पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, साथ में अपने अक्ष पर घूमती भी है (परिभ्रमण) जैसे कि कोई लट्टू नाचते हुये किसी बिंदु का चक्कर भी लगा रहा हो।
उसके घूमने का अक्ष परिक्रमा के तल से प्राय: 23.5 अंश झुका हुआ है। सर्कस में झुकी हुई मोटरसाइकिल के साथ चालक का एक गोले में घूमना समझें, केवल यह मान कर कि चालक ऐसी सीट पर सवार है जो अपने अक्ष पर भी घूम रही है।
धरती का परिभ्रमण अक्ष उत्तर एवं दक्षिण दिशाओं को निश्चित करता है तथा उसके लम्बवत जिन दो बिंदुओं के निकटवर्ती क्षेत्र में सूर्य क्रमश: उगता एवं अस्त होता दिखता है, वे क्रमश: पूरब एवं पश्चिम होते हैं। जब इण्टरनेट, जी पी एस आदि नहीं थे तथा हम प्रकृति से इतने कटे नहीं थे, तब लोग दिशाओं को बिना किसी यंत्र के ही बता सकते थे क्यों कि उनकी आंतरिक समझ सूर्य गतियों से अधिक जुड़ी थी, दिन में भी अंधेरा कर कृत्रिम प्रकाश से चलने वाले कार्यालय भी नहीं होते थे।
अक्ष के झुकाव के कारण सूर्य प्रतिदिन ठीक पूरब में उगता या पश्चिम में अस्त होता नहीं दिखाई देता, इस दो दिशाओं के सापेक्ष उस काल अवधि में दोलन करता दिखता है जिसे हम वर्ष कहते हैं। वर्ष क्या है?
अक्ष पर पृथ्वी के इस झुकाव के कारण ऋतुयें होती हैं। ऋतु अर्थात एक निश्चित आवृत्ति से धरती के वातावरण में गरमी, ठण्ड, सूर्य के दिखने के घण्टों में घटबढ़। यदि झुकाव नहीं होता तो घटबढ़ नहीं होती, सूर्य सदैव एक बिंदु पर उगता दिखता, एक ही बिंदु पर अस्त होता अर्थात धरती के विविध क्षेत्र उसके गोले अपनी अपनी विशेष स्थिति के अनुसार सदा सदा एक ही मात्रा में ऊष्मा प्राप्त करते।
मनुष्य हेतु सबसे स्पष्ट निश्चित आवृत्ति से होने वाली प्राकृतिक घटना वर्षा है। मनुष्य ने देखा कि एक निश्चित आवृत्ति से कुछ महीने या दिन ऐसे आते हैं जब वह वर्षा अधिक होती है, निरंतर होती है जो कि कृषि अर्थात पेट पालन के लिये अन्न आदि उत्पन्न करने के उद्योग हेतु बहुत लाभकारी होती है। उस निश्चित आवृत्ति को वर्ष नाम दे दिया गया।
वास्तव में वर्ष पृर्थ्वी द्वारा सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने में लिया गया वह समय है जिसे एक सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक की समय इकाई 'दिन' या 'दिनमान' में मापा जाता है। जो कि मनुष्य के अपने विभाजन से 36 मुहूर्त या 24 घण्टे होता है।
मनुष्य ने पाया कि वर्ष 365 से 366 दिन तक का होता है जिसे गणना में सुविधा के लिये उसने 360 का निकट मान कर विविध इकाइयाँ बनाईं।
उसने ऋतुओं अर्थात एक निश्चित कालखण्ड में देह पर, कृषि पर, पेड़ पौधों पर, जलवायु पर होने वाले समेकित प्रभावों को नाम दिये। मोटा मोटी जाड़ा, गरमी, वर्षा।
भारत में रहने वाले मनुष्य ने इन तीन का पौधों एवं त्वचा पर प्रभावों को देखते हुये दो दो में विभाजन और किया - वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शीत तथा छ: ऋतुयें हो गईं।
उसने पाया कि वसंत के समय जब कि चहुँओर पुष्प खिले होते हैं, त्वचा एवं मन पर नया नया सा प्रभाव होता है, एक दिन सूर्य ठीक पूरब में उगता है तथा ठीक पश्चिम में अस्त होता है। प्राय: आधा वर्ष बीत जाने पर ऐसा पुन: होता है। ये दो दिन विषुव कहे गये।
ऐसे ही एक समय ऐसा भी होता है जब सूर्य के उदय का बिंदु उत्तर की दिशा में झुकते झुकते एक समय के पश्चात पुन: लौटने लगता है, यही बात एक अन्य समय के साथ दक्षिणी झुकाव में भी होती है मानों सूर्य एक डोरी से बँधा लोलक हो जो दोलन कर रहा हो!
