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रविवार, 2 अप्रैल 2017

काशी स्फुट



महादेव के त्रिशूल पर बसी प्रकाशनगरी काशी कसौटी पर कसने में किसी को नहीं छोड़ती, बड़ी निर्मम है। मुझे तो लगता है कि काशी में रहना अर्थात दैहिक, दैविक, भौतिक तापों को दिन प्रतिदिन सहने के साथ आनन्दमग्न रहना। त्रिशूल तीन ताप हैं और महादेव आनन्द। इसका एक पुराना नाम आनन्दवन ऐसे ही नहीं है।  
काशी की एकाध गालियाँ कुछ वर्षों से प्रसिद्ध की जाती रही हैं किंतु वे काशी की पहचान नहीं रहीं। जो घुल कर सामान्य हो जाये उससे क्या पहचान समझना? अपरिचितों को चौंकाने के लिये भले साहित्यकार मिर्च मसाला लगा परोस दें, गालियाँ काशी की पहचान नहीं, सकी जान का एक न्यून भाग बस हैं।
काशी की पहचान अद्भुत लक्षणा और व्यञ्जना युक्त 'काशिका' से है। काशिका बानी न होती तो काशी अपने परिवेश से, बाकी संसार से अलग नहीं होती, न कबीर होते और न तुलसी। काशिका निवासियों और प्रवासियों को दैनन्दिन माँजती है, कुछ घिस जाते हैं, कुछ रोचन हो प्रकाशित हो उठते हैं। मुझे नहीं पता कि काशी की इस विशेषता पर किसी ने लिखा है या नहीं किंतु काशिका ही काशी को अनूठी बनाती है।
‘मर्दनं वर्द्धनं’ सूत्र के तीनों शब्दशक्तियों वाले प्रयोग यहीं दिखते हैं, बानी से ही नहीं, हर तरह से रगड़ने में यह नगरी प्रवीण है। वर्तमान काल में देखें तो यहाँ 'बियच्चू' में आलोचना प्रवीण को ‘नमवरवा’ कहते हुये उसी साँस में विद्यानिवास मिसिर को ‘विद्याबिनास’ की संज्ञा से विभूषित करते गालीबाज सहज ही मिल जायेंगे। उनके लिये वे पान की पीक से अधिक महत्त्व नहीं रखते, भले अपने में उतना भी पानी न हो!
गन्दे पात्र को स्वच्छ कर चमकाने वाले उकछन का दायित्त्व काशी निर्वहन करती रही है। पहली बार पहुँचने पर  काशी का वही उकछनी रूप सामने दिखता जुगुप्सा जगाता है किंतु कुछ बरस घुल जाने पर समझ में आता है कि काशी का विरूप ही तो रूप गढ़ता रहा है।
अध्यात्म में कुछ नया करने की इच्छा रखने वाले काशी के इसी मार्जनी रूप से आकर्षित हो यहाँ धूनी जमाये रहे। जिनकी नवोन्मेष की अपनी कसौटी निर्मम रही उन्हों ने स्वयं को इसे सौंप दिया। इसका मध्यकाल में तुलसीदास से अधिक अच्छा उदाहरण नहीं मिल सकता। बहुत ही प्रौढ़ आयु में ‘रामचरितमानस’ रचे जाने के पूर्व तुलसीदास ने जो झेला वह सब विनयपत्रिका और कवितावली में यत्र तत्र बिखरा हुआ है। ये दो कृतियाँ भर नहीं, काशी की चोट से रोते बिलबिलाते तुलसीदास के नयनों से निकसी गङ्गा के सञ्चय भी हैं।
‘धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ’ में एक बैरागी का उपेक्षा भाव तो है ही, उसके पीछे छिपी वह मर्मांतक पीड़ा भी है जो स्वयं के लिये ‘कुलटा ब्राह्मणी की कोख से उपजी राजपूत संतान’ की 'काशिका वृत्ति' सुनने से उपजी थी। ‘वाल्मीकि का अवतार’ कहे जाने से पूर्व तुलसी ने जाने कितनी बार ‘बड़ा बलमीक बनत हौ सरवा, एकर जनमपतरी देखे के परी’ भी झेला। वाणी प्रहार ही नहीं, तुलसी ने प्राण हर लेने के लिये आक्रमण से लगाई मारण तांत्रिक प्रयोग तो झेले ही, यहाँ के ठगबुद्धि पण्डितों के शास्त्रार्थ भी झेले ठगों का शासन दिल्ली में आज है किंतु ‘राजाविहीन’ काशी तो अपने ठगों के लिये युगों युगों से प्रसिद्ध रही जो मात्र आँखों आँखों ही 'काजल चुराने' से ले कर 'बलात्कार' तक के युक्तिमहारथी थे।   
सबको झेल, दारुण परीक्षा की आग से जब कुन्दन रूप हो तुलसी निकले तो इसी काशी ने उन्हें दैवीय रूप देने में कोई झिझक नहीं बरती। कथायें गढ़ने में निष्णात समाज ने 'मानस' की श्रेष्ठता स्थापित करने को विश्वनाथमन्दिर के गर्भगृह का कथानक तो रचा ही, शैव काशी में वैष्णवी 'रामबोला' के चलाये जाने कितने आचार अपना लिये। पहले का ‘वर्णसंकर’ ‘ब्राह्मणकुलशिरोमणि’ हो गया!
