'बल्'
धातु का पाणिनीय अर्थ है प्राणने। 'प्राण' श्वास
है। श्वास जीवन है। जीवन अर्थात शक्ति। बल का अर्थ शक्ति इस कारण हुआ। श्वास को नियमन
द्वारा उच्च आयाम प्रदान करना प्राणायाम है। बैल बलीवर्द है, क्यों? क्यों
कि वह महत कार्य करने हेतु प्राणवान है, समर्थ
है।
बल्
धातु से ही बलि बनती है - बलिः [बल्-इन्]। बलि क्या है? अर्पण है, दान
है। किसका? प्राण का। माध्यम ऐसी वस्तु
हो जो प्राप्तकर्ता को प्राणवान बनाये, पुष्ट
करे। दान की अवधारणा ही भावना से जुड़ी है। देने वाले के भीतर प्राण समर्पित करने का भाव होना चाहिये। समर्पण
भाव कृतज्ञता से जुड़ कर पवित्रता और ऐश्वर्य का वाहक बनता है। यहीं बलि यज्ञ का रूप
ले लेती है। यजन् जोड़ने से सम्बन्धित है। समर्पित करने वाला और प्राप्त करने वाला दोनों
एक उदात्त भाव से जुड़ें तो यज्ञ है। पञ्चमहायज्ञों में दैनिक भूतयज्ञ भी सम्मिलित है।
वह क्या है? अन्न ग्रहण करने के पहले
सभी भूतों अर्थात जीवधारियों के लिये उनका अंश निकाल देना भूतयज्ञ है। गइया का कौरा,
चींटी का दाना, कौवे
की रोटी, अतिथि का भोजन, ये सब स्वयं के प्राण को पुष्ट करने वाले अन्न का ग्रहण करने
से पहले करना होता है। यह समूचे विश्व का ध्यान रखने वाला बलिवैश्व है। घरनी की रसोई
भी बलि का स्थान है। राजा को दिया जाने वाला कर भी बलि है क्यों कि वह राजा प्रजा दोनों
को प्राणवान करता है किंतु वही कराधान विकृत लिप्सा भाव से चलित होने पर हंता बन जाता
है।
यदि
आप यज्ञ और बलि के आङ्ग्ल अनुवाद देखेंगे तो sacrifice भी मिलेगा। चौंकिये नहीं, यह sacra धातु
से बना है जिसका सम्बन्ध देवता के आगे पवित्र समर्पण से है।
यह
तो स्पष्ट हो गया होगा कि बलि क्या है? किंतु
अब बलि का अर्थ पशु वध ही लिया जाने लगा है। ऐसा क्यों है? जब आप किसी व्यवहार का बारम्बार निषेध करने लगते हैं तो वह
निषिद्ध आचरण रूढ़ अर्थ ले शब्द के साथ जुड़ जाता है। यदि साथ में अन्य आचारों का विलोप
हो तो रूढ़ि और पक्की हो जाती है। बलि के साथ यही हुआ। कितने जन प्रतिदिन बलिवैश्व कर्म
करते हैं? वह भी बस करने के लिये नहीं,
यज्ञ और पुष्टिदायी समर्पण भाव के साथ? उत्तर स्पष्ट है।
देव
को अर्पण के लिये आहार योग्य पशुओं का वध बहुत पुराना है जिसका सम्बन्ध आखेटचारी जन
से है। जो आहार करते, वही देव को अर्पण करते,
पूरी निष्ठा और श्रद्धा के साथ। उससे भी बहुत पहले आदिम भय
का भाव रहा लेकिन तब भी बलि देते समय जीभ की स्वादेच्छा पूर्ति गौण रही। ध्यान देंगे
तो पायेंगे कि इन पशुओं की पूजा भी की जाती रही और सामान्यतया भी उनके साथ व्यवहार
बहुत स्नेहिल रहा। देव अर्पण हेतु वध करते समय जिह्वा का स्वाद नहीं, श्रद्धा निर्देशित करती रही। ऐसा अर्पण आराधक और आराध्य दोनों
