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बुधवार, 12 अगस्त 2020

Birth Time of Shri Krishna श्रीकृष्ण का जन्म समय

Birth Time of Shri Krishna
आज से ५२४७ वर्ष पूर्व, अमान्त श्रावण या पूर्णिमान्त भाद्रपद मास, कृष्ण अष्टमी, तदनुसार जूलियन दिनाङ्क १९/२० जुलाई की रात।
श्रीकृष्ण का जन्म नक्षत्र रोहिणी था तथा समय को ले कर तीन बातें मिलती हैं -
- अर्धरात्रि
- अभिजित मुहूर्त
- विजय मुहूर्त
उक्त दिवस दिन में ०३:३४:२३ अपराह्न को अष्टमी आरम्भ हो गई। रात में ११:४८:१६+ पर लग्न भी रोहिणी हो गया।
अथर्वण ज्योतिष की मुहूर्त नामावली में विजय नाम का मुहूर्त मिलता है। मुहूर्त अहोरात्र अर्थात दिन रात मिला कर हुये घण्टों का तीसवाँ भाग होता है, आज का लगभग ४८ मिनट। इन मुहूर्तों को ब्राह्मण ग्रंथों में तीस नाम दिये गये हैं जबकि कुछ में केवल पंद्रह नाम मिलते हैं, रात दिन हेतु एक ही। मुहूर्त की गणना सूर्योदय से करते हैं, स्पष्ट है कि विभिन्न तिथियों में मुहूर्त नामों के समय में किञ्चित अंतर रहेगा ही रहेगा।
उस दिन अर्धरात्रि का मुहूर्त अभिजित ११:४०:५९ पर समाप्त हो गया। यदि अभिजित मुहूर्त को ही मानें तो कृष्ण का जन्म लग्न कृत्तिका तथा नक्षत्र रोहिणी।
यदि आज की दृष्टि से ठीक बारह बजे अर्धरात्रि मानें (जोकि तत्कालीन चलन अनुसार ठीक नहीं प्रतीत होता) तो उनका जन्म लग्न भी रोहिणी था।
अब आते हैं विजय मुहूर्त पर। यह रोचक है। अभिजित के पश्चात तीन मुहूर्त हैं - रौहिण, बल और विजय। रौहिण नाम रोचक है। सम्भव है कि उस दिन अभिजित बीत जाने पर रौहिण मुहूर्त में जन्म हुआ हो। रोहिणी नाम से साम्यता के कारण कालांतर में कुछ भ्रम हुआ हो।
रौहिण समाप्त हुआ रात के १२:२८:५९ पर। विजय मुहूर्त का आरम्भ रात के ०१:१६:५९+ से हुआ और ०२:०४:५९ पर समाप्त हो गया। किंतु तब चंद्र के रोहिणी में रहते हुये भी लग्न आर्द्रा हो गया जोकि ठीक नहीं है। अत: विजय मुहूर्त नहीं माना जा सकता।
अब आते हैं रौहिण की सम्भावना पर। रौहिण आरम्भ से सवा आठ मिनट पश्चात ही लग्न भी रोहिणी हो गया था। रात के १२:२५:३७+ तक लग्न भी रोहिणी है।
इस विश्लेषण, अर्द्धरात्रि, रोहिणी, अभिजित एवं ऐसे भी रोहिणी शब्द से कृष्ण के जुड़ाव को देखते हुये कुल मिला कर कृष्ण का जन्म पश्चिमी सौर सन्‌ की दृष्टि से १९/२० जुलाई को आज से ५२४७ वर्ष पूर्व रात में ११:४८:१६+ से १२:२५:३७+ के बीच हुआ।
इससे भी अधिक सूक्ष्म गणना हेतु विविध ग्रहों की स्थितियाँ भी देखनीं होंगी। उनके बारे में विद्वत्वर्ग एकमत नहीं है।
...
[राशियों का मूल ऋग्वेद में ही है जहाँ देवताओं के नामों के साथ उन्हें द्वादश आदित्यों से जोड़ कर जाना जाता था। ऋतु आधारित कृषि कार्य में सूर्य की मोटी स्थिति हेतु तीस अंश के इन विभाजनों से काम चल जाता था किंतु सूक्ष्म गणना, याज्ञिक सत्र, अन्य कर्मकाण्ड आदि हेतु नक्षत्र आधारित गणना ही प्रचलित थी जिसका स्थूल विवरण वेदाङ्ग ज्योतिष में मिलता है।
किंतु
यह भी सच है कि वर्तमान में प्रचलित राशि आधारित फलित ज्योतिष हमारे यहाँ पश्चिम से ही आई। देवता सम्बंधित सौर मास व आकाशीय विभाजन वाला ज्ञान बेबिलोन तक व्यापारी वर्ग एवं उद्योगी राजन्यों द्वारा पहुँचा जहाँ से मिस्र, रोम, ग्रीस आदि होते हुये वह स्वतंत्र रूप से विकसित हो कर शताब्दियों पश्चात हमारे यहाँ पहुँचा जिसे आगे की शताब्दियों में स्वतंत्र रूप से परिमार्जित करते हुये हमने अपना सैद्धान्‍तिक ज्योतिष बना लिया।
इसे बताने का उद्देश्य यह है कि ऊपर की सूक्ष्म गणना को तीस अंश के मोटे विभाजन वाले राशि-ज्ञान से नहीं तौला जाना चाहिये कि लग्न तो वृष था तो और आगे पीछे हो सकता है आदि आदि।]