तुलसी के पश्चात हुये थे प्रकाण्ड पण्डित जगन्नाथ। किम्वदंति है कि शाहजहाँ के दरबार में उन्हों ने धर्मध्वजा को ऊँचा किया। वही प्रतिष्ठित विद्वान जगन्नाथ जब मुस्लिम स्त्री लवंगी को ब्याह कर काशी आये तो बहिष्कृत हो गये। ढेर सारे प्रयासों, शास्त्रोक्त (?) प्रायश्चित्त के पश्चात भी काशी की रगड़ वही रही। अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्हों ने वर्ष के 52 सोमवार या शुक्रवार दिनों जितना लम्बा कोई व्रत भी किया होगा किंतु काशी नहीं पसिजी तो नहीं पसिजी! अंतत: 52 छन्दों की ‘गङ्गा लहरी’ रचने के पश्चात पण्डित ने पत्नी के साथ गङ्गा मया में जलसमाधि ले ली।
काशी की पुरबिया चेतना ने वैसे ही प्रायश्चित किया जैसे तुलसी के समय किया था – दैवीयता के कथा सृजन द्वारा। अंतर यह रहा कि तुलसी बाबा तो बच गये थे किंतु जगन्नाथ बाबा को अपने प्राण निछावर करने पड़े। 
अब कथा ऐसे चलती है कि दोनों गङ्गा किनारे बैठ स्तोत्र गाने लगे। हर स्तोत्र छन्द पर मइया एक एक सींढ़ी बढ़ती गईं और 52 वीं पर दोनों को अपनी गोद में ले लिया। मइया ने कहा कि तुम्हारी प्रतिष्ठा तो अब इस चमत्कार से वापस हो गई है, तुम समाज में वापस ले भी लिये जाओगे। कहो तो तुम दोनों को वापस तट पर जीवित फेंक दूँ? पण्डित ने कहा कि अब तुम्हारी गोद छोड़ संसार में नहीं जाना, हमें अपने भीतर स्थान दो और माँ ने पुत्र की प्रार्थना स्वीकार कर ली!
आप काशी वाले से पूछेंगे कि ये बताओ, वहाँ 52 छन्दों को यथावत लिख कर सुरक्षित करने वाला कौन बैठा था? और घाट पर सीढ़ियाँ तो मराठों ने बनवाईं!, तो उत्तर मिलेगा बुजरो के, का जनब? बड़े आये बिद्वान!’   
काशी में आये हैं, साधारण मनुष्य हैं तो काशी वालों से और इस नगरी के परिवेश से भी सतर्क और सावधान रहिये।  अधिक वर्ष नहीं बीते जब गर्वी दयानन्द सरस्वती को शास्त्रार्थ में हराने के लिये कोई और उपाय न देख यहाँ के पण्डितों ने औपनिषदीय संस्कृत में आशु प्रमाण रच दिया था!   
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देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥ 1 ॥
भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः ।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2 ॥
हरिपदपाद्यतरङ्गिणि गङ्गे हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गे ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3 ॥
तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम् ।
मातर्गङ्गे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ 4 ॥
पतितो द्धारिणि जाह्नवि गङ्गे खण्डित गिरिवरमण्डित भङ्गे ।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥ 5 ॥
कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।
पारावारविहारिणिगङ्गे विमुखयुवति कृततरलापाङ्गे ॥ 6 ॥
तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः पुनरपि जठरे सोपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुङ्गे ॥ 7 ॥
पुनरसदङ्गे पुण्यतरङ्गे जय जय जाह्नवि करुणापाङ्गे ।
इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ 8 ॥
रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥ 9 ॥
अलकान्दे परमान्दे कुरु करुणामयि कातरवन्द्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुण्ठे तस्य निवासः ॥ 10 ॥
वरमिह नीरे कमठॊ मीनः किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥ 11 ॥
भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो यः स जयति सत्यम् ॥ 12 ॥
येषां हृदये गङ्गा भक्तिस्तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकन्ता पञ्झटिकाभिः परमानन्दकलितललिताभिः ॥ 13 ॥
गङ्गास्तोत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शङ्करसेवक शङ्कर रचितं पठति सुखी स्तव इति च समाप्तः ॥ 14 ॥
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शनिवार, 28 जनवरी 2017

