शनिवार का
दिन समुद्र के किनारे डूब रहा था और मैं प्रतीक्षा में था। उसे अनजान भेंट ही कहूँगा,
ब्लाइण्ड डेट में किसी ऐसे परिचित का होना अनिवार्य होता है जो दोनों को मिला दे।
हमारे साथ ऐसा नहीं था, इंटरनेट को मनुष्य
तो नहीं कह सकते न!
साँझ की थकान
में नीचे आ गये सूरज के साथ पश्चिम के मकान भी पियरा गये थे। मुझे थमी सी बयार
साँवरी लग रही थी जिसके रुख पर हल्दी का लेप लगा था। मैं अपने में मुस्कुराया –
परिवेश भी मनुष्य की नकल करता है। यहाँ की साँवली महिलायें मुख में हल्दी लगा
घूमती जो हैं! पूरब में बदली सी थी या धुन्ध, पता नहीं लग रहा था लेकिन इतना अवश्य
था कि किनारे घूमते सैकड़ो लोगों में कोई साँझ में यूँ डूबा न होगा जैसा मैं था। सब
अपने आप में मगन थे। हहरते सागर में कोई कितने संवाद घोल सकता है! मैं चकित भी था।
मनुष्य अकेलेपन
से कतराता है। जो भी उसका विस्तार है वह भीतर के निर्वात को भरने के लिये ही है जिसे
उसने जाने कितने भागों में बाँट अलग अलग नाम दे रखे हैं। मैं भी उससे बचना चाहता
था। यह भी कह सकता हूँ कि एक पचपन साल के किरानी के लिये वह अनिवार्य है, तब जब कि
न कोई मित्र हो, न पत्नी हो और न बच्चे। उस दिन जाने क्या सूझी तो एक डेटिंग साइट
पर चला गया, यह सोच कि कोई मिल ही जाय। मुझे किसी स्त्री मित्र की चाहना नहीं थी
लेकिन ऐसी साइट पर किसी पुरुष का पुरुष मित्र ढूँढ़ना तो उसे समलैंगिक अधिक सिद्ध करता
जो कि मैं हूँ नहीं। इस हास्यास्पद कारण से ही मैं स्त्री मित्र ढूँढ़ने निकला।
पुलिस द्वारा
अपराधी की जाँच पड़ताल सरीखे प्रश्न झेल कर प्रविष्ट हुआ तो उबकायी आने लगी। कुण्ठाओं
के लिजलिजे चित्र सर्वत्र बिखरे थे। साइट डिजाइन करने वाला पक्का कुलोचन होगा, यह
तय था। यूँ ही पन्ने पलटते एक चित्रहीन प्रोफाइल पर ठहर गया। आयु 35 वर्ष, ऊँचाई 4'4'',
रुचि 55-60 की वय-परास के पुरुष। विचित्र सी प्रोफाइल उलझाने वाली थी – ड्रॉप डाउन में वय
चुनने में त्रुटि हुई होगी जिसे उसने बहुत दिनों से देखा ही नहीं होगा लेकिन प्रोफाइल
तो सक्रिय थी। उत्सुकता में मैंने अपनी पसन्द जाहिर कर दी... 4'4"! हूँ।
... चैट से होते
होते बातें जाने कब मोबाइल पर आ गईं और हम खुलते चले गये लेकिन हमने एक दूसरे का न
पता जाँचा और न चित्रों की अदला बदली की। इस नम सीझते नगर में उमस बढ़ती जाय तो
जीना मरना हो जाता है। ऐसे ही एक दिन का जब मैं रोना रो रहा था तो वह खिलखिला उठी –
पता है? मैं सप्ताह में बस तीन दिन ही नहाती हूँ। मैंने उसे फूहड़ गन्धिनी कहते हुये
बताया कि मैं दिन में दो बार।
तो मिल कर जान
ही लें कि कौन अधिक गन्धाता है और किसकी खाल धुलते धुलते इतनी पतली हो गयी है कि बयार
भी चुभने लगी है? – प्रस्ताव उधर से ही आया और शनिवार का दिन तय हुआ।
उसने पूछा –
तुम्हें पहचानूँगी कैसे?