राशियों के विकास पर विस्तार से जानने हेतु ये लेख अवश्य पढ़ें। जो लोग सब कुछ सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा द्वारा सूर्य को उपदिष्ट मानते हैं तथा सूर्य सिद्धांत नामक ग्रंथ को अपौरुषेय अकाट्य मानते हैं, उन्हें यह सब पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। बेबिलॉन एवं भारतीय ज्योतिष 1, 2, 3, 4 

शनिवार, 10 मार्च 2018

श्रीकृष्ण जन्म समय : महाभारत, हरिवंश एवं सर्वतोभद्र Birth of Krishna Mahabharat Harivansha Sarvatobhadra

Birth of Krishna Mahabharat Harivansha Sarvatobhadra
श्रीकृष्ण जन्म समय : महाभारत, हरिवंश एवं सर्वतोभद्र
महाभारत का खिलभाग 'हरिवंश', श्रीकृष्ण जीवन का सबसे प्राचीन एवं प्रामाणिक वृत्तान्‍त है। उसमें उनके जन्म का महीना नहीं दिया गया है।
उसके विष्णु पर्व में भगवान को अठमासा बताया गया। एक प्राचीन परम्परा वर्ष का आरम्भ माघ से बताती है। यदि वहाँ से आठ महीने गिनें तो भाद्रपद आता है, क्या ठीक है, ठीक ठीक तो संस्कृतज्ञ ही बता पायेंगे।
अर्द्धरात्रि को जन्म, अभिजित मुहूर्त। तैत्तिरीय ब्राह्मण अनुसार पाँचवा मुहूर्त अभिजित होता है। दिन के पन्द्रह मुहूर्तों को रात में दुहरा कर देखें तो अर्द्धरात्रि के समय अभिजित होने के लिये मुहूर्त (48 मिनट का समय) गणना का आरम्भ रात के 2 बजे से ठहरता है जिसे आज कल सैद्धांतिक ज्योतिष में जीव या अमृत नाम दिया जाता है।
दूसरा विजय नाम का मुहूर्त किसी अन्य नाम पद्धति (रात के लिये प्रचलित‌) से सम्बंधित प्रतीत होता है।
तारों भरी रात शर्वरी कहलाती है जोकि कृष्ण पक्ष की संकेतक है। समस्या जयन्ती नाम एवं अभिजित नक्षत्र से आती है।
सिनीवाली, राका इत्यादि अन्य रातों के नामों की भाँति सम्भव है कि अष्टमी की रात जयंती कहलाती हो किंतु अभिजित नक्षत्र?