रानी पद्मिनी, पद्मावत और रामचरितमानस

वैचारिक और सांस्कृतिक प्रभुत्त्व योजनायें बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर काम करती हैं। केन्द्र में रहना महत्त्वपूर्ण होता है और बहुत बार पक्ष और विपक्ष दोनों एक ही होते हैं। काल की गति को नये आयाम देने वाले यह खूब समझते हैं और तदनुसार कार्य करते हैं।
 मलिक मुहम्मद जायसी अवधी सूफी कवि था जिसने 'पद्मावत' की रचना 1597 वि. में की। वह समय सूरों के राजनीतिक प्रभुत्त्व का था लेकिन मुग़ल चुप नहीं बैठे थे। राजनैतिक स्तर पर इस्लाम और इस्लाम आमने सामने थे। सांस्कृतिक स्तर पर सूफियों के माध्यम से इस्लाम का जय अभियान चरम पर था। जायसी ने अपने महाकाव्य के लिये ऐसा कथानक चुना जिसके मूल में हिन्दुत्त्व का वह सत्त्व था जिसने आक्रांताओं की लिप्सा के आगे ढाल की तरह काम किया था। 'सती' स्त्री और उसके सम्मान के लिये मर मिटने वाले 'पुरुष'। यह एक ऐसा आदर्श था जो अपने आप में अनूठा है। 
 सतीत्त्व की प्रशंसा और महिमामण्डन के साथ ही भाषा काव्य के माध्यम से आम जन के मन में इस्लाम के छद्म रूप की पैठ बनाने के अपने प्रयास में उसने वही किया जिसकी नींव अमीर खुसरो ने डाली थी। लोकछन्द दोहा और चौपाई में सांगीतिक काव्य के माध्यम से उसने पद्मावती की यश गाथा का वर्णन किया लेकिन अपने इस्लाम को नहीं भूला जिसका आभासी रूप निखार कर उसकी सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्यता सुनिश्चित करनी थी - होंगे चित्तौड़ के रणबाँकुरे वीर बहादुर, सहस्रों सुलक्षणा और सुमतिशील नारियों सहित होंगी नागमती और पद्मावती जैसी जौहर आत्मायें किंतु हिन्दुओं! यह सब होने पर भी, तुम्हारा पराभव हुआ और होना ही है। 
 हिन्दू सनातनी प्रतिरोध के रूप में चित्तौड़ की प्रतिष्ठा समूचे उत्तर में थी। सुदूर पूरब में वहाँ की भाषा में जायसी ने जब लिखा कि 'बादसाह गढ़ चूरा, चितउर भा इसलाम' तो उसने भली भाँति अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया। 

