नक्षत्रों के अभिज्ञान से पूर्व दिशा-ज्ञान आवश्यक है। आधुनिक युग की आपाधापी में हममें से बहुतों को दिशायें नहीं ज्ञात क्यों कि कृत्रिम जीवन और विहार के कारण सूर्योदय और सूर्यास्त के दर्शन और महीनों के बीतने के साथ उन बिन्दुओं की सापेक्ष गति के प्रेक्षण से हमारा सम्बन्ध समाप्त हो चुका है। अस्तु।
सुविधा के लिये चार दिशाओं के अतिरिक्त उनके बीच के चार मध्य बिन्दु दक्षिण पूर्व, उत्तर पूर्व, उत्तर पश्चिम और दक्षिण पश्चिम भी समझ लेते हैं। दिशायें 90 अंश के अन्तर पर क्षैतिज वृत्त को विभाजित करती हैं। किसी भी दिशा से होकर घूमते हुये पुन: उस दिशा तक पहुँचने में कुल 360 अंश होते हैं। उत्तर दिशा को 0 अंश मानें तो दक्षिणावर्त घूमते 45 अंश पर उत्तर-पूर्व दिशा, 90 अंश पर पूर्व, 135 अंश पर दक्षिण-पूर्व, 180 अंश पर दक्षिण, 225 अंश पर दक्षिण-पश्चिम, 270 अंश पर पश्चिम और 315 अंश पर उत्तर-पश्चिम दिशा होती है।
वर्ष में केवल दो बार सूर्य ठीक पूरब में उगता और पश्चिम में अस्त होता है। वे दिन विषुव कहलाते हैं। 20 मार्च के आसपास जो होता है उसे महाविषुव या बसंत विषुव कहते हैं। बसंत ऋतु सबसे सुखद और नवरस संचार से जुड़ी है, इस कारण संवत्सर इसी ऋतु से प्रारम्भ होते हैं। 20 मार्च से सूर्य का उदय बिन्दु क्रमश: उत्तरी झुकाव लेता जाता है। यह गति या खिसकन अयनगति कहलाती है। 20 जून के आसपास यह अपने चरम बिन्दु, पूर्व और उत्तर-पूर्व दिशा के लगभग मध्य अर्थात लगभग 63 अंश, पर पहुँच जाता है। इसे ग्रीष्म अयनान्त कहते हैं। यह वर्ष का सबसे बड़ा दिन होता है। इस दिन सूर्योदय महाविषुव के दिन से लगभग आधे घंटे पहले हो जाता है और भारत की राजधानी में सूर्यास्त उससे लगभग 80 मिनट पश्चात होता है।
इस दिन से सूर्योदय बिन्दु पुनरावर्तन प्रारम्भ करता है और 22 सितम्बर के आसपास पुन: ठीक पूर्व में सूर्योदय हो ठीक पश्चिम में अस्त होता है, दिन रात समान घण्टों के होते हैं। इसे शरद विषुव कहते हैं क्यों कि उस समय शरद ऋतु होती है।
इसके पश्चात सूर्योदय बिन्दु दक्षिण की ओर खिसकता जाता है और दिन छोटे होने लगते हैं। 21 दिसम्बर के आसपास सूर्य पूरब और दक्षिण-पूर्व के लगभग बीच में 117 अंश पर उगता है। सूर्योदय का समय लगभग सवा घंटे बिलम्ब से और सूर्यास्त लगभग आधे घण्टे पहले – वर्ष का सबसे छोटा दिन। यह शीत अयनांत कहलाता है।
इस दिन के पश्चात सूर्योदय बिन्दु पुन: उत्तर की ओर खिसकना प्रारम्भ होता है और दिन की अवधि में क्रमश: वृद्धि होने से शीत ऋतु की तीव्रता क्रमश: अल्प होने लगती है और 20 मार्च को बसंत के मधुमय समय में पहुँच कर चक्र के पूरे होने के साथ नववर्ष आगमन की घोषणा कर देता है।
इस दिन के पश्चात सूर्योदय बिन्दु पुन: उत्तर की ओर खिसकना प्रारम्भ होता है और दिन की अवधि में क्रमश: वृद्धि होने से शीत ऋतु की तीव्रता क्रमश: अल्प होने लगती है और 20 मार्च को बसंत के मधुमय समय में पहुँच कर चक्र के पूरे होने के साथ नववर्ष आगमन की घोषणा कर देता है।