अथर्वण संहिता में नक्षत्र 27 के स्थान पर 28 हैं जोकि प्राचीन पद्धति थी। उत्तराषाढ़ एवं श्रावण नक्षत्रों के बीच अभिजित नक्षत्र बताया गया है जोकि आज के अभिजित (Vega) से भिन्न है।

महाभारत में अभिजित के पतन की कथा है। उस कथा तथा सर्वतोभद्र चक्र को मिला कर देखने पर श्रीकृष्ण जन्म का नक्षत्र अभिजित या रोहिणी होने का मर्म स्पष्ट हो जाता है। 
महाभारत के वनपर्व में ऋषि मारण्‍डेय इन्द्र के माध्यम से बताते हैं - अभिजित रोहिणी की 'छोटी बहन' है जो स्पर्धावश तपस्या करने वन में चली गयी है। नक्षत्र के गगन से च्युत हो जाने के कारण मैं मूढ़ हो गया हूँ।
उन्हें उस ब्रह्मा से सलाह लेने की बात बताई जाती है जिन्हों ने धनिष्ठा सहित सभी नक्षत्रों को बना कर नभ में स्थापित किया। अभिजित का काम कभी रोहिणी करती थी।


स्पष्टत: यह संवाद उस नाक्षत्रिक गति को दर्शाता है जब महाविषुव मृगशिरा से हटते हुये रोहिणी को भी पार कर चुका था और कृत्तिका तक आने से पहले इन दोनों के मध्य छोटी बहन अभिजित 'कल्पित' की गयी। वह भी 'वन में चली गयी' अर्थात महाविषुव उससे भी हट गया। महाभारत का यह भाग भारतीय नक्षत्र गणना के स्वर्ण युग को दर्शाता है जब आकाश और भूमि की बातें संगति में थीं। आकाश में महाविषुव की सीध में कोई स्पष्ट नक्षत्रमंडल न होने पर अभिजित को गढ़ा गया और बाद में वन को भेज दिया गया क्यों कि उसके स्थान पर दूसरा नक्षत्र आ गया था। 28 से 27 नक्षत्र होने के पीछे यह कारण भी है। सम्पूर्ण विश्लेषण में कहीं भी न तो राशि नाम आया, न उसकी सहायता लेने की आवश्यकता पड़ी।
श्रीराम हों या श्रीकृष्ण, बहुत प्राचीन हैं, राशि आधारित सैद्धांतिक ज्योतिष से बहुत पहले के। राशियों की बातें अपेक्षतया नये ग्रंथों जैसे पुराणों में मिलती हैं या क्षेपक रूप में जोकि स्पष्टत: सैद्धांतिक गणना कर पुरा घटित को उनके अनुकूल वर्णित करने के प्रयास मात्र हैं।

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

....रोवें देवकी रनिया जेहल खनवा

वाराणसी। अर्धरात्रि। छ: साल पहले की बात। सम्भवत: दिल्ली से वापस होते रेलवे स्टेशन पर उतर कर बाहर निकला ही था कि कानों में कीर्तन भजन गान के स्वर से पड़े:
"....रोवें देवकी रनिया जेहल खनवा"
इतनी करुणा और इतना उल्लास एक साथ। कदम ठिठक गए। गर्मी की उस रात मय ढोलक झाल बाकायदे बैठ कर श्रोताओं के बीच मंडली गा रही थी। पता चला कि शौकिया गायन है, रोज होता है। धन्य बाबा विश्वनाथ की नगरी ! रुक गया - सुनने को।
" भादो के अन्हरिया
दुखिया एक बहुरिया
डरपत चमके चम चम बिजुरिया
केहू नाहिं आगे पीछे हो हो Sss
गोदि के ललनवा लें ले ईं ना
रोवे देवकी रनिया जेहल खनवा SS”
जेलखाने में दुखिया माँ रो रही है। प्रकृति का उत्पात। कोई आगे पीछे नहीं सिवाय पति के। उसी से अनुरोध बच्चे को ले लें, मेरी स्थिति ठीक नहीं है। मन भीग गया। लेकिन गायक के स्वर में वह उल्लास। करुणा पीछे है, उसे पता है कि जग के तारनहार का जन्म हो चुका है। तारन हार जिसके जन्म पर सोहर गाने वाली एक नारी तक नहीं ! क्या गोपन रहा होगा जो बच्चे के जन्म के समय हर नारी का नैसर्गिक अधिकार होता है। कोई धाय रही होगी? वैद्य?
देवकी रो रही है। क्यों? शरीर में पीड़ा है? आक्रोश है अपनी स्थिति पर ? वर्षों से जेल में बन्द नारी। केवल बच्चों को जन्म दे उन्हें आँखों के सामने मरता देखने के लिए। तारनहार को जो लाना था। चुपचाप हर संतान को आतताई के हाथों सौंपते पति की विवशता ! पौरुष की व्यर्थता पर अपने आप को कोसते पति की विवशता !! देवकी तो अपनी पीड़ा अनुभव भी नहीं कर पाई होगी। कैसा दु:संयोग कि एक मनुष्य विपत्ति में है लेकिन पूरा ज्ञान होते हुए भी अपने सामने किसी अपने को तिल तिल घुलते देखता है - रोज और कौन सी विपत्ति पर रोये, यह बोध ही नहीं। मन जैसे पत्थर काठ हो गया हो। देवकी क्या तुम पहले बच्चों के समय भी इतना ही रोई थी ? क्यों रो रही हो? इस बच्चे के साथ वैसा कुछ नहीं होगा
" ले के ललनवा
छोड़बे भवनवा कि जमुना जी ना
कइसे जइबे अँगनवा नन्द के हो ना"
इस भवन को छोड़ कर नन्द के यहाँ जाऊँ कैसे? बीच में तो यमुना है।