मैंने तुरंत
बताया – काली टी शर्ट। इस नगर में कोई और नहीं पहनता होगा।
“क्यों भला?”
“मैंने आज तक
नहीं देखा। काले पर जमे पसीने की धारियाँ भद्दी जो लगेंगी, सूरज सोख कर देह स्वयं
अपने को घायल कर लेगी सो अलग!”
खनक तेज हुई
– अच्छा, तो कहाँ मिलेंगे?
“वहीं जहाँ मरुधर
को उसकी लल्ली ने विदाई दी थी।”
वह प्रगल्भ
हो चली – आना पक्का, साँझ को जब दिन डूबने लगे लेकिन आर्यश्रेष्ठ! इन दोनों का
परिचय भी करायेंगे?
मैंने हँसते हुये
उत्तर दिया - अरे, एम जी आर और अम्मा, और
कौन?
दूसरी ओर अचानक
ही शांति छा गयी। मोबाइल एकदम से कट गया। मैंने दुबारा मिलाया लेकिन आउट ऑफ कवरेज
बताने लगा।
आने वाले दो
दिन कोई बात न कोई चीत। मैं पुनरावलोकन करने लगा – मेरी हँसी में हल्कापन या असहज करने
वाले संकेत तो नहीं थे? क्या कारण हो सकता है, वह ऐसी प्रूड तो नहीं है। मैंने कुछ
अवांछित तो कहा नहीं!
पता नहीं,
लेकिन मैं जाऊँगा अवश्य...
...बालू के ऊपर
दूर तक दुकानें टिमटिम हो चलीं थीं। नीचे रेती की पियराई सलवटों पर झँवराई चढ़ने
लगी थी लेकिन उसका कहीं पता नहीं था। मैं ऐसे सोच रहा था जैसे उसे पहचानता होऊँ। विरक्त
हो मैंने पूरब की और दृष्टि फेरी, आश्चर्य हुआ कि बादल इतने लाल थे जैसे उनके पीछे
दूसरा सूरज छिपा हो। छलना, मैं बुदबुदाया। ऊब इतनी गहन हो सकती है कि ध्यान की
उच्चतम स्थिति जैसी हो जाय। उस किनारे तक पहुँच चुका था फिर
भी मैं बैठा रहा, मरुधर से जया मिलेगी ही।
पश्चिम को
निहारते आँखें थक गयीं - उस कद की कोई न दिखी कि पीछे से किसी ने कन्धे पर थपकी दी
- सॉरी देव, विलम्ब हो गया। वही थी, कुछ लोगों का
स्वर मोबाइल से इतर कितना मधुर लगता है न!
मैंने आँखें घुमाईं और ठगा सा रह गया - अवस्था उतनी ही थी लेकिन देह तो सामान्य ऊँचाई की थी। अंग्रेजी औपचारिक वेशभूषा में वह आकर्षक लग रही थी, पाँव में साधारण चप्पल ही थे, हाई हील नहीं। मुझे मुँह बाये देख वह खिलखिला उठी - अरे, जया को आसन ग्रहण करने के लिये नहीं कहेंगे आर्यश्रेष्ठ!
मैंने आँखें घुमाईं और ठगा सा रह गया - अवस्था उतनी ही थी लेकिन देह तो सामान्य ऊँचाई की थी। अंग्रेजी औपचारिक वेशभूषा में वह आकर्षक लग रही थी, पाँव में साधारण चप्पल ही थे, हाई हील नहीं। मुझे मुँह बाये देख वह खिलखिला उठी - अरे, जया को आसन ग्रहण करने के लिये नहीं कहेंगे आर्यश्रेष्ठ!