विषुव बिन्दुओं के बीच छ: महीनों का अंतराल होता है और अयनांत बिन्दुओं के बीच भी। उत्तरी और दक्षिणी अयन गतियों के आधार पर ही सूर्य उत्तरायण या दक्षिणायन कहलाते हैं।
एक बात ध्यान में रखनी होगी कि अक्षांश स्थिति के कारण उत्तर भारत में वर्ष भर सूर्य के आभासी गतिपथ का झुकाव अधिकतर दक्षिण की ओर ही होता है।
इसी कारण भवनों के दक्षिणी रुख अधिक ऊष्मा विकिरण ग्रहण करते हैं। इस तथ्य का उपयोग वास्तुविदों द्वारा भवन के भीतर सुविधा और स्वास्थ्य की दृष्टि से शयनकक्ष, रसोई आदि के स्थान निर्धारण में किया जाता है। छत के ऊपर लगे सौर ऊर्जा पैनल दक्षिण की ओर मुख किये रहते हैं और चमक से बचते हुये दिन का अधिकतम प्रकाश प्राप्त करने के लिये औद्योगिक भवनों की ढलवा छतों में उत्तर की ओर खिड़कियाँ दी जाती हैं जिन्हें North Light कहते हैं।
वर्ष भर सूर्य अपने समस्त ग्रह उपग्रह परिवार के साथ जिस आभासी पट्टी पर गति करता प्रतीत होता है उसे क्रांतिवृत्त ecliptic कहते हैं। सूर्य गति, ऋतु परिवर्तन और उससे जुड़े शस्य चक्र को मनुष्य ने बहुत पहले जान लिया था। उसे अयनांत और विषुव बिन्दुओं की निश्चित बारम्बारता का भी पता था। समस्या यह थी कि उस पर दृष्टि कैसे रखी जाय, लेखा जोखा कैसे किया जाय? दिन में केवल सूर्य ही सूर्य दिखते थे किन्तु रात में उनके अतिरिक्त अगणित तारे, नक्षत्र पिण्ड चमकते दिखते थे। चन्द्रमा तो था ही! प्रेक्षण से उन लोगों ने जान लिया कि नक्षत्र सूर्य चन्द्र की तुलना में स्थिर थे।
उन लोगों ने सूर्य गति पर दृष्टि रखने के लिये रात के आकाश को आधार पट्टिका बनाया। चन्द्रमा की कलाओं में 27 से 28 दिनों की आवृत्ति थी। उन्हों ने क्रांतिवृत्त को उतने ही भागों में बाँट दिया। प्रत्येक भाग के कुछ अति प्रकाशमान तारे, तारकसमूह या उनसे बनी आकृतियों को उसके नाम कर दिया गया। चन्द्रमा जिस भाग पर होता उसे उस भाग के नक्षत्र का नाम दे कहते कि आज चन्द्रमा अमुक नक्षत्र पर है। सूर्य के लिये समाधान यह निकाला गया कि सूर्योदय से पहले रात रहते ब्रह्मबेला में जाग कर आकाश निहारा जाय। सूर्य के उदय का स्थान पिछले दिन से पता होता ही। उस स्थान पर जो नक्षत्र होता, सूर्य उस नक्षत्र में होता। आगे प्रेक्षण परिशुद्धता एवं सूक्ष्मता द्वारा एक से दूसरे नक्षत्र पर संक्रमण के समय की भी गणना होने लगी। गणित एवं प्रेक्षण को और पक्का करने के लिये नक्षत्रों को आगे चार पदों में बाँट दिया गया। इस प्रकार क्रांतिवृत्त के 27x4 = 108 भाग हो गये जो कि सटीक गणितीय भविष्यवाणी के लिये पर्याप्त थे।
वर्ष की आवृत्ति 365 दिनों के आसपास थी जब कि चन्द्रकलाओं की 27/28 दिनों की। गणनात्मक सुविधा के लिये चन्द्रकलाओं पर आधारित महीनों और वर्ष का समाधान कुछ इन विधियों द्वारा किया गया।
