पहली किरणों के सम्मोहन से उबर किशोर ने झोला गले में लटकाया और द्वार की साँकल पर पाँव रख ऊपर चढ़ गया। काठ के तीरों से वस्त्र बचाते भीतर कूद पड़ा, भद्द!
एक किशोरी की चीख सुन वह चकित रह गया। बाहर उजाले में हरसिंगार से बरसते मदगन्ध तले पहुँचा और वह मुड़ी।
अपार सौन्दर्य! वैसा तो कभी देखा ही न था। दोनों को समझ में नहीं आया कि नवरातन के पहले दिन हेतु चोरी छिपे फूल लोढ़ने कोई अन्य भी वहाँ आ कैसे आ सकता है? किशोर ने पूछा, फूल लेने आई हो?
पाटल दल खुले और दाड़िम दन्तावली मुस्कुरा उठी, नयनों के भँवरे उड़ चले,"हाँ, मैं उधर से, पड़ाव के पार से आई हूँ... माँ ने बताया था।"
"किन्तु वहाँ तो बँगले पर ऐसे ही बहुत फूल हैं। यहाँ क्यों?"
"जवाकुसुम नहीं हैं।"
"जवाकुसुम?"
"हाँ, नहीं जानते? वो रहे।"
"वे तो अड़हुल हैं।"
"अड़हुल? .... छि! कैसा नाम!"
दाड़िम दन्तावली पुन: खिल खिल चमक उठी। किशोर को नाम की नहीं पड़ी थी और पड़ी भी थी। नये पाये नाम में उसे बिहाने बिहाने सन्ध्या सुन्दरी दिख रही थी - साँझ की लाली में उड़ते धवल क्षौम। वह कुछ और सोचता कि सुनाई पड़ा, वे फूल तोड़ दोगे?
कँटीले तारों के पार अँड़हुल, नहीं, जवाकुसुम खिले थे - लाल लाल।
काठ के तीरों से बचा कर आया था किन्तु कालायस के काँटे तो जैसे थे ही नहीं। कैसे उस पार गया, ज्ञात नहीं, लौटा तो नयनभ्रमर प्रतीक्षा में थे। दुपट्टा पसर गया - इसमें, इसमें रख दो।
किशोर ने रखा और बचते हुये हरसिंगार के पुहुप चुनने लगा। वैसा ऊँचा, घना वृक्ष उसने कभी न देखा था, धरती पर देवी के भूषण बिछे थे, रजतपुष्प हिरण्य बिन्दु।
"हे, हे... भुँइया के फूल नहीं चढ़ते!" किशोर ने बिना देखे ही जवाकुसुम फूलते सुना।
"अम्मा कहती हैं कि हरसिंगार में दोष नहीं लगता।"
"अरे, जब पेंड़ से ले सकते हो तो भुँइया के क्यों चुनना?"
"गिरेंगे तो भुँइया ही न?"
"बुद्धू, देखो इधर।"
किशोरी ने दुपट्टे का एक भाग भूमि पर बिछा दिया - अब हिलाओ पेंड़। देखूँ तो कितने बलवान हो!...
.... किशोर वृक्ष हिला रहा है। झर झर झरते पुष्प किसी के आँचल में गिर रहे हैं। मुग्ध हँसी है, अनार फूले हैं, दुग्ध अभिषेक हो रहा है!
"बस, बस, बस... मैं भी फूल भरी हो गई।"
किशोर को लगता है कि उसके केशों से कुछ फूल चुन लेने चाहिये किन्तु साहस नहीं होता।....
किशोरी ने पत्तों के दोने बनाये। उनमें हरसिंगार और जवाकुसुम भरे, किशोर के झोले में रखा - चलें अब?
किशोर अवाक सा या सपनों में या जाने कहाँ था। हाँ... कुछ और न कहा, जैसे आया, वैसे ही लौट गया।
दूसरे दिन से ले कर अष्टमी तक अनुमति नहीं मिली। अम्मा बोलती, साँप रहते होंगे उधर। वह मन ही मन कहता कि पहले दिन भी तो रहे होंगे, तब क्यों?
अन्तिम दिन पुन:। वहीं, वही दुहराव।
"अरे तुम बीच में आये ही नहीं?"
"नहीं, पहले और अन्तिम दिन ही विशेष होता है हमारे यहाँ तो।"
"हुस्स... नवो दिन होना चाहिये। इधर का लोग बोका है।"
"मैं नहीं था तो जवाकुसुम कैसे?"
किशोरी ने मुँह बना लिया - ट्राई की थी, यह देखो! उसकी बाँह पर गहरी खँरोचें थीं।
"माँ ने देखा तो माली को बोल दिया लाने को। मैं तो केवल शेफा... जानते हो, हरसिंगार को शेफाली बोलते हैं, शेफालिका। मेरा नाम भी शेफाली है... मैं तो बिना भुँइया गिरे फूल लेने आती थी, उतना नहीं हो पाता था जितना पहले दिन... तुम हर दिन आते तो कितना अच्छा होता।"
जवाकुसुम चुन गये, दुपट्टे पर शेफालियाँ बरस गईं। दोने बनते व भरते देखता रहा किन्तु किशोर आगे कुछ पूछ नहीं पाया।
चलने के समय दाड़िम दन्तावली खिली, सोम को कलकत्ता चली जाऊँगी। जिसे माँ कहती हूँ न, वो मेरी मासी है। चलें अब?
"हाँ"
कुछ पग ही चला होगा कि सुनने को मिला... तुम बोका हो। खिल खिल खिल.... हरसिंगार की मादक गन्ध थी या हँसी की, किशोर कब घर पहुँचा, पता ही नहीं चला।
तब से आज तक हर लता, हर वनस्पति में वह शेफाली देखता है और उसे केवल एक रहस्य न जान पाने का दु:ख रहता है - वह भीतर आती कैसे थी? क्या वह भी द्वार के ऊपर से कूद कर?... नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।