अपनी देसभाषाओं पर ध्यान
दीजिये, उनके शब्द प्रयोग पहचानिये जिनसे इतिहास झाँकता है। उत्तर प्रदेश के बस्ती
जिले में मुहम्मदियों के लिये प्रयुक्त 'तुरक' शब्द वैसा ही प्रयोग है।
साठ की वय पार करने के पश्चात खासी
पौढ़ी आयु में अमीर खुसरो ने ‘नूह
सिफिर’
लिखा (वही खुसरो जिसके नाम हिन्दू बलि बलि जाते हैं और जिसके कट्टर अनुयायी आज सोशल
मीडिया से ले कर विश्वविद्यालयों तक में गाते रहते हैं मानो वह न होता तो हिन्दी न
होती!)। जुमाद-स सानी 718
हि. (24 अगस्त 1318 ई.) को 4509
पंक्तियों वाली यह कृति पूरी हुई। नौ सिफिरों में बँधी इस कृति के आधार
पर इरफान हबीब से ले कर हिन्दू रायचन्दों तक ने खुसरो की बड़ाई में फेचकुर फेंक दिये
हैं।
दूसरे सिफिर में खुसरो लिखता
है:
'दुनिया
में पूरी तरह से कायम रवायत को शुक्रिया कि हिन्दू तुर्कों के लिये (मौज मस्ती के)
शिकार रहे हैं। इन दोनों के बीच के रिश्ते कि इससे बेहतर नहीं समझाया जा सकता कि
तुर्क बाघ है तो हिन्दू हिरन। यह बहुत पुराना आसमानी निजाम है कि हिन्दू हैं ही
तुर्कों के (शिकार के) लिये। उन पर जीत हासिल करते हुये, तुर्क
जब भी उन पर कहर बरपाना चाहता है, उन्हें पकड़ता है, खरीदता है और अपनी मर्जी बेंचता है। चूँकि हिन्दू हर तरह से ग़ुलाम ही होता
है, उसके ऊपर जोर आजमाइश की जरूरत नहीं पड़ती। जिस बकरी को
खाने के लिये पाला जाता है उस पर इसकी क्या जरूरत? जो बस एक
नजर की तरेर से ही मर जाता हो उस पर तेग की क्या जरूरत?'
हिन्दू धर्मस्थानों और
हिन्दुआनियों को लेकर उसके जो भाव हैं वे एक अन्य कृति में सूफी उन्माद के रूप में
व्यक्त हुये हैं। यौन कुण्ठा और हिस्टीरिया सूफी मत के आवश्यक अंग रहे हैं। कहना न
होगा कि सूफियों की वामी हिमायत के पीछे जिन्दा बोटी की लिप्सा एक प्रबल कारण है।
सुदूर दक्षिण के प्रसिद्ध
प्राचीन चिदम्बरम मन्दिर पर आक्रमण और ध्वंस पर अमीर खुसरो जो लिखता है उससे उसकी
विकृत यौन मानसिकता पूरी तरह से नंगी हो जाती है:
'इस
स्थान पर स्थापित बहुत पुराने समय के पत्थर के बुत थे जो लिंग महादेव कहलाते थे,
जिन पर काफिरानियाँ काम संतुष्टि के लिये अपनी योनियाँ रगड़ती थीं।
इनको अब तक इस्लामी घोड़ों के धक्कों ने तोड़ने की कोशिश नहीं की ती। मुसलमानों ने
सभी लिंग नष्ट कर दिये और देव नारायण हार गया और वे सभी देवता जो वहाँ आसन जमाये
बैठे थे, टाँग उठा कर इतनी ऊँची कूद ले भागे कि एक ही छलाँग
में लंका के किले तक पहुँच गये! इस तरह लिंग भी भाग खड़े हुये होते यदि उनके पास
खड़े होने को पाँव होते।'
दरबारी और जनकवि में अन्तर होता है। दरबारी चूँकि
राजा की रोटी खाता है, इसलिये उसका रचनाकर्म सदा संदिग्ध
रहेगा। जो राजा के पक्ष में होगा, वह बढ़ा चढ़ा कर बताया गया
होगा, जो विपक्ष में होगा उसे उस पर चुप्पी होगी, तोड़ मरोड़ होगी या अभिव्यक्ति के लिये उपमा रूपकों का सहारा लिया जायेगा।