वह सुन सके
ऐसे मैं बुदबुदाया - उपविश द्रविड़े! और हम दोनों खिलखिला उठे।
उसने कहा -
यू डॉण्ट लुक दैट ओल्ड।
मैंने पलट कर
कहा - तुम भी उतनी नाटी नहीं हो नॉटी!
मैंने एक
नारियल पानी उसे थमाया और दूसरा स्वयं ले लिया - सही सही बताओ, क्या करती हो?
उसने उत्तर दिया - एक प्राइवेट फर्म में फाइनेंस देखती हूँ। गुड्डी और मेरे लिये पर्याप्त है।
“गुड्डी?”
हाँ, मेरी बहन है। बंगलोर में एम सी ए कर रही है।
उसने उत्तर दिया - एक प्राइवेट फर्म में फाइनेंस देखती हूँ। गुड्डी और मेरे लिये पर्याप्त है।
“गुड्डी?”
हाँ, मेरी बहन है। बंगलोर में एम सी ए कर रही है।
मैं चुप हो
गया। मौन कुछ खिंचा तो उसने ढीला किया - चुप क्यों हो गये?
मैंने
प्रतिप्रश्न किया - अम्मा और एम जी आर कहने पर तुम एकदम से क्यों चुप हो गयी थी?
उसने ठंढे
स्वर में उत्तर दिया - उस बात को आगे बढ़ाना ठीक नहीं होगा। पहली भेंट का स्वाद न
बिगाड़ो, नारियल पानी पियो।
मैंने मनुहार
सी की - बताओ न?
उसने बात
घुमा दी - जानते हो, एक तमिळ कवि हुये हैं जिन्हों ने नारियल की तुलना पयोधर
से की है। तुम्हारे हाथ में जो है उसे देखो तो!
वह कौतुक के
साथ मुस्कुराने लगी। मैं लजा सा गया।
“ए, ए, ए ... द ओल्ड
मैन इज ब्लशिंग!”
उन
खिलखिलाहटों से समुद्र की गरज भरती गयी ठीक वैसे जैसे साँझ को बाबा की धीर गम्भीर
समझावन के बीच यकायक माँ किसी बच्चे को दुलराने लगती थी। साँवरी के दाँत चमक उठे
और मैंने कहा - बस, बस ... मेघ बरसने लगेंगे। बाढ़ से मुक्त हुये अभी अधिक
दिन नहीं हुये।
वह सहसा चुप
हो गयी और मैंने मन में उपमा गढ़ी - जैसे बादलों के बीच प्लेन का इंजन यकायक बन्द
हो जाय और वह नीचे धँसने लगे - सूँ sssss...
प्रकृतिस्थ
हो उसने कहा - कुछ अपने बारे में कहो जेंटिल ओल्ड मैन।
मैंने
प्रतिवाद किया - ओल्ड कहना आवश्यक था?
उसने
मुस्कुरा कर उत्तर दिया - हाँ, नहीं होते तो मैं तुमसे बातें कर रही होती?
बताओ, कहाँ से कहूँ?
अपने ब्याह
से।
हैं?
हैं नहीं हाँ। चलो, बढ़ो।
हैं नहीं हाँ। चलो, बढ़ो।
कुछ खास
नहीं। कॉलेज में था तभी हो गया था।
हैं, हैं, हैं ... लभ्भ
मैरिज? द ग्रेट ओल्ड
मैन - उसने अपने वक्ष आगे कर होठों पर हाथों से मूँछों की भंगिमा बनाई।
न्न रे, मैं मनहूसियत की सीमा तक मासूम था। सभी यौवनाओं का छोटा भाई। सोच कर ही हँसना आता है।
इसमें हँसने की क्या बात हुई?
न्न रे, मैं मनहूसियत की सीमा तक मासूम था। सभी यौवनाओं का छोटा भाई। सोच कर ही हँसना आता है।
इसमें हँसने की क्या बात हुई?
