हरिवंश महाभारत का खिल भाग है। आदि पर्व के दूसरे अध्याय मेंं व्यास परम्परा ने हरिवंश के श्लोकों की संख्या 12000 बताई है और दो पर्वों भविष्य एवं हरिवंश का संकेत किया है:
अब उपलब्ध हरिवंश में तीन पर्व हरिवंश, विष्णु और भविष्य मिलते हैं, श्लोकों की संख्या 16374 तक पहुँच गई है।
हरिवंश के विष्णु पर्व के बीसवें अध्याय में रासक्रीड़ा का वर्णन है। हरिवंश में राधा नहीं हैं। रास शब्द भी श्लोकों में नहीं आया है बल्कि अध्याय अंत की सूचना में आया है।
शरच्चंद्र का यौवन देख कर कृष्ण के मन में उसकी चंद्रिका के आवरण में रति आयोजन का विचार आता है। यह वन-गोचारी समाज का यौवनोत्सव है जो ग्राम और नागर नैतिकता के मानकों पर खरा नहीं उतरने वाला।
रमण आयोजन के पूर्व कृष्ण पुरुष शक्ति प्रदर्शन का आयोजन करते हैं। गोबर के लिये प्रयुक्त भोजपुरिया करसी के तत्सम करीष शब्द द्वारा कवि बताते हैं कि व्रजवीथियाँ गोबर भरी हैं जिनमें बैलों से द्वन्द्व का आयोजन किया गया है। विभिन्न आयोजनों में गोप योद्धा अपनी शक्तियों का प्रदर्शन करते हैं जिनमें पुष्ट बलीवर्द को ग्राह की भाँति पकड़ने का प्रदर्शन भी है - गाश्चैव जग्राह ग्राहवद्। तमिळ क्षेत्र में प्रचलित जल्लिकट्टु से यह मेल खाता है।
उसके पश्चात रात में युवतियों के साथ गहन वन प्रांतर में रति आयोजन होता है। स्पष्ट है कि यह नवयुवा और युवतियों की केलि है और सम्भव है कि शक्ति प्रदर्शन आयोजनों में जोड़ियों ने एक दूसरे को चुन लिया हो।
पशुपालकों का आयोजन है, नागर अंगराग आदि का प्रयोग गोपियाँ नहीं करतीं। कवि सूचित करते हैं - करीषपांसुदिग्धांगयस्ता:। करीष शब्द का पुन: प्रयोग है कि युवतियों की देह में सुगंधादि का लेपन नहीं, गोबर ही पुता है। यह अकुण्ठ उन्मुक्त रतिलीला है, कोई बनाव नहीं, कोई छिपाव नहीं। पति, माता, भाई, किसी की बरज स्वीकार नहीं - वार्यमाणा: पतिभिर्मातृभिर्भ्रातृभिस्तथा!
इस प्रसङ्ग को आराध्य के साथ युत करना एक तरह की परिपक्वता ही कही जायेगी।
गोपालांश्च बलोदग्रान् योधयामास वीर्यवान्।
वने स वीरो गाश्चैव जग्राह ग्राहवद् विभु:।।17।।
युवतीर्गोपकन्याश्च रात्रौ संकाल्य कालवित्।
कैशोरकं मानयन् वै सह ताभिर्मुमोद ह।।18।।
तास्तस्य वदनं कान्तं कान्ता गोपस्त्रियो निशि।
पिबन्ति नयनाक्षेपैर्गां गतं शशिनं यथा।।19।।
हरितालार्द्रपीतेन स कौशेयेन वाससा।
वसानो भद्रवसनं कृष्ण: कान्ततरोअभवत्।।20।।
स बद्धांगदनिर्व्यूहश्चित्रया वनमालया।
शोभमानो हि गोविन्द: शोभयामास तद् व्रजम्।।21।।
नाम दामोदेत्येवं गोकन्यास्तदाब्रुवन्।
विचित्रं चरितं घोषे दृष्ट्वा तत् तसय भास्वत:।।22।।
तास्तं पयोधरोत्तुंगैरुरोभि: समपीडयन्।
भ्रामिताक्षैश्च वदनैर्निरीक्षन्ते वरांगना:।।23।।
ता वार्यमाणा: पतिभिर्मातृभिर्भ्रातृभिस्तथा।
कृष्णं गोपांगना रात्रौ मृगयन्ते रतिप्रिया:।।24।।
तास्तु पंक्तीकृता: सर्वा रमयन्ति मनोरमम्।
गायन्त्य: कृष्णचरितं द्वन्द्वशो गोपकन्यका:।।25।।
कृष्णलीलानुकारिण्य: कृष्णप्रणिहितेक्षणा:।
कृष्णस्य गतिगामिन्यस्तरुण्यस्ता वरांगना:।।26।।
वनेषु तालहस्ताग्रै: कूजयन्त्यस्तथापरा:।
चेरुर्वै चरितं तस्य कृष्णस्य व्रजयोषित:।।27।।
तास्तस्य नृत्यं गीतं च विलासस्मितवीक्षितम्।
मुदिताश्चानुकुर्वन्त्य: क्रीडन्ति व्रजयोषित:।।28।।
भावनिस्पन्दमधुरं गायन्त्यस्ता वरांगना:।
व्रजं गता: सुखं चेरुर्दामोदरपरायणा:।।29।।
करीषपांसुदिग्धांगयस्ता: कृष्णमनुवव्रिरे।
रमयन्त्यो यथा नागं सम्प्रमत्तं करेणव:।।30।।
तमन्या भावविकचैर्नेत्रै: प्रहसितानना:।
पिबन्त्यतृप्तवनिता: कृष्णं कृष्णमृगेक्षणा:।।31।।
मुखमस्याब्जसंकाशं तृषिता गोपकन्यका:।
रत्यन्तरगता रात्रौ पिबन्ति रसलालसा:।।32।।
हा हेति कुर्वतस्तस्य प्रह्रष्टास्ता वरांगना:।
जगृहुर्निस्सृतां वाणीं नाम्ना दामोदरेरिताम्।।33।।
तासां ग्रथितसीमन्ता रतिं नीत्वाआकुलीकृता:।
चारु विस्त्रंसिरे केशा: कुचाग्रे गोपयोषिताम्।।34।।
अद्भुत वर्णन
जवाब देंहटाएंati rochak.
जवाब देंहटाएं