रविवार, 23 अगस्त 2020

ऋषिपंचमी


जुगनू जी कृषि का आविष्कारक स्त्रियों को मानते हैं। बात ठीक भी है। बृहद स्तर पर अपनाना पुरुषों का किया धरा है परन्तु बीज रूप में यह काम वन में फल सञ्चय करती किसी स्त्री ने ही उत्सुकता वश किया होगा। कोई बीज ला कर घर या गुहा के पास तोप दी होगी, अंकुर फूटे होंगे तो उसे वैसा ही लगा होगा जैसा गर्भ में पहली बार रज-वीर्य के निषेचन पश्चात कुछ नया होता है। उसने धरा से उगते बीज को एक माँ की स्नेहदृष्टि से सींचा होगा, लता हुई हो या द्रुम, उसे बढ़ते देख स्त्री को वही सुख मिला होगा जो अपने शिशु को बढ़ते देख होता है। किसी कोमल भावुक क्षण में उसने साथी को यह काम बड़े स्तर पर करने को मना लिया होगा।
 पुरुष तो पुरुष, प्रिया की बात पर मन ठाँव पा जाये तो पहाड़ तोड़ दे, उसके वक्ष की रोमावलियाँ प्रजापति की रेखायें हो जायें।
हमारी पूरी सभ्यता व संस्कृति उस मौलिक क्रांति की देन हैं जिसे हम कृषि कहते हैं। देवसंस्कृति वह कृषि संस्कृति है जिसकी दूसरी सीमा पर वे असुर हैं जो अब भी आखेटजीवी हैं, जो छीन कर, बलात हरण कर पेट पालने में लगे हैं।
कृषि पेट पर मानव के विजय का यज्ञ है, जिससे ऊपर उठ कर मस्तिष्क नित नव नवाचार में लगा और प्रजा देव होती चली गयी।
हम देवसभ्यता हैं, हमने ही सकल संसार को देवत्व दिया, उदरम्भरि अनात्म से जाने कितने ऊपर उठ शाकम्भरी हुई प्रज्ञा ने सृष्टि के ऋत रहस्यों का उद्घाटन किया।
ऋषि शब्द जिस मूल से है, उसका एक अर्थ काटना भी है। स्थूल अर्थ में ऋषि वह है जो सोम कहे गये धात्विक अयस्कों से परशु बना कर जंगल काटे, फाल बना कर मुक्त हुई धरा का उदर काट उसमें उसी के बीज बो दे। सूक्ष्म अर्थ में ऋषि वह है जो केवल पेट से जुड़े तामस को काट आपको चेतना के वास्तविक रूप दिखाये। ऋषि द्रष्टा है। वह पञ्चमहाभूतों से बनी देह से ऊपर मन, प्राण और आत्मविद्या तक ले जाता है।
ऋषिपञ्चमी कृषिपञ्चमी है, ऋषि और पसरती प्रजावती स्त्री के प्रति कृतज्ञता और उनकी क्षमताओं को मनाने का पर्व। सोम की भाँति ही मासिक कलायें लेती स्त्री के सम्मान का पर्व। यह ऐसे ही नहीं है कि माँ का भाई हुआ चन्द्र'मा' चन्दा'मा''मा' है। वनस्पतियाँ ऐसे ही सोम नहीं हो गईं। जो मूर्तिमान भारत महादेव है, वह अर्द्धनारीश्वर सोमेश्वर हो ऐसे ही नहीं चन्द्र को मस्तक पर धारण कर चन्द्रशेखर हो गया। 