इस चार बिंदुओं ने उसकी नींव डाली जिसे हम आज कैलेण्डर कहते हैं। वसंत ऋतु वहाँ भी होती है जहाँ आज सम्पूर्ण विश्व में मान्य ग्रेगरी का कैलेण्डर विकसित हुआ। यह कैलेण्डर ऋतु सापेक्ष है तथा वसंत विषुव प्रत्येक वर्ष एक निश्चित दिनांक (~ 21 मार्च) को ही पड़ता है।
पृथ्वी की अन्य ऐसी भी गतियाँ हैं जिसकी आवृत्ति वर्ष से हजार लाख गुना है अर्थात बहुत धीमी है। उनके प्रभाव पर आगे बात करेंगे किन्तु अभी वर्ष पर ही केंद्रित रहते हैं।
वर्ष के साथ समस्या यह है कि वह न तो ठीक 365 दिन का होता है, न ही 366 दिन का। वह इन दो के बीच, लगभग 365 दिन एवं 5 घण्टों एवं उससे भी अल्प समयावधियों को मिला कर होता है जो एक पूर्ण घण्टे से कम होती हैं।
कैलेण्डर में तो केवल दिन होते हैं, घण्टे नहीं। अनेक वर्ष बीतने पर यह अतिरिक्त अवधि बढ़ते हुये गड़बड़ करने लगती है यथा चार वर्ष पश्चात लगभग एक पूरे दिन का अंतर तथा घण्टे से लघु अवधियों के कारण आगे के सैकड़ो हजारो वर्षों में जुड़ने वाले अंतर। इस कारण ही समायोजन किया जाता है - लौद या लीप वर्ष, प्रत्येक 4 वर्ष पर एक दिन जोड़ कर 366 दिन का वर्ष मानना। अन्य समायोजन भी घण्टे से लघु अवधियों हेतु होते हैं जिन्हें हम आगे देखेंगे।
ध्यान देने योग्य यह बात है कि ग्रेगरी के कैलेण्डर में समायोजन इस प्रकार सदैव चलता रहेगा। ऋतु आधारित इस वर्ष गणना में किसी ऋतु का आरम्भ प्राय: निश्चित दिनांक पर ही होगा (लौद समायोजन के कारण कुछ एक दिनों का ही अंतर हो सकता है)। यह स्थिति हजारो वर्षों तक ऐसे ही रहेगी क्यों कि समायोजन कर के एक निश्चित दिनांक को वसंत विषुव हेतु सुरक्षित रखा जाता रहेगा।
यह हुआ पूर्णत: ऋतु या पृथ्वी से दर्श सूर्य गति आधारित कैलेण्डर किंतु बात यहीं समाप्त नहीं होती। आकाश में रात में चंद्रमा भी दिखता है, उसका क्या? क्या ऐसे वर्ष भी हो सकते हैं जो सूर्य के अतिरिक्त चंद्र गति पर भी आधारित हों या केवल चंद्र गति पर ही आधारित हों?
