वैचारिक और सांस्कृतिक प्रभुत्त्व योजनायें बहुत ही सूक्ष्म
स्तर पर काम करती हैं। केन्द्र में रहना महत्त्वपूर्ण होता है और बहुत बार पक्ष और
विपक्ष दोनों एक ही होते हैं। काल की गति को नये आयाम देने वाले यह खूब समझते हैं
और तदनुसार कार्य करते हैं।
मलिक मुहम्मद जायसी अवधी सूफी कवि था जिसने 'पद्मावत' की रचना 1597
वि. में की। वह समय सूरों के राजनीतिक प्रभुत्त्व का था लेकिन मुग़ल
चुप नहीं बैठे थे। राजनैतिक स्तर पर इस्लाम और इस्लाम आमने सामने थे। सांस्कृतिक
स्तर पर सूफियों के माध्यम से इस्लाम का जय अभियान चरम पर था। जायसी ने अपने
महाकाव्य के लिये ऐसा कथानक चुना जिसके मूल में हिन्दुत्त्व का वह सत्त्व था जिसने
आक्रांताओं की लिप्सा के आगे ढाल की तरह काम किया था। 'सती'
स्त्री और उसके सम्मान के लिये मर मिटने वाले 'पुरुष'। यह एक ऐसा आदर्श था जो अपने आप में अनूठा
है।
सतीत्त्व की प्रशंसा और महिमामण्डन के साथ ही भाषा
काव्य के माध्यम से आम जन के मन में इस्लाम के छद्म रूप की पैठ बनाने के अपने
प्रयास में उसने वही किया जिसकी नींव अमीर खुसरो ने डाली थी। लोकछन्द दोहा और
चौपाई में सांगीतिक काव्य के माध्यम से उसने पद्मावती की यश गाथा का वर्णन किया
लेकिन अपने इस्लाम को नहीं भूला जिसका आभासी रूप निखार कर उसकी सांस्कृतिक रूप से
स्वीकार्यता सुनिश्चित करनी थी - होंगे चित्तौड़ के रणबाँकुरे वीर बहादुर, सहस्रों सुलक्षणा और सुमतिशील नारियों
सहित होंगी नागमती और पद्मावती जैसी जौहर आत्मायें किंतु हिन्दुओं! यह सब होने पर
भी, तुम्हारा पराभव हुआ और होना ही है।
हिन्दू सनातनी प्रतिरोध के रूप में चित्तौड़ की
प्रतिष्ठा समूचे उत्तर में थी। सुदूर पूरब में वहाँ की भाषा में जायसी ने जब लिखा
कि 'बादसाह गढ़ चूरा, चितउर भा इसलाम' तो उसने भली भाँति अपना मंतव्य
स्पष्ट कर दिया।
गीत, संगीत, काव्य सुमधुर होंगे, कर्णप्रिय
होंगे, अभिनय उत्कृष्ट होगा, सेट उत्तम
होंगे किंतु इनके साथ छिपे विष अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। नये भारत में जब 'मुग़ल-ए-आज़म' के समांतर 'अनारकली'
बनायी जाती है तो बात वही होती है - 'पक्ष
विपक्ष दोनों हम होंगे, हम ही केन्द्र में होंगे। विषय हमारा
होगा क्यों कि हमारा सांस्कृतिक प्रभुत्त्व है।' स्पर्धा में
'नल दमयंती' पर फिल्म नहीं बनी न?
उस समय से वे अब यहाँ तक पहुँच चुके हैं जहाँ
सांस्कृतिक पराभव पूर्ण है और कलात्मक छूट के नाम पर कुत्सा स्वीकार्य हो चली है।
ये नये समय के सूफी हैं। उनका विषय चयन ही बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है।
प्रश्न यह है कि समाधान क्या हो? समाधान भी भारत के इतिहास में ही है।
पद्मावत के मात्र 36 वर्ष पश्चात ही उसी अवध क्षेत्र के एक
अकिञ्चन कवि ने पुरुषार्थ प्रतीक महाबली मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और परम सती
प्रात: स्मरणीया भगवती सीता की गाथा को उसी भाषा अवधी और उन्हीं दोहा चौपाई छन्दों
में ऐसा उकेरा कि वह कृति जन जन की मानस हो गई। जायसी के मधु-विष का मधु-अमृत से
उपचार करता रामबोला एक पग आगे बढ़ गया। जायसी गाँव गाँव अपना काव्य सुनाता था लेकिन
रामबोला तुलसीदास ने तो पूरी काशी को रामलीला का क्षेत्र बना दिया!
नाट्य और मंचन तब के सिनेमा थे, जन जन का मनोरञ्जन करते थे। तुलसी ने
उनका प्रयोग कर सूफियाने को पटकनी दे दी। आज पद्मावत केवल अकादमिक स्तर पर पढ़ी जा
रही है जब कि रामचरितमानस जन जन की कण्ठहार है।
सामान्य जनता को तो मनोरञ्जन चाहिये, वह तो दंगल या रईस देखने जायेगी ही।
करना प्रबुद्ध जन को है कि केन्द्र में उसे ले आयें जो वरेण्य है जो विष का
एण्टीडोट ही नहीं, उसका नाशक भी है। जनता अपनायेगी। यक्ष
प्रश्न यही है कि सूफी भंसाली के समान्तर सनातन समृद्धि क्यों नहीं खड़ी हो पा रही?
किसने रोका है पटकथा लिखने से? किसने रोका है
प्रचुर धन लगा कर समान्तर चित्तौड़ महागाथा को सेल्युलाइड पर उतारने से?
प्रश्न यह है कि आज तक विराट भव्यता के साथ सनातन
गौरव विषय सेल्युलाइड पर क्यों नहीं उतारे जा सके? क्या मुग़ल समय से भी स्थिति बुरी है?
रूदन छोड़ उठिये, कुछ कीजिये। विषाणु तो सर्वदा रहेंगे, आप का आयुर्वेद ज्ञान कहाँ छिपा है? देखना चाहते हैं कि 'मलिक' 'मोहम्मद' ने सती प्रसंग को कैसे रचा है? पढ़िये और सराहिये।
सराहने योग्य है लेकिन इसमें छिपे विष का कुछ कीजिये।