"रोए देवकी रनिया जेहल खनवा SSS”
माँ समाधान देती है।
"डलिया में सुताय देईं
अँचरा ओढ़ाइ देईं
मइया हई ना
रसता बताय दीहें रऊरा के ना,
जनि मानिं असमान के बचनवा ना
रोएँ देवकी रनिया जेहल खनवा SS

जेल मे रहते रहते देवकी रानी केवल माँ रह गई है। समाधान कितना भोला है ! कितना भरोसा । बच्चे को मेरा आँचल ओढ़ा दो ! यमुना तो माँ है आप को रास्ता बता देंगी। लेकिन यहाँ से इसे ले जाओ नहीं तो कुछ हो जाएगा।

तारनहार होगा कृष्ण जग का, माँ के लिए तो बस एक बच्चा है।
आकाशवाणी तो भ्रम थी नाथ ! ले जाओ इस बच्चे को ।. . . मैं रो पड़ा था।

उठा तो गाँव के कीर्तन की जन्माष्टमी की रात बारह बजे के बाद की समाप्ति याद आ गई। षोड्स मंत्र 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।' अर्धरात्रि तक गाने के बाद कान्हा के जन्म का उत्सव। अचानक गम्भीरता समाप्त हो जाती थी। सभी सोहर की धुन पर नाच उठते थे। उस समय नहीं हुआ तो क्या? हजारों साल से हम गा गा कर क्षतिपूर्ति कर रहे हैं।
"कहँवा से आवेला पियरिया
ललना पियरी पियरिया
लागा झालर हो
ललना . . . “
उल्लास में गवैया उत्सव के वस्त्रों से शुरू करता है।
"बच्चे की माँ को पहनने को झालर लगा पीला वस्त्र कहाँ से आया है?"
मुझे याद है बाल सुलभ उत्सुकता से कभी पिताजी से पूछा था कि जेल में यह सब? उन्हों ने बताया,
"बेटा यह सोहर राम जन्म का है।"
"फिर आज क्यों गा रहे हैं?"
"दोनों में कोई अंतर नहीं बेटा"
आज सोचता हूँ कि उनसे लड़ लूँ। कहाँ दिन का उजाला, कौशल्या का राजभवन, दास दासियों, अनुचरों और वैद्यों की भींड़ और कहाँ भादो के कृष्ण पक्ष के अन्धकार में जेल में बन्द माँ, कोई अनुचर आगे पीछे नहीं ! अंतर क्यों नहीं? होंगे राम कृष्ण एक लेकिन माताएँ? पिताजी उनमें कोई समानता नहीं !

हमारी सारी सम्वेदना पुरुष केन्द्रित क्यों है? राम कृष्ण एक हैं तो किसी का सोहर कहीं भी गा दोगे ? माँ के दु:ख का तुम्हारे लिए कोई महत्त्व नहीं !

वह बनारसी तुमसे अच्छा है। नया जोड़ा हुआ गाता है लेकिन नारी के प्रति सम्वेदना तो है। कन्हैया तुम अवतार भी हुए तो पुरुषोत्तम के ! नारी क्यों नहीं हुए ?