उत्तर हाँ है। इस हाँ में मानव की विराट मेधा एवं प्रेक्षण क्षमता के प्रमाण हैं जिन्हें हम अगले अंक में देखेंगे।
उसके घूमने का अक्ष परिक्रमा के तल से प्राय: 23.5 अंश झुका हुआ है। सर्कस में झुकी हुई मोटरसाइकिल के साथ चालक का एक गोले में घूमना समझें, केवल यह मान कर कि चालक ऐसी सीट पर सवार है जो अपने अक्ष पर भी घूम रही है।
धरती का परिभ्रमण अक्ष उत्तर एवं दक्षिण दिशाओं को निश्चित करता है तथा उसके लम्बवत जिन दो बिंदुओं के निकटवर्ती क्षेत्र में सूर्य क्रमश: उगता एवं अस्त होता दिखता है, वे क्रमश: पूरब एवं पश्चिम होते हैं। जब इण्टरनेट, जी पी एस आदि नहीं थे तथा हम प्रकृति से इतने कटे नहीं थे, तब लोग दिशाओं को बिना किसी यंत्र के ही बता सकते थे क्यों कि उनकी आंतरिक समझ सूर्य गतियों से अधिक जुड़ी थी, दिन में भी अंधेरा कर कृत्रिम प्रकाश से चलने वाले कार्यालय भी नहीं होते थे।
अक्ष के झुकाव के कारण सूर्य प्रतिदिन ठीक पूरब में उगता या पश्चिम में अस्त होता नहीं दिखाई देता, इस दो दिशाओं के सापेक्ष उस काल अवधि में दोलन करता दिखता है जिसे हम वर्ष कहते हैं। वर्ष क्या है?
अक्ष पर पृथ्वी के इस झुकाव के कारण ऋतुयें होती हैं। ऋतु अर्थात एक निश्चित आवृत्ति से धरती के वातावरण में गरमी, ठण्ड, सूर्य के दिखने के घण्टों में घटबढ़। यदि झुकाव नहीं होता तो घटबढ़ नहीं होती, सूर्य सदैव एक बिंदु पर उगता दिखता, एक ही बिंदु पर अस्त होता अर्थात धरती के विविध क्षेत्र उसके गोले अपनी अपनी विशेष स्थिति के अनुसार सदा सदा एक ही मात्रा में ऊष्मा प्राप्त करते।
मनुष्य हेतु सबसे स्पष्ट निश्चित आवृत्ति से होने वाली प्राकृतिक घटना वर्षा है। मनुष्य ने देखा कि एक निश्चित आवृत्ति से कुछ महीने या दिन ऐसे आते हैं जब वह वर्षा अधिक होती है, निरंतर होती है जो कि कृषि अर्थात पेट पालन के लिये अन्न आदि उत्पन्न करने के उद्योग हेतु बहुत लाभकारी होती है। उस निश्चित आवृत्ति को वर्ष नाम दे दिया गया।
वास्तव में वर्ष पृर्थ्वी द्वारा सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने में लिया गया वह समय है जिसे एक सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक की समय इकाई 'दिन' या 'दिनमान' में मापा जाता है। जो कि मनुष्य के अपने विभाजन से 36 मुहूर्त या 24 घण्टे होता है।
मनुष्य ने पाया कि वर्ष 365 से 366 दिन तक का होता है जिसे गणना में सुविधा के लिये उसने 360 का निकट मान कर विविध इकाइयाँ बनाईं।
उसने ऋतुओं अर्थात एक निश्चित कालखण्ड में देह पर, कृषि पर, पेड़ पौधों पर, जलवायु पर होने वाले समेकित प्रभावों को नाम दिये। मोटा मोटी जाड़ा, गरमी, वर्षा।
भारत में रहने वाले मनुष्य ने इन तीन का पौधों एवं त्वचा पर प्रभावों को देखते हुये दो दो में विभाजन और किया - वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शीत तथा छ: ऋतुयें हो गईं।
उसने पाया कि वसंत के समय जब कि चहुँओर पुष्प खिले होते हैं, त्वचा एवं मन पर नया नया सा प्रभाव होता है, एक दिन सूर्य ठीक पूरब में उगता है तथा ठीक पश्चिम में अस्त होता है। प्राय: आधा वर्ष बीत जाने पर ऐसा पुन: होता है। ये दो दिन विषुव कहे गये।
ऐसे ही एक समय ऐसा भी होता है जब सूर्य के उदय का बिंदु उत्तर की दिशा में झुकते झुकते एक समय के पश्चात पुन: लौटने लगता है, यही बात एक अन्य समय के साथ दक्षिणी झुकाव में भी होती है मानों सूर्य एक डोरी से बँधा लोलक हो जो दोलन कर रहा हो!
