मा हिंसीत् पुरुषान् पशूंश्च!
अथर्ववेद की शौनक शाखा का एक सूक्त है 3.28। देवता हैं - यमिनी, ऋषि हैं ब्रह्मा।
यह सूक्त मंत्रों की अनेकार्थी प्रकृति का एक अच्छा उदाहरण है। जुड़वा उत्पन्न हुये बच्चों से सम्बन्धित दोष निवारण हेतु इस सूक्त के मंत्रों का कभी प्रयोग होता था किंतु 'पशुपोषण' से सम्बन्धित इस सूक्त का विषय व्यापक है।
यमिनी कौन? यम की पत्नी नहीं, यमिनी स्वयं प्रकृति है। द्वन्द्वात्मक प्रकृति की यह वैदिक पहचान है।
अथर्ववेद की शौनक शाखा का एक सूक्त है 3.28। देवता हैं - यमिनी, ऋषि हैं ब्रह्मा।
यह सूक्त मंत्रों की अनेकार्थी प्रकृति का एक अच्छा उदाहरण है। जुड़वा उत्पन्न हुये बच्चों से सम्बन्धित दोष निवारण हेतु इस सूक्त के मंत्रों का कभी प्रयोग होता था किंतु 'पशुपोषण' से सम्बन्धित इस सूक्त का विषय व्यापक है।
यमिनी कौन? यम की पत्नी नहीं, यमिनी स्वयं प्रकृति है। द्वन्द्वात्मक प्रकृति की यह वैदिक पहचान है।
एकैकयैषा सृष्टया सं बभूव यत्र गा असृजंत भूतकृतो विश्वरूपा:।
यत्र विजायते यमिन्पर्तु: सा पशून् क्षिणाति रिफती रुशती॥
येषा पशून्त्सं क्षिणाति क्रव्याद्भूत्वा व्यद्वरी।
उतैनां ब्रह्मणे दद्यात्तथा स्योना शिवा स्यात्॥
मानवता के सर्वोच्च भारतीय आदर्श 'ब्राह्मण' में जो निष्ठा ये मंत्र दर्शाते हैं वह उदात्त मानवीयता का शिखर है। यह वही आदर्श है जिसके लिये गौतम बुद्ध जीवन भर उपदेश देते रहे। साम्प्रदायिक आग्रहों से बहुत ऊँचे सोपान की यह लब्धि है।
'गा' शब्द जीवधारियों के लिये सामान्य रूप में प्रयुक्त हुआ है। एक एक कर समस्त प्राणियों भूतादि की सृष्टि यह प्रकृति करती है किंतु ऋतुविरुद्ध प्रजनन करती यह द्वन्द्वरूपा पीड़ा देती, कष्ट उत्पन्न करती पशुओं को, प्राणियों को नष्ट करने लगती है (पर्यावरणीय संकट, लुप्त होती जीव प्रजातियाँ, संघर्ष, विनाश आदि ध्यान में आये या नहीं?)। शब्द प्रयोग देखिये - रिफती रुशती, गँवई सहज, रूठना रूसना भी हो जाता है न!
ऐसी अवस्था में यमनी प्रकृति कैसी हो जाती है? जैसे मांसभक्षी क्रूर हों।
ऐसे में क्या करें?
जिसे आज आप पर्यावरणीय चेतना कहते हैं, प्राचीनकाल की ब्रह्म चेतना वही है। जो उस चेतना के साथ कर्मप्रवृत्त हों, तपी, व्रती, उद्योगी बने रहें, वे ही 'ब्राह्मण' हैं।
श्रुति कहती है कि ऐसे ब्राह्मणों पर विश्वास करो और धरा उन्हें सौंप दो - उतैनां ब्रह्मणे दद्यात्तथा।
उससे क्या होगा?
यह धरा शिवा अर्थात सबके लिये कल्याणकारी हो जायेगी - स्योना शिवा स्यात्।
आगे बताया गया है कि श्रेष्ठ हृदय वाले, श्रेष्ठ कर्म करने वाले सुहृद, सुकृत, शरीर के रोगों से दूर ब्राह्मण जहाँ होते हैं वहाँ यमनी प्रकृति मनुष्यों और पशुओं की हिंसा नहीं करती
- मा हिंसीत् पुरुषान् पशूंश्च।
...
यह है ब्राह्मणत्त्व का वैदिक आदर्श!
शिवा भव पुरुषेभ्यो गोभ्यो अश्वेभ्य: शिवा
शिवास्मै सर्वस्मै क्षेत्राय शिवा न इहैधि!
...
ब्राह्मण बनोगे मनुष्य? तुम्हें इस धरा को शिवा बनाना है।
यत्र विजायते यमिन्पर्तु: सा पशून् क्षिणाति रिफती रुशती॥
येषा पशून्त्सं क्षिणाति क्रव्याद्भूत्वा व्यद्वरी।
उतैनां ब्रह्मणे दद्यात्तथा स्योना शिवा स्यात्॥
मानवता के सर्वोच्च भारतीय आदर्श 'ब्राह्मण' में जो निष्ठा ये मंत्र दर्शाते हैं वह उदात्त मानवीयता का शिखर है। यह वही आदर्श है जिसके लिये गौतम बुद्ध जीवन भर उपदेश देते रहे। साम्प्रदायिक आग्रहों से बहुत ऊँचे सोपान की यह लब्धि है।
'गा' शब्द जीवधारियों के लिये सामान्य रूप में प्रयुक्त हुआ है। एक एक कर समस्त प्राणियों भूतादि की सृष्टि यह प्रकृति करती है किंतु ऋतुविरुद्ध प्रजनन करती यह द्वन्द्वरूपा पीड़ा देती, कष्ट उत्पन्न करती पशुओं को, प्राणियों को नष्ट करने लगती है (पर्यावरणीय संकट, लुप्त होती जीव प्रजातियाँ, संघर्ष, विनाश आदि ध्यान में आये या नहीं?)। शब्द प्रयोग देखिये - रिफती रुशती, गँवई सहज, रूठना रूसना भी हो जाता है न!
ऐसी अवस्था में यमनी प्रकृति कैसी हो जाती है? जैसे मांसभक्षी क्रूर हों।
ऐसे में क्या करें?
जिसे आज आप पर्यावरणीय चेतना कहते हैं, प्राचीनकाल की ब्रह्म चेतना वही है। जो उस चेतना के साथ कर्मप्रवृत्त हों, तपी, व्रती, उद्योगी बने रहें, वे ही 'ब्राह्मण' हैं।
श्रुति कहती है कि ऐसे ब्राह्मणों पर विश्वास करो और धरा उन्हें सौंप दो - उतैनां ब्रह्मणे दद्यात्तथा।
उससे क्या होगा?
यह धरा शिवा अर्थात सबके लिये कल्याणकारी हो जायेगी - स्योना शिवा स्यात्।
आगे बताया गया है कि श्रेष्ठ हृदय वाले, श्रेष्ठ कर्म करने वाले सुहृद, सुकृत, शरीर के रोगों से दूर ब्राह्मण जहाँ होते हैं वहाँ यमनी प्रकृति मनुष्यों और पशुओं की हिंसा नहीं करती
- मा हिंसीत् पुरुषान् पशूंश्च।
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यह है ब्राह्मणत्त्व का वैदिक आदर्श!
शिवा भव पुरुषेभ्यो गोभ्यो अश्वेभ्य: शिवा
शिवास्मै सर्वस्मै क्षेत्राय शिवा न इहैधि!
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ब्राह्मण बनोगे मनुष्य? तुम्हें इस धरा को शिवा बनाना है।