गीत, संगीत, काव्य सुमधुर होंगे, कर्णप्रिय होंगे, अभिनय उत्कृष्ट होगा, सेट उत्तम होंगे किंतु इनके साथ छिपे विष अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। नये भारत में जब 'मुग़ल-ए-आज़म' के समांतर 'अनारकली' बनायी जाती है तो बात वही होती है - 'पक्ष विपक्ष दोनों हम होंगे, हम ही केन्द्र में होंगे। विषय हमारा होगा क्यों कि हमारा सांस्कृतिक प्रभुत्त्व है।' स्पर्धा में 'नल दमयंती' पर फिल्म नहीं बनी न? 

उस समय से वे अब यहाँ तक पहुँच चुके हैं जहाँ सांस्कृतिक पराभव पूर्ण है और कलात्मक छूट के नाम पर कुत्सा स्वीकार्य हो चली है। ये नये समय के सूफी हैं। उनका विषय चयन ही बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है। 
 प्रश्न यह है कि समाधान क्या हो? समाधान भी भारत के इतिहास में ही है। पद्मावत के मात्र 36 वर्ष पश्चात ही उसी अवध क्षेत्र के एक अकिञ्चन कवि ने पुरुषार्थ प्रतीक महाबली मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और परम सती प्रात: स्मरणीया भगवती सीता की गाथा को उसी भाषा अवधी और उन्हीं दोहा चौपाई छन्दों में ऐसा उकेरा कि वह कृति जन जन की मानस हो गई। जायसी के मधु-विष का मधु-अमृत से उपचार करता रामबोला एक पग आगे बढ़ गया। जायसी गाँव गाँव अपना काव्य सुनाता था लेकिन रामबोला तुलसीदास ने तो पूरी काशी को रामलीला का क्षेत्र बना दिया! 
 नाट्य और मंचन तब के सिनेमा थे, जन जन का मनोरञ्जन करते थे। तुलसी ने उनका प्रयोग कर सूफियाने को पटकनी दे दी। आज पद्मावत केवल अकादमिक स्तर पर पढ़ी जा रही है जब कि रामचरितमानस जन जन की कण्ठहार है। 

सामान्य जनता को तो मनोरञ्जन चाहिये, वह तो दंगल या रईस देखने जायेगी ही। करना प्रबुद्ध जन को है कि केन्द्र में उसे ले आयें जो वरेण्य है जो विष का एण्टीडोट ही नहीं, उसका नाशक भी है। जनता अपनायेगी। यक्ष प्रश्न यही है कि सूफी भंसाली के समान्तर सनातन समृद्धि क्यों नहीं खड़ी हो पा रही? किसने रोका है पटकथा लिखने से? किसने रोका है प्रचुर धन लगा कर समान्तर चित्तौड़ महागाथा को सेल्युलाइड पर उतारने से? 

