भूमि को सम्मान दिया – गोवर्धन पूजा उनकी
पहचान हुई। पशुचारी कृष्ण के साथ उनके बड़े भाई गौर राम हलधर बने - चरवाहे और कृषक की आपसी खटपट के बीच भातृभाव बनी रहा। गोवंश और कृषि के आपसी सम्बन्ध के वे 'अन्नकूट' थे। दोनों
ने जब अलग अलग राहें पकड़ीं तो महाविनाश हुआ – महाभारत।
... इन सबके पश्चात ऐसा संश्लिष्ट गँवई भारत विकसित
हुआ जिसकी पोषण और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था गोवंश पर टिकी थी, जिसकी उपज और रसोई का जुआठा दुआर के बैलों के कन्धों पर था।
उसकी कथाओं, कहानियों, नाटकों, लोरियों,
सोहर, नृत्य, झूमर, कजरी, जन्मपत्री, हास परिहास, धर्म, स्मृति, पुराण, लोकोक्ति, पर्व
आदि आदि सबमें वही शिव, वही राम, वही कन्हैया, वही गौरा, वही सीता जाने कितने रूप
बदल पगते चले गये:
रामाद् याञ्चय मेदिनिम् धनपते बीजम् बलालांगलम्।
प्रेतेशान महिष: तवास्ति वृषभम् त्रिशूलेन फालस्तव।।
शक्ताहम् तवान्न दान करणे, स्कन्दो गोरक्षणे।
खिन्नाहम् तवान्न हर भिक्ष्योरितिसततं गौरी वचो पातुव:।।
प्रेतेशान महिष: तवास्ति वृषभम् त्रिशूलेन फालस्तव।।
शक्ताहम् तवान्न दान करणे, स्कन्दो गोरक्षणे।
खिन्नाहम् तवान्न हर भिक्ष्योरितिसततं गौरी वचो पातुव:।।
पार्वती जी
शंकर जी को उनकी दरिद्रता पर उलाहना दे रही हैं। आप का भिक्षाटन ठीक नहीं है इसलिए
आप भगवान राम से थोड़ी सी भूमि, कुबेर से बीज और बलभद्र से हल माँग लीजिए। आप के पास एक
बैल तो है ही, यमराज से भैंसा माँग लीजिए। त्रिशूल फाल का काम देगा।
मैं आप के लिए जलपान पहुँचाऊँगी। कार्तिकेय पशुओं की रक्षा करेंगे। खेती करिए, आप के
निरंतर भिक्षाटन से मैं खिन्न हूँ।
परुवा के दिन कहीं यह भारत अपने बैलों को सजाता, उनकी सेवा करता है और उनसे कोई काम नहीं लेता है तो कहीं उनकी दौड़ आयोजित करता है।
दूर पश्चिम में उनकी पूजा होती है तो दक्षिण में बैलगाड़ियों की दौड़ होती है।
संक्रांति में जलिकट्टु के बहाने बैल को नियंत्रित करने की जोर आजमाइश कर जवानों
के वीरता और कौशल की परीक्षा होती है।
हृष्ट पुष्ट बैल किसान की मजबूती का प्रमाण होते हैं। कहना नहीं होगा कि इन सबके बहाने उस भारतीय गोवंश को सुरक्षित और शुद्ध रखा गया जिसकी धाक कभी सुमेरिया तक थी।
जलिकट्टु पर प्रतिबन्ध गँवई ‘देव’ भारत की
वैज्ञानिक सोच और जीवनपद्धति पर उन ‘अ-सुर’ शहरातियों का प्रहार है जो भूमि और जड़
से कटे, आयातित मेधा और बोतलबन्द पानी पर जी रहे हैं; जिन्हें इतना भी नहीं पता कि साँड़
के अंडकोश नष्ट कर मनुष्य ने अपनी संतति की बाढ़ और सभ्यता सम्स्कृति का प्रसार
सुनिश्चित किया। जिन्हें नहीं पता कि बली बलिवर्द की वासना कहीं न कहीं उसके
संरक्षण और किसान की अर्थव्यवस्था से जुड़ती है।
जिन्हें नहीं
पता कि किसान का लाड़ प्यार नकली पशु ‘अधिकारों’ के घेरे से बहुत बाहर तक फैला है
और जिन्हें यह भी नहीं पता कि ट्रैक्टर और कल्टिवेटर के इस युग में भी बरदा बाबा उस
उपज को अपने कन्धों पर धारण किये हुये हैं जिसके बीज ‘ऑर्गेनिक उत्पादों’ के पैकेट
में बन्द उन विराट बाजारू मालों में मिलते हैं जिनकी वायु तक जीवनहीन और प्रदूषण
से भरी होती है!
जिन्हें यह भी नहीं पता कि चावल धान नामक एक घास
से उपजाया जाता है और रिफाइंड राइस ब्रान ऑयल किसी छत्ते से नहीं टपकता!
sadhu sadhu
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन....पूरा लेख ही ज्ञान की खान है
जवाब देंहटाएंशतं जीवेत!
जवाब देंहटाएंवाह राव साहव... लगता है बहुत रिसर्च किया है, इसका स्पष्ट प्रभाव आलेख में दिख रहा है। इतिहास के कोने - कोने से ढूंढकर जानकारिया प्रस्तुत कीं है। बेहतरीन..!
जवाब देंहटाएंउदयवीर सिंह
👌
जवाब देंहटाएंअहा आर्य। काश कि कॉपी हो पाता।
जवाब देंहटाएंThanks for share this.
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