नारदपुराण में भगवान जगन्नाथ , यह पुराण पुरी में पाञ्चरात्र उपासना का भी उल्लेख करता है।
अयं तव सहायार्थमागतः शिल्पिनां वरः
नारदपुराण में भगवान जगन्नाथ , यह पुराण पुरी में पाञ्चरात्र उपासना का भी उल्लेख करता है।
इस प्रश्न से पूर्व उनसे यह पूछा जाना चाहिये कि सोमनाथ हो या
विश्वनाथ, जो लिङ्ग भङ्ग कर दिये गये, उनके स्थान तक हड़प लिये गये, उनके लिये शास्त्र मर्यादा क्या है?
विश्वेश्वर के मूल स्थान पर तो आज रजिया की मस्जिद है। ज्ञानवापी
विश्वनाथ की तो कहानी ही कारुणिक है!
वास्तविकता यह है कि जीर्णोद्धार का प्रावधान है तथा दुष्टलिङ्ग जैसी सञ्ज्ञा भी है। या तो वे पण्डे सूक्ष्म विधान समझ नहीं पा रहे
या स्वार्थवश वितण्डा में लगे हैं।
अग्निपुराण में बहुत विस्तार से जीर्णोद्धार का विधान है किंतु
शब्दावली ऐसी है जो ऐसा करने को बहुत ही असामान्य स्थिति में अनुमति देती है। सारा
बखेड़ा चालन शब्द को ले कर है जिसका अभिधा अर्थ ले कर कि लिङ्ग को उसके स्थान
से नहीं हटाया जा सकता, वितण्डा चल रहा है।
चालन शब्द प्रस्तर प्रतिमा हेतु नहीं, मूल स्थान हेतु है अर्थात मूल स्थान वही रहेगा, वहाँ स्थापित लिङ्ग यदि दुष्टलिङ्ग अर्थात दोषयुक्त हो गया हो तो
उसे चलायमान कर नया स्थापित किया जा सकता है।
शास्त्रकार लिङ्ग को पाषाण प्रतिमा न मान कर शम्भु की बात कर रहा
है जबकि ये पण्डित लिङ्गप्रतिमा को ही सबकुछ माने बैठे हैं।
स्थानभङ्ग, वज्रपात, झुकाव व केंद्रस्थ स्थापना आदि दोषों की स्थिति (दुष्ट को दोष से
समझें) में पुन: वही लिङ्ग स्थापित किया जा सकता है यदि क्षत या व्रणचिह्न न हों - निर्ब्रणञ्च।
आगे बताता है कि विधिसम्मत ढङ्ग से पुन:स्थापित लिङ्ग अपने स्थान से नहीं हटाया जाना चाहिये -
इस श्लोक की दूसरी अर्द्धाली मात्र को ले कर पण्डे गाल बजा रहे हैं - अधूरी बात। ऐसे कर्म काशी में बहुत पहले से होते रहे हैं, कोई नई बात नहीं। अगला श्लोक देखें -
यदि स्थापना हेतु सौ (पूजार्पण आदि) करना है तो चालन हेतु हजार का।
इस प्रकार की पूजा से संयुक्त होने पर जीर्ण हुआ लिङ्ग भी सुस्थापित हो जाता है।
जीर्ण का अर्थ जिसकी स्थिति बिगड़ गयी हो परंतु जिसमें दोष न आये हों।
विधाय द्वारपूजादि स्थण्डिले मन्त्रपूजनं
मन्त्रान् सन्तर्प्य सम्पूज्य वास्तुदेवांस्तु पूर्ववत्
दिग्बलिं च
वहिर्दत्वा समाचम्य स्वयं गुरुः
ब्राह्मणान् भोजयित्वा तु शम्भुं विज्ञापयेत्ततः
लम्बी प्रक्रिया है। संक्षेप में जानें कि विधि सम्मत मंत्रपूजा कर, तर्पण कर, वास्तुदेव को संतुष्ट
कर, दिग्बलि दे, ब्राह्मण भोजन आदि
करा कर स्वयं शम्भु को विज्ञापित करे -
इससे आगे अनेक विधि विधान वर्णित हैं तथा -
जो भी सत्त्व इस लिङ्ग मेंंआश्रय लिये हुये हैं, शिव की आज्ञा से इस लिङ्ग का त्याग कर जहाँ जाना चाहें, जायें। विद्या व विद्येश्वर से युक्त भव अर्थात शिव यहाँ बने
रहेंगे।
आगे सत्त्व शक्तियों को हटाने की विधियाँ हैं -
दत्वार्घं च विलोमेन तत्त्वतत्त्वाधिपांस्तथा
अष्टमूर्त्तीश्वरान् लिङ्ग पिण्डिकासंस्थितान् गुरुः
विसृज्य स्वर्णपाशेन वृषस्कन्धस्थया तथा
रज्वा बध्वा तया
नीत्वा शिवमन्तं गृणन् जनैः
तज्जले निक्षिपेन्
मन्त्री पुष्ठ्यर्थं जुहुयाच्छतं
तृप्तये दिक्पतीनाञ्च वास्तुशुद्धौ शतं शतं
इसके पश्चात महापाशुपत मंत्र द्वारा भवन को रक्षित कर गुरु नये
लिङ्ग की वहाँ विधिवत स्थापना करता है -
वितण्डावादी निम्न श्लोक का आधार ले कर शिवलिङ्गों को हटाये जाने
का विरोध उचित बता सकते हैं -
असुरों, मुनियों वा उनके
गोत्र वालों, तन्त्रविदों के
द्वारा प्रतिष्ठित शिवलिङ्गों को; चाहे जीर्ण हों, चाहे भग्न हों; विधि
अनुसार भी चलायमान न करे।
क्या अर्थ है इसका?