 प्रश्न यह है कि आज तक विराट भव्यता के साथ सनातन गौरव विषय सेल्युलाइड पर क्यों नहीं उतारे जा सके? क्या मुग़ल समय से भी स्थिति बुरी है?
 रूदन छोड़ उठिये, कुछ कीजिये। विषाणु तो सर्वदा रहेंगे, आप का आयुर्वेद ज्ञान कहाँ छिपा है? देखना चाहते हैं कि 'मलिक' 'मोहम्मद' ने सती प्रसंग को कैसे रचा है? पढ़िये और सराहिये। सराहने योग्य है लेकिन इसमें छिपे विष का कुछ कीजिये। 


शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

रामजन्म, सहस्रो वर्ष और चार कवि

श्रीराम जन्म का वर्णन वाल्मीकि से प्रारम्भ हो मराठी भावगीत तक आते आते आह्लाद और भक्ति से पूरित होता चला गया है। भगवान वाल्मीकि बालकाण्ड में संयत संस्कृत वर्णन करते हैं:
कौसल्या शुशुभे तेन पुत्रेण अमित तेजसा |
यथा वरेण देवानाम् अदितिः वज्र पाणिना || १-१८-१२
जगुः कलम् च गंधर्वा ननृतुः च अप्सरो गणाः |
देव दुंदुभयो नेदुः पुष्प वृष्टिः च खात् पतत् || १-१८-१७
उत्सवः च महान् आसीत् अयोध्यायाम् जनाकुलः |
रथ्याः च जन संबाधा नट नर्तक संकुलाः || १-१८-१८
गायनैः च विराविण्यो वादनैः च तथ अपरैः |
विरेजुर् विपुलाः तत्र सर्व रत्न समन्विताः || १-१८-१९
माता कौशल्या अमित तेजस्वी पुत्र के साथ कैसे शोभायमान हो रही हैं? जैसे देवताओं में श्रेष्ठ इन्द्र के साथ उनकी माता अदिति शोभती हैं। गन्धर्व मीठे स्वर में गा रहे हैं, अप्सरायें नृत्य कर रही हैं, देवता दुन्दुभि बजा रजे हैं, आकाश से पुष्पवर्षा कर रहे हैं। अयोध्या में महान उत्सव है। वीथियाँ जनसमूह से भर गई हैं, नट और नर्तकों के समूह उनमें घुल मिल गये हैं। रत्न जटित पथों पर एक दूसरे में मिले जुले कलाकार और दर्शक शोभा पा रहे हैं।
पिता के रूप में राजा दशरथ का मोद बन्दी, मागध, सूत और ब्राह्मणों को धन और सहस्र गायों के दान में अभिव्यक्त होता है।
यह वाल्मीकीय रामायण के वर्तमान रूप में मिलता है। ढेरों उपलब्ध पाण्डुलिपियों की तुलना के पश्चात, जिनमें कि एक हजार वर्ष से भी अधिक पुरानी है, जो विक्रमादित्य के समय के आस पास का पाठ (बड़ौदा संस्करण, महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय)  निर्धारित किया गया उसमें पहले श्लोक को छोड़ कर बाकी हैं ही नहीं। अदिति और इन्द्र की उपमा से स्पष्ट है कि वैदिक प्रभाव प्रबल है, विष्णु वाल्मीकि के यहाँ इन्द्र के छोटे भाई कहे गये हैं। आख्यान का आदिकाव्य संस्करण एक धीर गम्भीर ऋषि सा रूप लिये हुये है।  
 विक्रमादित्य से लगभग नौ सौ वर्षों पश्चात ऋषि कम्बन ने तमिळ में रामकथा रची और उत्सवी आह्लाद छलक उठा। वन प्रांतर के चित्रण में जो लाघव और भव्यता वाल्मीकि दर्शाते हैं वही भव्यता नगर और लोकजीवन के चित्रण में कम्बन। महर्षि वाल्मीकि का काव्य तापस का अरण्यगान है जिसकी भव्यता ऋतावरी प्रकृति के चित्रण में उभर कर सामने आती है। कम्बन नागरगान करते हैं – चोल और चेर साम्राज्यों का सारा वैभव अयोध्यापुरी और उसके जन के चित्रण में उड़ेल देते हैं।
वाल्मीकि और कालिदास के काव्य यदि मिला दिये जायँ तो जो मिलेगा वह कंबन का काव्य होगा। अपने बारे में कहते हैं कि रामकथा को कहने का मेरा दुस्साहस वैसा ही है जैसे विराट लहरों के साथ घनघोर गर्जन करते क्षीरसागर के किनारे जा कर कोई बिल्ली दूध पीना चाहती हो!
अयोध्या की सरयू अपने प्रवाह में उसी अनुशासन का अनुकरण करती है जिसका वहाँ के निवासी पुरुषों के पंचेन्द्रिय बाण सन्धान और रत्नहारों से विभूषित युवतियों के कटाक्ष बाण सन्धान – ये दोनों तक सन्मार्ग से विचलित नहीं होते!
श्रीराम के जन्म के समय भूदेवी आनन्दित हुईं, पुनर्वसु नक्षत्र और कर्कट लग्न आनन्द से कुलाँचे भरने लगे।