अमीर खुसरो एक दरबारी कवि था और एक ही नहीं, कई सुल्तानों के साथ रहा, और लम्बे समय तक जीवित रह पाया। ऐसा व्यक्तित्त्व, वह भी मध्यकाल में जब कि राजा की वाणी ही किसी का सिर काट कर चौराहे पर गिद्धों के लिये धड़ लटकता छोड़ देने के लिये पर्याप्त थी, पर्ले दर्जे का चापलूस और गोटी बिठाने वाला ही होगा। खुसरो की विभिन्न सुल्तानों के समय की लिखी गयी रचनायें प्रमाण हैं। मैं रचना सामग्री की ही बात कर रहा हूँ, 'फैन' लोग पहेलियाँ और मुकरियाँ तज उन्हें पढ़ सकते हैं ताकि सूफी विष का पता चल सके।
अमीर खुसरो एक दरबारी कवि था और एक ही नहीं, कई सुल्तानों के साथ रहा, और लम्बे समय तक जीवित रह पाया। ऐसा व्यक्तित्त्व, वह भी मध्यकाल में जब कि राजा की वाणी ही किसी का सिर काट कर चौराहे पर गिद्धों के लिये धड़ लटकता छोड़ देने के लिये पर्याप्त थी, पर्ले दर्जे का चापलूस और गोटी बिठाने वाला ही होगा। खुसरो की विभिन्न सुल्तानों के समय की लिखी गयी रचनायें प्रमाण हैं। मैं रचना सामग्री की ही बात कर रहा हूँ, 'फैन' लोग पहेलियाँ और मुकरियाँ तज उन्हें पढ़ सकते हैं ताकि सूफी विष का पता चल सके।
इतिहासकार से पहले वह एक भाँड़ था, संगीत आदि तो उसकी विशेषज्ञता थे ही। इस कारण उसके भीतर किंचित कोमलता भी
थी जब कि उसका संरक्षक अलाउद्दीन खिलजी अपने समय का सबसे क्रूर और हिंसक सुल्तान
था। दोनों की रुचि इस्लाम के प्रसार में थी, राहें अवश्य अलग
दिखती थीं।
'देवल रानी' में
खुसरो चित्तौड़ के महाराणा को 'हिन्दु'स्तान
का महानतम शासक बताता है जिसकी श्रेष्ठता सभी 'हिन्दू'
राजा स्वीकार करते थे। चित्तौड़ पर आक्रमण 'हिन्दु'स्तान के प्रतिरोध की जड़ पर प्रहार था, इस्लाम का
परचम लहराने का सबसे बड़ा अभियान था। आठ महीनों तक गढ़ का घेरा जारी रहा (इसकी
भयानकता का अनुमान इससे लगा सकते हैं कि आज के युग में भी दो सप्ताह युद्ध जारी
रहने पर राजकोष का क्या हाल होता है और महँगाई का क्या?) बीती
28 जनवरी को उस घेरे के प्रारम्भ को 714 वर्ष बीत गये।
इस घटना के उल्लेख बर्नी, इसामी, याह्या आदि जिहादी इतिहासकारों ने किये हैं। खुसरो उस क्रूरता की सूचना देता है जिसे लुच्चे अकबर ने भी लगभग ढाई सौ वर्ष पश्चात वहीं दुहराया था - आठ महीनों के कठिन प्रतिरोध के पश्चात जब गढ़ में प्रवेश मिला तो सुल्तान ने सभी निवासियों की हत्या का आदेश दिया। कुल 30000 काफिर नागरिक, बाल, वृद्ध 'सूखी घास' की तरह काट दिये गये और चित्तौड़ का नाम खिज्रबाद रख दिया गया।
इस घटना के उल्लेख बर्नी, इसामी, याह्या आदि जिहादी इतिहासकारों ने किये हैं। खुसरो उस क्रूरता की सूचना देता है जिसे लुच्चे अकबर ने भी लगभग ढाई सौ वर्ष पश्चात वहीं दुहराया था - आठ महीनों के कठिन प्रतिरोध के पश्चात जब गढ़ में प्रवेश मिला तो सुल्तान ने सभी निवासियों की हत्या का आदेश दिया। कुल 30000 काफिर नागरिक, बाल, वृद्ध 'सूखी घास' की तरह काट दिये गये और चित्तौड़ का नाम खिज्रबाद रख दिया गया।
पद्मिनी के ऊपर फरिश्ता, हाजीउद्दबीर जैसे जिहादी इतिहासकारों ने लिखा है। रानी की ऐतिहासिकता पर
सबसे बड़ा प्रश्न लोग यह उठाते हैं कि खुसरो ने उसका नाम तक नहीं लिया। ऊपर हमने