हाँ, रोने की बात
है।
रोने की भी
नहीं है। आगे, आगे क्या, कैसे हुआ?
कुछ नहीं।
हमलोग बचपन में ही ब्याह दिये गये थे। सयाना हुआ तो उसे ले आया, गवना कहते
हैं हमारे यहाँ।
उत्सुकता में उसकी आँखें और काली हुईं थीं या नहीं लेकिन मुझे तो लगीं। वह उठ खड़ी हुई - वाह भइ वाह ... सुनो सुनो, सुनो इक प्रेमकहानी। लब्भ लेटरी। खूब चिट्ठीबाजी होती होगी?
उत्सुकता में उसकी आँखें और काली हुईं थीं या नहीं लेकिन मुझे तो लगीं। वह उठ खड़ी हुई - वाह भइ वाह ... सुनो सुनो, सुनो इक प्रेमकहानी। लब्भ लेटरी। खूब चिट्ठीबाजी होती होगी?
नहीं रे, उस आयु में
यह सब कहाँ हो पाता? जब तक समझ आती, तब तक घर का बूढ़ा अपनी पगड़ी बेटे के सिर पर रख हुक्का गुड़गुड़ाने
चल दिया होता।
ऐसा क्या? ...तुम्हारे
बाबा कब...?
उसने वाक्य
अधूरा छोड़ दिया और मैं बमक उठा - मरे तुम्हारा बाप। मेरा अभी भी जीवित है और तुम
जैसियों को आज भी अपनी मूँछों में बाँध कर नचा सकता है!
“सॉरी बाबा, सॉरी।
उनको मेरी आयु के भी दसेक बरस लग जायें। बताओगे भी कि क्या करते हो?”
“तुम्हारी ही
तरह नौकर हूँ। ऊब कर यहाँ भाग आया।”
“मैं ऊब के
लिये नहीं, खूब के लिये आयी हूँ।”
मैंने पूछा –
खूब?
यस, टू अचीव स्टेट
ऑफ फुलफिलमेंट। तुम भी यहाँ इसीलिये हो। हम सभी अपने खालीपन को भरने को व्याकुल
कोटर भर हैं – उसका गम्भीर उत्तर था जो मुझे आतंकित कर गया।
जैसे किसी खंडहर
के वृहद रखरखाव कार्यक्रम के दौरान हुई पुताई ने पुराना भले छिपा दिया हो लेकिन वह
जहाँ तहाँ से झाँक रहा हो। उसकी हिन्दी वैसा
ही प्रभाव दे रही थी। मैं आतंकित सा हो रहा था – कोई छलना तो नहीं?
पूछ बैठा –
तुम्हारी हिन्दी ...? उसकी आँखों की हँसी ने आगे पूछने नहीं दिया।
प्रस्तावना तो
लम्बी दे सकती हूँ लेकिन समय नहीं है, कहते हुये वह पास खिसक आयी। मैंने भी पार्श्व
में खिसक उसके कन्धे पर अपना सिर रख दिया, झुरझुरी का अनुभव मुझे हुआ लेकिन देह
कौन सी, अलग नहीं कर पाया। हम दोनों क्षितिज देखने लगे, अचकचापन छिपाने को इससे अच्छा
क्या हो सकता था?
तनिक विराम
के पश्चात उसने जारी रखा – हमलोग मूलत: गोवा से थे। पापा की पोस्टिंग बनारस में थी।
सागर किनारे से गंगातीरे का यह संयोग ऐसा था कि मुझे आज भी लगता है दुबारा नहीं
हुआ होगा। मेरा बचपन गंगा के रामनगर तट की बालुका में खेलते बीता, नाव तो नाव, कई बार
तैर कर भी उस पार पहुँच जाती। पापा अजातशत्रु थे लेकिन एक दिन पता नहीं क्यों, किसने,
पुलिस आज तक पता नहीं लगा पाई, उन्हें काशी स्टेशन पर गोली मार दी। टिकट मैं ही ले
आई थी, कैंट स्टेशन पर मैंने ही विदा किया था...