कम्बन इन्द्र के स्थान पर उपेन्द्र विष्णु की अनोखी उपमा देते हैं। सद्गुणों की खान कौशल्या भूमा का अद्भुत रूप हो जाती हैं – गर्भ से उसे जन्म देती हैं जो अपने उदर में समस्त सृष्टि को लीन कर लेता है। उसके आने से संसार की विभूति बढ़ गई – सबको लीन करने वाला जो आ गया है!
राजा प्रसन्नता में सरयू में स्नान करते हैं, सारे बन्दी राजागण मुक्त कर दिये जाते हैं, सात वर्षों के लिये प्रजा को कर से मुक्त कर दिया जाता है, मन्दिरों, मार्गों और ब्राह्मण सदनों के नवनिर्माण की राजाज्ञा प्रसारित होती है।
श्रीराम जन्म और राजा के इन आदेशों की संयुक्त परिणति सात्विक विकार जनित देह लक्षणों की बाढ़ में होती है, आकाश और धरा एक हो जाते हैं – कैसे? पुलक के कारण नेत्रों से निर्झरिणी बह रही है और देह स्वेद से भर गई है। ऐसे वासंती समय में सुगन्धित तेल, चन्दन और कस्तूरी मिश्रित जल का छिड़काब वीथियों पर नागरिक कर रहे हैं। कम्बन लिखते हैं कि अवध की नारियाँ जिनकी कटि की तनुता और प्रभा तड़ित विद्युत सी है आनन्द सागर में डूब गयीं!
बिजली आकाश में चमकती है और सागर धरती पर हहरता है, पहले सृष्टि को अपने उदर में लीन करने वाले का भूमि पर अवतरण और अब यह, क्या कहें!
என்புழி, வள்ளுவர், யானை மீமிசை
நன் பறை அறைந்தனர்; நகர மாந்தரும்,
மின் பிறழ் நுசுப்பினார் தாமும், விம்மலால்,
இன்பம் என்ற அளக்க அரும் அளக்கர் எய்தினார்.
ஆர்த்தனர் முறை முறை அன்பினால்; உடல்
போர்த்தன புளகம்; வேர் பொடித்த; நீள் நிதி
தூர்த்தனர், எதிர் எதிர் சொல்லினார்க்கு எலாம்;-
'
தீர்த்தன்' என்று அறிந்ததோ அவர்தம் சிந்தையே?
பண்ணையும் ஆயமும், திரளும் பாங்கரும்,
கண் அகன் திரு நகர் களிப்புக் கைம்மிகுந்து, 
எண்ணெயும், களபமும், இழுதும், நானமும்,
சுண்ணமும், தூவினார் - வீதிதோறுமே.
लगभग सात सौ वर्षों के पश्चात अवध से काशी तक प्रसरित व्यक्तित्त्व वाले अवधी कवि हुये तुलसीदास – शुद्ध भक्त। रामचरितमानस को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं। कम ही लोग जानते हैं कि उन्हों ने कंबरामायण से भी प्रेरणा ली थी। इन लोकधर्मा कवि की दृष्टि राम जन्म के समय पर ठहरती है – मध्य दिवस है, न अधिक ठण्ढ है और न ताप, ऐसा पावन काल है जब लोक विश्राम करता है। लोकरंजक श्रीराम ऐसे समय में जन्म लेते हैं। यहाँ भी प्रवाह उमड़ता है, सरितायें अमृतधारा उड़ेलती हैं और दुन्दुभि नाद के बीच सुमन बरस रहे हैं। छ: ऋतुओं की गणना पंडित जन करें, यहाँ तो तीनो मौसम – जाड़ा, गरमी और बरसात सम पर आ गये हैं!  
भक्त की भावसरि भी उमड़ पड़ती है और जन्म होता है लोकप्रिय स्तुति आरती का – भये प्रकट कृपाला। महतारी हर्षित होने के पश्चात भक्ति से भर जाती हैं – इन्द्र और विष्णु के पश्चात साक्षात अवतार। वेदातीत अवतार कंबन के यहाँ भी है किंतु ऐसी भव्यता नहीं है। भक्ति के पश्चात आता है ज्ञान और जननी शिशु’लीला’ की प्रार्थना करती हैं – तुम परम हो, तुम्हें नमन है लेकिन मैं तुम्हें अपनी गोद में शिशु की तरह क्रीड़ा करते देखना चाहती हूँ। वाल्मीकि और कम्बन की उपमाओं में छिपा अव्यक्त रह गया मातृत्त्व तुलसी के यहाँ पूर्ण प्रगल्भ है और अवतार सुरबालक हो रोदन ठान लेते हैं – केहाँ, केहाँ। माता को तो बस इसकी ही प्रतीक्षा थी। तुलसी की लोकधर्मिता कंबन से आगे निकल जाती है!                
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा।।
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ।।
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा।।...
बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी।।
...