को पुष्ट करता है। इसे ही कहते हैं कि देवता मनुष्य की हवि पा तुष्ट और पुष्ट होते
हैं।
वैदिक
पद्धति के समांतर समकालीन ऐसी पद्धतियाँ रहीं किंतु दूध दही, मधु, कन्द,
मूल, फल,
उन्नत कृषि से उत्पन्न अन्न का आहार करने वाले वैदिक जन के
लिये बलि हेतु पशु का वध त्याज्य ही रहा। पूरा वैदिक वाङ्मय पशु वध के निषेध से भरा
पड़ा है। कुछ लोग पुराने शब्दों के पशु वध सम्बन्धित अर्थ निकालते हुये तर्क देते हैं।
वे भूल जाते हैं कि उत्कृष्ट सांगीतिक छन्दों के सम्पूर्ण दीर्घजीवी तंत्र हेतु जो
उन्नत सभ्यता चाहिये होगी, वह
कृषि व्यापार में भी बहुत आगे होगी। ऐसा भारत के नदी जल पूरित समतल क्षेत्र में ही
सम्भव है। ऐसे रचनाकर्म हेतु ठहराव आवश्यक है जो पशुचारी समाज या बीहड़ क्षेत्रचारी
जन के लिये सम्भव नहीं है। ऋषि आश्रमों के अनगिनत उल्लेख और उनके प्रमुख केन्द्र होने
के तथ्य सब कुछ स्थापित और स्पष्ट कर देते हैं।
समतल, उपजाऊ और जलसमृद्ध क्षेत्र में विकसित सभ्यता शाकाहार की ओर ही प्रवृत्त होती है। यहाँ जो मांसाहारी हैं,
वे प्रतिदिन दोनों समय मांसाहार नहीं करते। पशु वध त्याज्य
होने के पीछे उसका क्रन्दन है, रक्त
की वह धार है जो अपनी धमनियों में भी दिखती है। एक सुस्थापित व्यवस्था के पुरोहित और
यजमान के लिये पशुबलि के समय समर्पण और प्राणपोषण का भाव रखना सम्भव ही नहीं। बलिदान
का 'दान' ही उस निषेध के नेपथ्य में है।
तो
क्या पशुबलि न दें? ऊपर जो भी कहा वह निगम का
पथ है। सहस्रो वर्ष की अपनी यात्रा में सनातन ने आगम अर्थात इतर मार्ग भी स्वीकारे
हैं। शाक्त और तंत्र भी उनमें हैं जो प्रभावी रहे और आज भी हैं। मास के साथ मांस भी
उनके अनुयायियों के लिये अन्न है। उसका अर्पण यदि वे देवी को करते हैं तो उसके पीछे
जो भाव रहते हैं वही महत्त्वपूर्ण हैं। उच्च भाव रखने वाले प्रतिदिन पशुबलि नहीं देते,
कतिपय अनुष्ठानों में देते हैं। वे मांसाहारी भी प्रतिदिन मांसाहार
करने वाले नहीं हैं। उनके प्रति या उनकी उपासना पद्धति के प्रति तिरस्कार का भाव विनाशक
होगा क्यों कि वह जोड़ने वाला यजन् नहीं तोड़ने वाला भंजन होगा।
पशुबलि
का निषेध और शाकाहार ये दो समतल भूमि पर संतुलन के साथ रहते जन के लिये आदर्श हैं।
आदर्श का प्रसार होना ही चाहिये, उसकी
प्राप्ति के लिये तप भी होने चाहिये किंतु अतिरेकी हो अपने ही समाज के पैर पर कुल्हाड़ा
चलाया जाना भी रोका जाना चाहिये। जन रहेंगे, संगठित और बली रहेंगे तो देव और देवता भी रहेंगे, आस्था और जीवनमूल्य भी बचे रहेंगे अन्यथा रक्त देखते ही वमन
करने वाले कोमल जन के लिये बर्बर रक्तपिपासु शत्रुओं के आगे घुटने टेक आत्महत्या ही
परिणति होगी।