शनिवार, 15 अगस्त 2020

vande mataram वंदे मातरम्‌


गीत - बङ्किम चन्द्र चटोपाध्याय
स्वर - संगीता कुलकर्णी 

संयोजन - गिरिजेश राव 
चित्र आभार - विविध स्रोत 



बुधवार, 12 अगस्त 2020

Birth Time of Shri Krishna श्रीकृष्ण का जन्म समय

Birth Time of Shri Krishna
आज से ५२४७ वर्ष पूर्व, अमान्त श्रावण या पूर्णिमान्त भाद्रपद मास, कृष्ण अष्टमी, तदनुसार जूलियन दिनाङ्क १९/२० जुलाई की रात।
श्रीकृष्ण का जन्म नक्षत्र रोहिणी था तथा समय को ले कर तीन बातें मिलती हैं -
- अर्धरात्रि
- अभिजित मुहूर्त
- विजय मुहूर्त
उक्त दिवस दिन में ०३:३४:२३ अपराह्न को अष्टमी आरम्भ हो गई। रात में ११:४८:१६+ पर लग्न भी रोहिणी हो गया।
अथर्वण ज्योतिष की मुहूर्त नामावली में विजय नाम का मुहूर्त मिलता है। मुहूर्त अहोरात्र अर्थात दिन रात मिला कर हुये घण्टों का तीसवाँ भाग होता है, आज का लगभग ४८ मिनट। इन मुहूर्तों को ब्राह्मण ग्रंथों में तीस नाम दिये गये हैं जबकि कुछ में केवल पंद्रह नाम मिलते हैं, रात दिन हेतु एक ही। मुहूर्त की गणना सूर्योदय से करते हैं, स्पष्ट है कि विभिन्न तिथियों में मुहूर्त नामों के समय में किञ्चित अंतर रहेगा ही रहेगा।
उस दिन अर्धरात्रि का मुहूर्त अभिजित ११:४०:५९ पर समाप्त हो गया। यदि अभिजित मुहूर्त को ही मानें तो कृष्ण का जन्म लग्न कृत्तिका तथा नक्षत्र रोहिणी।
यदि आज की दृष्टि से ठीक बारह बजे अर्धरात्रि मानें (जोकि तत्कालीन चलन अनुसार ठीक नहीं प्रतीत होता) तो उनका जन्म लग्न भी रोहिणी था।
अब आते हैं विजय मुहूर्त पर। यह रोचक है। अभिजित के पश्चात तीन मुहूर्त हैं - रौहिण, बल और विजय। रौहिण नाम रोचक है। सम्भव है कि उस दिन अभिजित बीत जाने पर रौहिण मुहूर्त में जन्म हुआ हो। रोहिणी नाम से साम्यता के कारण कालांतर में कुछ भ्रम हुआ हो।
रौहिण समाप्त हुआ रात के १२:२८:५९ पर। विजय मुहूर्त का आरम्भ रात के ०१:१६:५९+ से हुआ और ०२:०४:५९ पर समाप्त हो गया। किंतु तब चंद्र के रोहिणी में रहते हुये भी लग्न आर्द्रा हो गया जोकि ठीक नहीं है। अत: विजय मुहूर्त नहीं माना जा सकता।
अब आते हैं रौहिण की सम्भावना पर। रौहिण आरम्भ से सवा आठ मिनट पश्चात ही लग्न भी रोहिणी हो गया था। रात के १२:२५:३७+ तक लग्न भी रोहिणी है।
इस विश्लेषण, अर्द्धरात्रि, रोहिणी, अभिजित एवं ऐसे भी रोहिणी शब्द से कृष्ण के जुड़ाव को देखते हुये कुल मिला कर कृष्ण का जन्म पश्चिमी सौर सन्‌ की दृष्टि से १९/२० जुलाई को आज से ५२४७ वर्ष पूर्व रात में ११:४८:१६+ से १२:२५:३७+ के बीच हुआ।
इससे भी अधिक सूक्ष्म गणना हेतु विविध ग्रहों की स्थितियाँ भी देखनीं होंगी। उनके बारे में विद्वत्वर्ग एकमत नहीं है।
...
[राशियों का मूल ऋग्वेद में ही है जहाँ देवताओं के नामों के साथ उन्हें द्वादश आदित्यों से जोड़ कर जाना जाता था। ऋतु आधारित कृषि कार्य में सूर्य की मोटी स्थिति हेतु तीस अंश के इन विभाजनों से काम चल जाता था किंतु सूक्ष्म गणना, याज्ञिक सत्र, अन्य कर्मकाण्ड आदि हेतु नक्षत्र आधारित गणना ही प्रचलित थी जिसका स्थूल विवरण वेदाङ्ग ज्योतिष में मिलता है।
किंतु
यह भी सच है कि वर्तमान में प्रचलित राशि आधारित फलित ज्योतिष हमारे यहाँ पश्चिम से ही आई। देवता सम्बंधित सौर मास व आकाशीय विभाजन वाला ज्ञान बेबिलोन तक व्यापारी वर्ग एवं उद्योगी राजन्यों द्वारा पहुँचा जहाँ से मिस्र, रोम, ग्रीस आदि होते हुये वह स्वतंत्र रूप से विकसित हो कर शताब्दियों पश्चात हमारे यहाँ पहुँचा जिसे आगे की शताब्दियों में स्वतंत्र रूप से परिमार्जित करते हुये हमने अपना सैद्धान्‍तिक ज्योतिष बना लिया।
इसे बताने का उद्देश्य यह है कि ऊपर की सूक्ष्म गणना को तीस अंश के मोटे विभाजन वाले राशि-ज्ञान से नहीं तौला जाना चाहिये कि लग्न तो वृष था तो और आगे पीछे हो सकता है आदि आदि।]