...मौन कितना
लम्बा खिंच सकता है? कितना भी लेकिन मृत्यु इतना नहीं। आँसू मृत्यु के तनाव को बहा
देते हैं और हम व्यर्थ ही समय को श्रेय देते हैं।...मुझे ‘उसकी हिन्दी’
समझ में आ गई थी।
उसने एक बार
मुझे भरपूर निहारा जैसे कुछ पढ़ सी रही हो और पुन: उस क्षितिज की ओर हो गई जो अब था
ही नहीं – सबके पास संघर्ष की कोई न कोई कहानी होती ही है। तुम्हें सुना कर बोर
नहीं करूँगी। ‘जया और मरुधर’ पर मेरी प्रतिक्रिया तुम्हें सता रही होगी, सुनाती
हूँ कि ऐसा क्यों है?
इस बार उसने
मेरा सिर खींच कर अपने कन्धे पर टिका लिया – रखे रहो, भरोसा होता है... पुरुष समाज
में स्त्री अवचेतन में तीन पुरुषों की कामना रखती है, पिता, भाई और संगी। पुरुष कितनों
की रखते हैं, मुझे नहीं पता। क्यों रखती है, बताना मेरे वश का नहीं। तीनों अलग अलग
हों, कोई आवश्यक नहीं। कभी कभी वह निरे रक्त सम्बन्ध और बॉयोलॉजी से बहुत आगे
बढ़ जाती है। किसी एक में तीनों मिल जायँ तो उससे अच्छी बात कोई हो ही नहीं सकती।
न, न, सिर न हटाना,
उसी के सहारे तो कह रही हूँ। इस समय तुम तुम नहीं, मेरा आरोपण हो।
जया के पिता उसके
बचपन में ही चल बसे थे, यह कहें कि वह इतनी छोटी थी कि उसे स्मृति ही नहीं तो अतिशयोक्ति
न होगी। मरुधर में उसकी खोज पूरी हुई। संसार किसे अवैध सम्बन्ध कहता है, वह संसारातीत
होता है, सम नहीं विषम किंतु सम को समोये। संसार रखैल और कुलटा कहता है तो वह उसके
मानक होते हैं लेकिन उनका क्या जो उन मानकों से अपने को परे रखते हैं? एकाध बजर ढींठ
हो जाते हैं, परवाह नहीं करते। जया और मरुधर भी, उन्हीं में से एक ...
... घिरती साँझ
और पीली हो चुकी थी। दूर कहीं गेरुवा काला हो रहा था और मैं अपनी पूरी देंह को
भिगोते स्वेद का अनुभव कर रहा था। सिर उठा कर देखा और पुन: रख दिया। तट पर दीप्त होते
एकाध लट्टुओं की पृष्ठभूमि में किलोल करते घूमते लोग आँखों में स्थिर हो गये। सिर ही
नहीं सब कुछ स्थिर था। कैसी चलती फिरती स्थिरता थी! जाने कब उसके कन्धे भीगे होंगे।
मुझे नहीं पता कि मेरे आँसू थे या दो देहों के स्वेद, इतना याद है कि उसने अपने
कन्धे और मेरे सिर के बीच अपनी हथेली लगा दी थी। उसके कहे नारियल पयोधर और हाथ की सोच मैं सिहर उठा, मेरा
सिर!...
मैं लेट गया
और वह मुझे थपकी सी देने लगी – आगे और सुनोगे?