खुसरो के चरित्र और उसकी अद्भुत चापलूस चातुरी का उल्लेख किया है। सोचिये कि
संरक्षक कामुक सुल्तान अगर किसी रूपसी को पाने के लिये अभियान करता है और आठ महीनों
के घेरे के पश्चात भी उसके हाथ केवल राख लगती है तो खुसरो जैसा दरबारी कवि उसका
वर्णन कर सुल्तान का अहम आहत करने का खतरा मोल लेगा? (मृत
देह भी हाथ लग जाती तो सुल्तान लिप्सा पूरी कर लेता। शव से मैथुन की इस्लामी
इतिहास में रवायतें हैं। आधुनिक शिक्षा और बोध वाले व्यक्ति सुल्तान की निराशा का
अनुमान भी नहीं लगा सकते जिसने एक देह पाने को अपने हजारो सैनिकों और हजारो
निरपराधों को कटवा दिया।)
तब भी कहीं न कहीं खुसरो के मन में कवि वाली टीस थी
और उसे संकेत करना ही था। 1303 ई. के उस कालखण्ड में उसने
सुल्तान के अभियान के सम्बन्ध में एक चापलूसी भरा निर्दोष सोलोमन और शीबा की कथा का
रूपक भी अपनी कृति में डाल दिया जो कि बाइबिल में वर्णित है और मध्यपूर्व में
लोकप्रिय है। जब उस रूपक की तुलना राजस्थान की चारण गाथाओं से करते हैं तो समूचे 'हिन्दुस्तान' में सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले राजवंश
की सती रानी पद्मिनी का वह अमर इतिहास मुखरित हो उठता है जिसे समकालीन कथित इतिहासकार
खुसरो ने तो नहीं लिखा लेकिन जन जन ने अपने हृदय में स्थान दिया, जिस इतिहास का आश्रय ले सुदूर पूरब के जायस में जन्मे मलिक मोहम्मद ने सैकड़ो
वर्षों पश्चात सूफी विष फैलाने का असफल प्रयास किया।
‘खज़ैनुल फुतूह’ में अमीर खुसरो का बड़बोलापन और जिहादी मानसिकता |
खुसरो की राजभक्ति असंदिग्ध और बहुत 'प्रगल्भ' है। ‘खज़ैनुल फुतूह’ में अपने
आका अलाउद्दीन को वह दूसरा सिकन्दर बताता है। साथ में उसके द्वारा काफिरों पर कहर
बरसा इस्लाम फैलाने के कर्म की स्तुति नहीं भूलता। उसका समूचा साहित्य ऐसे उद्धरणों
और उक्तियों से भरा पड़ा है जो उसे एक शातिर जिहादी के रूप में स्थापित करते हैं।
इलियट के अनुसार वर्तमान भूत को परिवर्तित करता है।
भारत के वामपंथी इतिहासकारों ने छद्म, अनदेखी, कुतर्कों
और खेमेबाजी द्वारा 'शब्दश:' वह काम
किया किंतु आज जो जागृति दिख रही है वह इलियट के कथन को व्यापक अर्थ दे रही है। अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता की आड़ में इस देश को अपनी धरती पर ही अजनबी बनाने के जो षड़यंत्र
स्वतंत्रता के पश्चात ही प्रारम्भ हो गये, उनका विषैला प्रभाव दिखने लगा है और प्रतिरोध
उठने लगे हैं। यह शुभ लक्षण है। पद्मिनियों की धरती अपनी सुगन्ध पहचानने लगी है।
शोधपूर्ण रोचक आलेख ।।।
जवाब देंहटाएंAs usual amazing article .... really fantastic .... Thanks for sharing this!! :) :)
जवाब देंहटाएंWonderful!! Many thanks for writing these enlightening posts.
जवाब देंहटाएंwow!! Khusro ke bare mein ye nahi jaante the! Dhanyavaad.
जवाब देंहटाएंAmir Khusro ke bare mein ye nahi jaante the. Sanjha karne ke liye dhanyavad.
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