राशियों के विकास पर विस्तार से जानने हेतु ये लेख अवश्य पढ़ें। जो लोग सब कुछ सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा द्वारा सूर्य को उपदिष्ट मानते हैं तथा सूर्य सिद्धांत नामक ग्रंथ को अपौरुषेय अकाट्य मानते हैं, उन्हें यह सब पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। बेबिलॉन एवं भारतीय ज्योतिष 1, 2, 3, 4 

रविवार, 9 अगस्त 2020

Sumitra सुमित्रा मेघमयी

 

Sumitra सुमित्रा मेघमयी
वर्षा से सम्मोहित भारत ने संवत्सर को वर्ष कहा, वर्षा के देवता इंद्र को देवराज बनाया। काव्य में मेघ हों या बरसते पर्जन्य हों, भारतीय मनीषा ने मानवीय भावों को उनसे उन्मेषित कर दिया! 
राम के प्रति जितना विश्वास माता सुमित्रा में दिखता है, किसी अन्य में नहीं। कवि ने उन्हें 'वाक्योपचारे कुशला' कहा है जैसे बात कर के ही दु:ख के मेघ हर लेने वाली counsellor हों -
आश्वासयन्ती विविधैश्च वाक्यैर्वाक्योपचारे कुशलाऽनवद्या
रामस्य तां मातरमेवमुक्त्वा देवी सुमित्रा विरराम रामा

राम वनगमन के समय सुमित्रा अपनी सपत्नी कौसल्या को समझाते हुये मेघ से जुड़ी उपमायें देती हैं। उनकी बातों में सूर्य हैं, चंद्र हैं, नयनों के जल हैं, शीत है, घाम है, समस्त प्रकृति उपस्थित सी है -
किम् ते विलपितेन एवम् कृपणम् रुदितेन वा
रामः धर्मे स्थितः श्रेष्ठो न स शोच्यः कदाचन ...