मात्र अभिधात्मक? कौन करे, जिन लोगों पर अर्थ स्पष्ट करने का दायित्त्व है, वे तो स्वार्थी वितण्डा में लगे हैं!
बहुत सीधा सा समाधान है। असुर, मुनि, गोत्र वालोंं व तंत्रविदों को हटा दें तो बचते कौन हैं? सभी सनातनी तो किसी न किसी गोत्र के ही हैं न? जिनका ज्ञात नहीं, उनके लिये कश्यप हैं।
तब तो मात्र देवताओं, यक्ष, गंधर्व, किन्नर आदि के द्वारा
स्थापित लिङ्ग ही भग्न होने पर हटाये जा सकेंगे! नहीं!! दलहित नवबौद्ध, इसाई व मुसलमान तो शिवलिङ्ग की स्थापना करेंगे नहीं!!!
मुनिभिर्गोत्र का अर्थ कुछ जातिवादी ब्राह्मण जाति से लगाते हैं अर्थात असुर
स्थापित लिङ्ग तो रहेंगे, किंतु ब्राह्मणेतर
मनुष्यों के द्वारा स्थापित दुष्टलिङ्ग हटाये जा सकते हैं। यह तो अनर्गल बात हो
गई!
इसका अर्थ सरल है कि विशिष्ट जन द्वारा विशिष्ट विधानों सहित विशिष्ट स्थानों पर
स्थापित शिवलिङ्ग किसी भी स्थिति में हटाये नहीं जाने चाहिये। यह अतिरिक्त सावधानी है, अति महत्त्वपूर्ण स्थलों की मर्यादा को सुरक्षित रखने हेतु जिससे
कि लोग उपर्युक्त विधि विधानों का आश्रय ले मनमानी न करने लगें।
दुर्भाग्य से सोमनाथ हो या विश्वेश्वर विश्वनाथ; इसी श्रेणी के लिङ्ग थे। म्लेच्छों ने मूलस्थान तो हड़पे ही, मूल शिवलिङ्ग भी तोड़ दिये। पण्डों के अनुसार तो तब कुछ कर ही नहीं
सकते थे! है न? (आपद्धर्म केवल आपदा
हेतु नहीं, अभूतपूर्व स्थितियों
हेतु भी प्रयुक्त होता है, उन्हें कौन समझाये?)
क्या उससे सोमनाथ या विश्वेश्वर की आराधना भी समाप्त हो गई? नहीं। सनातन ने प्रवाह को रुकने नहीं दिया। हम लड़ते रहे, पुन: पुन: निर्माण कर अपनी आस्था सँजोते रहे। इन पण्डों की चली
रहती तो तीर्थ व दिव्यस्थल कब के लुप्त हो गये रहते! काशी परिक्रमा के जाने कितने
हो ही गये न!
निजी स्वार्थ वश जिन्हें सँजोना था उन्हें लुप्त व विकृत कर पण्डे
उनके लिये वितण्डा में लगे हैं जिनका कोई विशेष महत्त्व नहीं। यहाँ भी स्वार्थ है।
प्रश्न यह भी है कि किसके पास इतना समय है जो इनके वितण्डा प्रसार
की काट समय लगा कर करता रहेगा? क्या मिलना उससे? इस कारण भी इनकी लन्तरानियाँ चलती रहती हैं।
॥हर हर महादेव॥