जुगनू जी कृषि का आविष्कारक स्त्रियों को मानते हैं। बात ठीक भी है। बृहद स्तर पर अपनाना पुरुषों का किया धरा है परन्तु बीज रूप में यह काम वन में फल सञ्चय करती किसी स्त्री ने ही उत्सुकता वश किया होगा। कोई बीज ला कर घर या गुहा के पास तोप दी होगी, अंकुर फूटे होंगे तो उसे वैसा ही लगा होगा जैसा गर्भ में पहली बार रज-वीर्य के निषेचन पश्चात कुछ नया होता है। उसने धरा से उगते बीज को एक माँ की स्नेहदृष्टि से सींचा होगा, लता हुई हो या द्रुम, उसे बढ़ते देख स्त्री को वही सुख मिला होगा जो अपने शिशु को बढ़ते देख होता है। किसी कोमल भावुक क्षण में उसने साथी को यह काम बड़े स्तर पर करने को मना लिया होगा।
पुरुष तो पुरुष, प्रिया की बात पर मन ठाँव पा जाये तो पहाड़ तोड़ दे, उसके वक्ष की रोमावलियाँ प्रजापति की रेखायें हो जायें।
हमारी पूरी सभ्यता व संस्कृति उस मौलिक क्रांति की देन हैं जिसे हम कृषि कहते हैं। देवसंस्कृति वह कृषि संस्कृति है जिसकी दूसरी सीमा पर वे असुर हैं जो अब भी आखेटजीवी हैं, जो छीन कर, बलात हरण कर पेट पालने में लगे हैं।
कृषि पेट पर मानव के विजय का यज्ञ है, जिससे ऊपर उठ कर मस्तिष्क नित नव नवाचार में लगा और प्रजा देव होती चली गयी।
हम देवसभ्यता हैं, हमने ही सकल संसार को देवत्व दिया, उदरम्भरि अनात्म से जाने कितने ऊपर उठ शाकम्भरी हुई प्रज्ञा ने सृष्टि के ऋत रहस्यों का उद्घाटन किया।
ऋषि शब्द जिस मूल से है, उसका एक अर्थ काटना भी है। स्थूल अर्थ में ऋषि वह है जो सोम कहे गये धात्विक अयस्कों से परशु बना कर जंगल काटे, फाल बना कर मुक्त हुई धरा का उदर काट उसमें उसी के बीज बो दे। सूक्ष्म अर्थ में ऋषि वह है जो केवल पेट से जुड़े तामस को काट आपको चेतना के वास्तविक रूप दिखाये। ऋषि द्रष्टा है। वह पञ्चमहाभूतों से बनी देह से ऊपर मन, प्राण और आत्मविद्या तक ले जाता है।
ऋषिपञ्चमी कृषिपञ्चमी है, ऋषि और पसरती प्रजावती स्त्री के प्रति कृतज्ञता और उनकी क्षमताओं को मनाने का पर्व। सोम की भाँति ही मासिक कलायें लेती स्त्री के सम्मान का पर्व। यह ऐसे ही नहीं है कि माँ का भाई हुआ चन्द्र'मा' चन्दा'मा''मा' है। वनस्पतियाँ ऐसे ही सोम नहीं हो गईं। जो मूर्तिमान भारत महादेव है, वह अर्द्धनारीश्वर सोमेश्वर हो ऐसे ही नहीं चन्द्र को मस्तक पर धारण कर चन्द्रशेखर हो गया।