छं0-भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।।
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी।।
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता।।
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता।।
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै।।
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै।।
माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा।।
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।

समाचार जान राजा दशरथ भी पहले लौकिक पिता सा ही व्यवहार करते हैं किंतु उस पावन का पितृव्य भर इतना प्रभावी है कि पहले ब्रह्मानन्द और उसके पश्चात परमानन्द की लब्धि हो जाती है - पुलक गात भर मौन मति धीर। चेतते हैं तो बस यही कह पाते हैं – बजनियों को बुला कर बाजा बजवाओ! राजा नहीं, सामान्य लौकिक पिता का रूप निखर उठा है।
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना।।
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा।।
जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई।।
परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा।।
उसके पश्चात दिव्य पुष्पवर्षा है, शृंगार है, आरती नेवछावर है और हर्ष जनित चन्दन कुंकुम कीच काच।
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा।।
कम्बन के यहाँ 12 दिन आनन्द मग्न जनता को सुध नहीं रहती और तुलसी के यहाँ महीना भर ऐसे बीतता है कि पता ही नहीं चलता!
चार सौ वर्ष पश्चात प्रारम्भ में नववर्ष गुड़ि पड़वा के दिन प्रसारित करने की योजना वाली गजानन दिगम्बर माडगूळकर की गीत रामायण रामनवमी के दिन 1 अप्रैल 1955 को पहली बार आकाशवाणी से प्रसारित हुई, संगीत और मुख्य गायन थे प्रख्यात सुधीर फड़के के।
 भूप, भीमपलासी, मधुवंती, विभास आदि रागों पर आधारित इस गीतमाला में पुरुषोत्तममासी वर्ष के 56 सप्ताहों के लिये 56 गीत थे जिसमें समूची रामकथा गायी गयी। यह मराठी गीतरामायण जन जन का कंठहार हो गयी।
चैत्रमास, त्यांत शुद्ध नवमि ही तिथी
गंधयुक्त तरिहि वात उष्ण हे किती !

