शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

मैं मैं ही हूँ



जानते हो?
मेरे पाँव तले अनन्त काल शेष रह जाता है।
जानते हो?
वह नाद जिस पर नृत्य कर रही निहारिकायें, नक्षत्र, विवर, सूर्य, ग्रह, चन्द्र,
जिसकी प्रतिध्वनि ही काल की सीमा है,
वह उस कइन की पोर में एक साँस मात्र है जिससे,
तुम्हारा यह कान्ह उस गइया को हाँकता है जिसे तुम भूमा कहते हो!
जानते हो?है वसुन्धरा का वसु मेरी छिंगुरी पर टँगे भूधर में,
जिसे निज कर से बरसाती लक्ष्मी ने,
बना रखा है सृष्टि को निज भ्रूविलास का विषय।
जानते हो?
मैं अनन्तशायी हूँ।
अनन्त कुछ नहीं, यश:दा यशोदा के स्तनों से झरते
क्षीरसर का पान करते
मेरे मन का है ठाँव मात्र।
मैं मैं ही हूँ!

2 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-08-2019) को "बंसी की झंकार" (चर्चा अंक- 3437) पर भी होगी।


    --

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।

    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।

    आप भी सादर आमंत्रित है

    ….

    अनीता सैनी

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  2. अद्भुत शब्द संचयन और प्रवाह है जी महाराज | शानदार

    जवाब देंहटाएं

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