इस चार बिंदुओं ने उसकी नींव डाली जिसे हम आज कैलेण्डर कहते हैं। वसंत ऋतु वहाँ भी होती है जहाँ आज सम्पूर्ण विश्व में मान्य ग्रेगरी का कैलेण्डर विकसित हुआ। यह कैलेण्डर ऋतु सापेक्ष है तथा वसंत विषुव प्रत्येक वर्ष एक निश्चित दिनांक (~ 21 मार्च) को ही पड़ता है।
पृथ्वी की अन्य ऐसी भी गतियाँ हैं जिसकी आवृत्ति वर्ष से हजार लाख गुना है अर्थात बहुत धीमी है। उनके प्रभाव पर आगे बात करेंगे किन्तु अभी वर्ष पर ही केंद्रित रहते हैं।
वर्ष के साथ समस्या यह है कि वह न तो ठीक 365 दिन का होता है, न ही 366 दिन का। वह इन दो के बीच, लगभग 365 दिन एवं 5 घण्टों एवं उससे भी अल्प समयावधियों को मिला कर होता है जो एक पूर्ण घण्टे से कम होती हैं।
कैलेण्डर में तो केवल दिन होते हैं, घण्टे नहीं। अनेक वर्ष बीतने पर यह अतिरिक्त अवधि बढ़ते हुये गड़बड़ करने लगती है यथा चार वर्ष पश्चात लगभग एक पूरे दिन का अंतर तथा घण्टे से लघु अवधियों के कारण आगे के सैकड़ो हजारो वर्षों में जुड़ने वाले अंतर। इस कारण ही समायोजन किया जाता है - लौद या लीप वर्ष, प्रत्येक 4 वर्ष पर एक दिन जोड़ कर 366 दिन का वर्ष मानना। अन्य समायोजन भी घण्टे से लघु अवधियों हेतु होते हैं जिन्हें हम आगे देखेंगे।
ध्यान देने योग्य यह बात है कि ग्रेगरी के कैलेण्डर में समायोजन इस प्रकार सदैव चलता रहेगा। ऋतु आधारित इस वर्ष गणना में किसी ऋतु का आरम्भ प्राय: निश्चित दिनांक पर ही होगा (लौद समायोजन के कारण कुछ एक दिनों का ही अंतर हो सकता है)। यह स्थिति हजारो वर्षों तक ऐसे ही रहेगी क्यों कि समायोजन कर के एक निश्चित दिनांक को वसंत विषुव हेतु सुरक्षित रखा जाता रहेगा।
यह हुआ पूर्णत: ऋतु या पृथ्वी से दर्श सूर्य गति आधारित कैलेण्डर किंतु बात यहीं समाप्त नहीं होती। आकाश में रात में चंद्रमा भी दिखता है, उसका क्या? क्या ऐसे वर्ष भी हो सकते हैं जो सूर्य के अतिरिक्त चंद्र गति पर भी आधारित हों या केवल चंद्र गति पर ही आधारित हों?
उत्तर हाँ है। इस हाँ में मानव की विराट मेधा एवं प्रेक्षण क्षमता के प्रमाण हैं जिन्हें हम अगले अंक में देखेंगे।
किशोर नाक्षत्रिकी ! वाह! बहुत सुन्दर पहल.
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