दोन प्रहरिं कां ग शिरीं सूर्य थांबला ?
राम जन्मला ग सखी राम जन्मला

कौसल्याराणि हळूं उघडि लोचनें
दिपुन जाय माय स्वतः पुत्र-दर्शनें
ओघळले आंसु, सुखे कंठ दाटला

राजगृहीं येइ नवी सौख्य-पर्वणी
पान्हावुन हंबरल्या धेनु अंगणीं
दुंदुभिचा नाद तोंच धुंद कोंदला

पेंगुळल्या आतपांत जागत्या कळ्या
'काय काय' करित पुन्हां उमलल्या खुळ्या
उच्चरवें वायु त्यांस हंसुन बोलला

वार्ता ही सुखद जधीं पोंचली जनीं
गेहांतुन राजपथीं धावले कुणी
युवतींचा संघ कुणी गात चालला

पुष्पांजलि फेंकि कुणी, कोणी भूषणें
हास्याने लोपविले शब्द, भाषणें
वाद्यांचा ताल मात्र जलद वाढला

वीणारव नूपुरांत पार लोपले
कर्ण्याचे कंठ त्यांत अधिक तापले
बावरल्या आम्रशिरीं मूक कोकिला

दिग्गजही हलुन जरा चित्र पाहती
गगनांतुन आज नवे रंग पोहती
मोत्यांचा चूर नभीं भरुन राहिला

बुडुनि जाय नगर सर्व नृत्यगायनीं
सूर, रंग, ताल यांत मग्न मेदिनी
डोलतसे तीहि, जरा, शेष डोलला

कैसा है रामजन्म? सुगन्धित और किंचित ऊष्ण वायु है। प्रकृति स्तम्भित है। कोई अपनी सखी से पूछती है – री, यह दूसरे पहर सूरज भी क्यों थम गये हैं? उत्तर मिलता है – क्यों कि राम का जन्म हुआ है! 
कवि माता की स्थिति का बहुत सूक्ष्म चित्रण करते हैं – हौले से माँ आखें खोलती हैं और निज जात के तेज से दीप्त हो जाती हैं, आँखों से सुख के आँसू उमड़ पड़ते हैं और गला रूँध जाता है। भाव संक्रामक है और समूची प्रकृति उद्वेलित हो उठती है। वात्सल्य से भरी गायें भी रँभाने लगी हैं। दुन्दुभि नाद है। सनसनाती वायु ने यह आनन्द भरा समाचार दिया है और धूप में कुम्हलाये पुहुप भी उत्सुकता में ‘काय काय’ करते पुन: खिल उठे हैं। लोक का मोद भी प्रकृति से जुड़ जाता है -  वाद्यांचा ताल मात्र जलद वाढला।
नूपुर धुनि वीणा के स्वर में घुलमिल गयी है। यह रव इतना मधुर है कि उसने आम के कुंज में छिपी कोकिला के कानों में पहुँच उसे भी बावरी बना मूक कर दिया है! उत्सवी वातावरण को देख दिग्गज भी धीमे धीमे डोलने लगे हैं, गगन नये रंग उड़ेल रहा है – जलद उमगे जो हैं! नभ मोतियों की प्रभा बिखेर रहा है। उत्सव में अयोध्या नगरी तो बूड़ ही गयी है, समूची मेदिनी भी सुर, ताल, यति और रंग से भर उठी है। धरती धीमे धीमे डोल रही है या शेषनाग मगन हो सिर हिला रहे हैं?  
 सहस्रो वर्षों से नित नवीन हो प्रवाहित होती रामकथा के ये चार भाषिक रूप इसकी लोकधर्मिता और सनातन जीवनशक्ति के परिचायक हैं। आप सब को रामनवमी की राम राम।