“हूँ”, मैंने
बच्चे सी हुँकारी भरी।
“संगी ढूँढ़ ली
हूँ, भाई और पिता की खोज ने मुझे डेटिंग पर विवश किया। कन्यादान के लिये ये दोनों चाहिये
न। तुम किसलिये यहाँ हो, जानती हूँ। सोचो कि महानगर में एक आधुनिक कुमारी बाप और बीर
कैसे ढूँढ़ पाती? नियति के तार में कोई कोई अपने आप से नहीं जुड़े होते, जोड़ने पड़ते
हैं। सोचो कि वैसा विचित्र प्रोफाइल नहीं देती तो तुम कैसे मिलते? ... हो सकता है
कि तुम अभी तक उबर न पाये हो लेकिन मेरा मन कहता है कि तुम्हारा मन समझ गया होगा। तुम
यहाँ नर मादा सम्बन्ध के लिये तो नहीं आये थे न?”
मैं ने
हुँकारी भर दी।
“तुम साइट पर
परिपाटी से परे एक नितांत अपने वाले की खोज में रैण्डम आजमाने गये थे और मैं मिल
गई। लकी हो या नहीं?”
मैंने पुन:
हुँकारी भर दी।
“मैं भी लकी
हूँ। ... अपने को कहाँ फिट पाते हो? बताओ?”
साँझ अब साँझ
नहीं रह गयी थी। लट्टुओं ने गतर गतर उदास उजाला छिड़क दिया था और मैं गढ़ुवाये आकाश में
आकार ढूँढ़ रहा था। लेटे ही लेटे मैंने उसे अपनी ओर खींचा और वह मुझ पर उतर आई। उसका
सिर हाथ में ले और निकट किया तो निकटता में परफ्यूम की धीमी गन्ध घुल गई। उसकी
साँसें दुधमुँहे बच्चे सी महक रही थीं। होठों से हट मैं मस्तक चूमने चला, लगा कि कुछ
अवांछित मन में है इसलिये हिचक है। जाने कहाँ से किसी मेक्सिकन फिल्म का दृश्य ध्यान
में आ गया जिसमें एक युवा पुत्र ने अपने पिता की मित्र से लजाते हुये कहा था – डैड
अभी भी मुझे होठों पर चूमते हैं!
मैंने खींच
कर सीने से लगा उसके होठ चूम लिये। दुधमुँही को जैसे जीवन मिल गया था।
...वापस आते हुये
उसने अपनी बाँह मेरी बाँह में फँसा दी, फेल्ट कैप को मेरे सिर से उतार अपने पर रख
लिया और यूँ सट कर सहारा लेते चलने लगी जैसे प्रेमी प्रेमिका चलते हैं। उसने चुहुल
की – योर फ्रेम फिट्स बेटर दैन योर फ्यूचर सन इन लॉ। इस अन्धेरे में जो देखेंगे कहेंगे
क्या जोड़ी है!
“बापू, कल
ठीक ठाक हुलिया बना पाँच बजे शाम को कन्नगी की प्रतिमा के पास आ जाना, भावी जामाता
से मिलना होगा। आना अवश्य नहीं तो देवी कन्नगी का शाप तुम्हारे पुहार की ऐसी तैसी
कर देगा।”
चेन्नई कडक्करइ
का लोकल रेल स्टेशन पास आ गया था। उसने कहा, यहीं ठहरो टिकट ले कर आती हूँ।
मैंने रोका -
रहने दो, मेरे पास मासिक टिकट है।
“तुम्हें
विदा भी तो करना है बापू! टिकट तो लूँगी ही। अगले स्टेशन पर फिर से मर मरा मत जाना।
बीर को भी तो ढूँढ़ना है।... हे, हे, हे। मजाक कर रही थी, अब टाइम नहीं ढूँढ़ ढाँढ़
की। तुम्हीं सब हो। फेमिली बनाने में और लेट नहीं करनी!”
उसने फेल्ट
कैप वापस मेरे सिर पर रख दिया और मैं टिकट की प्रतीक्षा में वहीं कर्ब पर बैठ गया।
नीचे समय की दबी हुई रेत थी – काशी की मीठी बालू, चेन्नई की नमकीन।
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- गिरिजेश राव