व्यक्तम् रामस्य विज्ञाय शौचम् माहात्म्यम् उत्तमम्
न गात्रम् अंशुभिः सूर्यः संतापयितुम् अर्हति
शिवः सर्वेषु कालेषु काननेभ्यो विनिस्सृतः
राघवम् युक्त शीतोष्णस्सेविष्यति सुखोऽनिलः
शयानम् अनघम् रात्रौ पिता इव अभिपरिष्वजन्
रश्मिभिः संस्पृशन् शीतैः चन्द्रमा ह्लादयिष्यति
सूर्यस्यापि भवेत्सूर्योह्यग्नेरग्निः प्रभोः प्रभोः
श्रियश्च श्रीर्भवेदग्र्या कीर्ति
: कीर्त्याः क्षमाक्षमा
शिरसा चरणावेतौ वन्दमानमनिन्दिते
पुनर्द्रक्ष्यसि कल्याणि पुत्रं चन्द्रमिवोदितम्
त्वया शेषो जनश्चैव समाश्वास्यो यदाऽनघे
किमिदानीमिदं देवि करोषि हृदि विक्लबम्

किंतु मेघ सब पर भारी हैं -
मेघ जल से भर जाते हैं तो नीचे झुक जाते हैं। लौटा पुत्र चरणों में झुका होगा। वर्तमान के दारुण प्रसङ्ग से कौसल्या का ध्यान हटा कर सुमित्रा भविष्य के सुखद प्रसङ्ग की ओर ले जाती हैं -
अभिवादयमानं तं दृष्ट्वा ससुहृदं सुतम्
मुदाऽश्रु मोक्ष्यसे क्षिप्रं मेघलेखेव वार्षिकी

जब सुहृदों के साथ लौटे अपने पुत्र राम को आप अभिवादन में झुका पायेंगी तो वर्षा ऋतु के समय भरे मेघों के समान आप के आनंद अश्रु बरसेंगे।
मंत्रपूत जल से सिञ्चन करना प्रोक्षण कहा जाता है। सुमित्रा माता के उन आँसुओं को ऐसे जल की शुचिता प्रदान करते हुये कहती हैं -
अभिवाद्य नमस्यन्तं शूरं ससुहृदं सुतम्
मुदाऽस्रैः प्रोक्ष्यसि पुनर्मेघराजिरिवाचलम्

जब आप का शूर पुत्र सुहृदों के साथ लौट कर नमन अभिवादन में झुका होगा तब पुन: आप के आँसू उसका वैसे ही प्रोक्षण करेंगे जैसे मेघ पर्वत पर बरसते उसे भिगोते हैं।
राम साँवले हैं, विशाल पर्वत के समान ही समस्त परिस्थितियों में अचल रहते हैं, विचलित नहीं होते। माता के अश्रुमेघों के नीचे नत राम का विशाल घनश्याम भूधर व्यक्तित्व उन्हें अद्भुत गरिमा प्रदान करता है। दु:ख का काल है, सब ओर आशंकाओं की घटायें हैं किंतु वाक्योपचार कुशला देवी सुमित्रा उस समय को भी भावी सुख से जोड़ देती हैं। प्रकृत मन प्रकृति के मेघ वर्षण को देख आनंदित होता ही है, धरा सम्पूरित जो हो जाती है।
निशम्य तल्लक्ष्मणमातृवाक्यं रामस्य मातुर्नरदेवपत्न्या:
सद्यश्शरीरे विननाश शोकः शरद्गतो मेघ इवाल्पतोयः

लक्ष्मण की माता के वचन सुन कर राम की माता रानी कौशल्या के शरीर का दु:ख सद्य: नष्ट हो गया मानो अल्प जल वाला शरद ऋतु का मेघ हो। शरीर शब्द जिस धातु से बनता है, उसका अर्थ क्षरित होना होता है - शृ। दु:ख के क्षरण को दर्शाने हेतु कवि ने शरीर शब्द का प्रयोग किया है।
कौशल्या के मन को वर्षा ऋतु के पर्जन्य घन मेघों से ले कर शरद ऋतु के अल्पतोयी मेघों तक विरमा कर सुमित्रा ने रामवनगमन के दु:ख का शमन कर दिया। नाम ही है सुमित्रा, सु+मित्रा