महीने को तीस दिन का मान दे वर्ष को 12 महीनों में बाँट दिया गया। घट बढ़ के लिये महीनों में दिनों की संख्या में समायोजन किया गया। दूसरी विधि में महीने चन्द्र आधारित ही रखे गये। पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर होता, महीने का नाम उस नक्षत्र पर रखा गया जैसे चैत्र महीने में पूर्णिमा चित्रा नक्षत्र पर होगी, माघ महीने में मघा पर आदि। वर्ष के अंत में दिनों की घटोत्तरी का समायोजन या तो 11/12 दिन जोड़ कर किया गया या वर्तमान में प्रचलित उस विधि में जिसमें हर तीसरे वर्ष इसके संचित हो लगभग एक महीने का हो जाने पर एक मलमास या पुरुषोत्तम मास लगा दिया जाता है।
महीने को तीस दिन का मान दे वर्ष को 12 महीनों में बाँट दिया गया। घट बढ़ के लिये महीनों में दिनों की संख्या में समायोजन किया गया। दूसरी विधि में महीने चन्द्र आधारित ही रखे गये। पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर होता, महीने का नाम उस नक्षत्र पर रखा गया जैसे चैत्र महीने में पूर्णिमा चित्रा नक्षत्र पर होगी, माघ महीने में मघा पर आदि। वर्ष के अंत में दिनों की घटोत्तरी का समायोजन या तो 11/12 दिन जोड़ कर किया गया या वर्तमान में प्रचलित उस विधि में जिसमें हर तीसरे वर्ष इसके संचित हो लगभग एक महीने का हो जाने पर एक मलमास या पुरुषोत्तम मास लगा दिया जाता है।
नक्षत्र प्रेक्षण के लिये धुन्ध और प्रकाश प्रदूषण से रहित खुला आकाश चाहिये जो कि ग्रामीण सरेह और नगर सीमाओं से कुछ दूर मिल ही जाता है। निरभ्र अर्थात बादलों से रहित आकाश हो, वर्षा और शीत की ठिठुरन न हों इसलिये उत्तर भारत में प्रेक्षण के महीने माघ उत्तरार्द्ध से प्रारम्भ हो आषाढ़ पूर्वार्द्ध (लगभग फरवरी से जुलाई) सर्वोत्तम हैं। दूसरे दिनों महीनों में भी सुविधा और दैनिक परिस्थिति के अनुसार प्रेक्षण किया जा सकता है।
नक्षत्रों को जानने के लिये पहले सरलता से दिख जाने वाले नक्षत्रसमूहों को जानना आवश्यक है। सभी नक्षत्र सब समय नहीं दिखते किन्तु वार्षिक चक्र के अनुसार क्रमबद्धता तो रखते ही हैं। नक्षत्रसमूह राशि भी कहलाते हैं जिनमें 12 का फलित ज्योतिष में प्रयोग होता है जो कि हमारा विषय नहीं।
सरल अभिज्ञान वाले नक्षत्र समूह ये हैं:
1. मृगशिरा
2. सप्तर्षि
3. शर्मिष्ठा या पंचपाण्डवमण्डल
4. कृत्तिका
5. वृश्चिक
6. हस्त
7. पुनर्वसु
सरलता से पहचान में आने वाले तारे और एकलतारा नक्षत्र ये हैं:
1. श्वान या लुब्धक या मृगव्याध
2. अगस्त्य
3. स्वाति
4. अभिजित
थोड़े प्रयास से अपना परिचय देने वाले तारे या एकलतारा नक्षत्र ये हैं:
1. ध्रुवतारा
2. मघा
3. श्रावण
4. रोहिणी
5. आर्द्रा
6. चित्रा
थोड़े प्रयास से अभिजनित नक्षत्रसमूह ये हैं:
1. पुनर्वसु
2. स्रोतस्विनी / वैतरणी
3. महासर्प
4. शिंशुमार
5. ब्रह्महृदय
6. ययाति
7. त्रिशंकु
