... कान्हा जाने कितने कष्ट में था, साँवली देह की प्रत्येक पेशी उभर आई थी, उसे सहायता देने को भी स्थान नहीं था। रक्त वाहिनियाँ जैसे विद्रोह कर बाहर आ जाना चाहती थीं, स्निग्ध सुचिक्कण रक्ताभ वदन और श्याम लोहित हो चला।
विवश राम का रोम रोम हाहा कर उठा। क्रोध में भर उसने अपनी मुट्ठी शिला पर दे मारी। जैसे संकेत हो, अनेक गोपों ने अपनी लाठियाँ अड़ा दीं और तब जैसे चमत्कार हुआ। शिला श्लथ हुई। उसके श्लथ होते ही पाँवों तले धरा बैठने लगी मानो उस कुञ्जिका शिला ने पूरा धरातल ही थाम रखा था।
सब नीचे धसने लगे, लगा जैसे कि गोवर्धन उठ रहा हो। वह शिला गुहा द्वार पर अड़ी थी जिसे कान्हा ने जाने कब अपनी बाँसुरी से ठुक ठुक कर जान लिया था।
विराट कन्दरा निकल आई थी, अरे, इसमें तो सारा व्रज शरण पा सकता है!
विह्वल राम अपने कान्ह से लिपट गया। हास या अश्रु या दोनों? राम के नयनों से देवकी यशोदा बह चलीं - कान्ह, तुमने कर दिखाया। तुमने तो गोवर्धन पर्वत को ही उठा दिया कान्ह!
... और तब राम का भीमादेश स्वर तड़ित झञ्झा को विलीन करता गूँजा - सभी गुहा में चलो, शीघ्रता करो।
रुको राम! भीतर हिंस्र पशु हो सकते हैं, सर्प भी - सावधान कृष्ण ने अपनी साँसों को थामते हुये अनुनय किया किन्तु अप्रतिहत राम के उत्साह को अब कौन थाम सकता था - मैं हूँ न!
समवेत स्वर में गोपों ने जयध्वनि की - जय कान्ह!
मघवा की पराजय निश्चित थी। गिरियज्ञ पूर्ण हो चुका था।
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अद्याहमिममुत्पाट्य सकाननवनं गिरिम्
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एवं सचिन्तयित्वा तु कृष्ण: सत्यपराक्रमः
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दोर्भ्यामुत्पाटयामास कृष्णो गिरिरिवापर:
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स लम्बमान: कृष्णस्य भुजाग्रे सघनो गिरिः
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शैलोत्पाटेनभूरेषा महती निर्मिता मया
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प्राविशन्त ततो गावो गौपैर्यूथप्रकल्पिता:
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तस्य शैलस्य विपुलं प्रदरं गह्वरोदरम्
बहुत सुंदर।
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