कुछ और नाम हैं जिनको आगे प्रसंगवश बतायेंगे। यह ध्यान देना है कि सूर्यगति के प्रेक्षण से सम्बन्धित 27 नक्षत्रों से इतर भी ढेरों नक्षत्रमण्डल और राशियाँ हैं, यह भी कि नक्षत्र स्थितियाँ भी गतिमान हैं किंतु हमारे सन्दर्भ के लिये उनकी गति इतनी इतनी धीमी है कि उन्हें स्थिर ही समझा जा सकता है। समय क्रम में अब अनेक नक्षत्र क्रांतिवृत्त के पास भी नहीं रहे। नक्षत्रमण्डलों के तारे एक दूसरे के सापेक्ष भी गतिमान हैं जिसके कारण किसी नक्षत्रमण्डल का आकार आज से लाखों वर्ष पश्चात भिन्न भी हो सकता है।
मनुष्य की आँख ऊर्ध्व में (ऊपर) सरलता से लगभग 70 अंश तक देख सकती है। खमध्य (सर्वोच्च बिन्दु zenith) 90 अंश पर होता है जिसे गले के पृष्ठभाग पर किञ्चित बल दे सिर ऊपर कर देखा जा सकता है।
बँधी हुयी मुट्ठी का अंशमान लगभग 10 होता है। आँखों की सीध में नक्षत्र की ओर मुट्ठी कर उसके अंश प्रसार का अनुमान लगाया जा सकता है। क्षैतिज से ऊपर की ओर स्थिति जानने के लिये मुट्ठी को सीधा रख एक के ऊपर दूसरी को रख बढ़ते हुये प्रयोग में लाया जा सकता है। इसी प्रकार दिशाओं से सम्बन्धित अंशमान का अनुमान करने के लिये मुट्ठी को क्षैतिज रख प्रयोग में लाया जा सकता है। ऐसा केवल प्रारम्भिक दिनों में ही करना होगा, आगे आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
प्रेक्षण की सुविधा के लिये हम पहले रात के साढ़े सात बजे से ले कर ग्यारह बजे तक का समय चुनेंगे। ऊर्ध्व में 10 अंश से नीचे के तारे सामान्यत: क्षितिज पर वृक्षों और ढूह आदि के छायाभास के कारण नहीं दिखते। यह काम धैर्य का है, बार बार दुहराने का है और साथ ही अकेलेपन का भी। बाहर जाते समय सुरक्षा और अपने स्वास्थ्य पर भी एक दृष्टि डाल यथोचित उपाय कर लें।
मई महीने से प्रारम्भ करते हैं। पहले पूरब से दक्षिण तक का क्षेत्र। सॉफ्टवेयर में मैंने क्रांतिवृत्त और ग्रहों को रखा है जिससे कि सुविधा रहे। साथ ही क्षैतिज और ऊर्ध्व अंशमापक भी हैं। भूदृश्य में वनस्पतियाँ, वृक्ष, गाड़ी, मनुष्य और दूरदर्शी भी हैं जिससे कि परिवेश से तादात्म्य स्थापित हो सके।
लगभग साढ़े सात बजे। पूरब दिशा में 40 अंश की ऊँचाई पर सबसे चमकता नारंगी तारा स्वाति(Arcturus) है। क्रांतिवृत्त से लगी हुई दक्षिण-पूर्व दिशा में 25 अंश की ऊँचाई पर है चित्रा जो कि कन्या राशि में पड़ती है। 25 से 32 अंश की ऊँचाई पर दक्षिण-पूर्व दिशा से बस थोड़ी दाहिनी ओर है चार तारों का एक समूह, लगभग पतंग के आकार का चतुर्भुज। यह है हस्त नक्षत्र (Crow)।
दृष्टिपथ में जो तारा ~ 61 अंश की ऊँचाई पर दक्षिण-पूर्व दिशा से थोड़ा बाँई ओर है वह है उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र (Denebola)। स्वाति, चित्रा और उत्तराफाल्गुनी लगभग समबाहु त्रिभुज का निर्माण करती हैं।
वराहमिहिर के जन्म के समय चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र पर था। दायीं ओर कुछ ऊपर चमकते गुरु दर्शनीय हैं। वर्ष में जिस अवधि तक ये दृश्यमान रहते हैं, अन्य नियमों से सम्पृक्त होने पर विवाह संस्कार सम्पन्न कराते रहते हैं।
उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाफाल्गुनी और मघा (Regulus); ये तीन नक्षत्र सिंह राशि समूह के अंग हैं। पूर्वाफाल्गुनी (Zosma) मन्द तारा है जो उत्तरा से लगभग 10 अंश ऊपर दक्षिण-पूर्व दिशा से बायीं ओर ही है। मघा को देखने के लिये ग्रीवा को थोड़ा ऊपर तानिये तो! गुरु बृहस्पति के ऊपर जो चमकता तारा दिखायी दे रहा है वह है गर्वी मघा नक्षत्र।
यदि बिलम्ब हो जाये तो प्रति आधे घंटे 10 अंश की गति से ऊपर देखें। आठ बजे के आसपास का चित्र यह है:
रात लगभग सवा नौ बजे। उत्तर-पूर्व दिशा से थोड़ा दाहिनी ओर एक मुष्टि अर्थात 10 अंश से थोड़े ही ऊपर दिखेंगे कांतिमयता में पाँचवे अभिजित। स्वाति से आप मिल ही चुके हैं। 50 से 60 अंश की ऊँचाई पर स्थित अर्यमन् या अर्यमा के संरक्षण में स्वाति रहती हैं। अर्यमन को मित्रता से सम्बन्धित नक्षत्र कहा जाता है।
सप्तर्षि का विस्तार उत्तर-पूर्व दिशा से उत्तर की ओर 45 अंश के परास में है। यह मण्डल मनुष्य द्वारा सबसे अधिक पहचाने जाने वाले आकाशीय मित्रों में से एक है। सदियों तक इन ऋषियों ने भूले भटकों को दिशा बताई। डेढ़ मुष्टि या 15 अंश की ऊँचाई पर स्थित इस तारा मण्डल को कोई पतंग के साथ पूँछ, कोई उलटी कलछी/चम्मच तो कोई घोड़ागाड़ी के रूप में जानता है। पाश्चात्य सभ्यतायें इसे विशाल भालू के रूप में पहचानती रहीं जिसके लिये इसे Great Bear कहा जाता है।
जिन सात ऋषियों के नाम से इस मंडल को हम लोग जानते हैं, वे हैं – क्रतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वसिष्ठ-अरुन्धति और भृगु।
पुलह और क्रतु नाम के तारों को मिलाने वाली रेखा सात गुनी दूरी पर ठीक उत्तर में स्थित ध्रुव(Polaris) पर जा कर समाप्त होती है। यह तारा लगभग पृथ्वी के परिभ्रमण(घूर्णन) अक्ष पर स्थित है जो कि अति लघु व्यास के वृत्त की परिधि पर परिक्रमा करता प्रतीत होता है। अन्य सभी नक्षत्र इसकी उत्तरावर्त परिक्रमा करते दिखते हैं।
पृथ्वी के घूर्णन अक्ष का उत्तरी सिरा लगभग 25700 वर्ष की आवृत्ति से लट्टू के ऊपरी बिन्दु की तरह घूम रहा है इस कारण दीर्घावधि में उसकी सीध में आने वाले तारे परिवर्तित होते रहते हैं।
इस चित्र में दो भूतपूर्व ‘धुवतारे’ हैं – अभिजित और शिशुमार (Draco) नक्षत्रमण्डल का अभय (Thuban)। अभिजित आज से चौदह हजार वर्ष पहले ध्रुव के स्थान पर था तो कृष्णयजुर्वेदी तैत्तिरीय आरण्यक का अभय आज से लगभग 4800 वर्ष पहले। कालक्रम में ये दो पुन: ध्रुव होंगे। सम्भवत: अभिजित का पतन महाभारत काल से बहुत पुरानी घटना है।
विवाह के समय अभय तारे को दिखाया जाता था जो कि तब का ध्रुव था। वह परम्परा आज तक चली आ रही है।
लगभग 45 अंश के प्रसार में स्थित शिशुमार नक्षत्रमण्डल का नाम किसी और नहीं गंगा-गण्डक-सरयू के पानी में आज भी पायी जाने वाली डॉल्फिन के पूर्वज के नाम पर है जिसे स्थानीय लोग शोंश या सोंस कहते हैं। तैत्तिरीय आरण्यक इस नक्षत्र मण्डल के चौदह तारों का स्पष्ट उल्लेख करता है।
शिशुमार की पूँछ के चार तारे कभी अस्त नहीं होते जिनमें एक अभय भी है।
(क्रमश:)