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______________________________________________________________________यह कोई नई कथा नहीं है। इसे अनेक ने अपने अपने ढंग से सुनाया है।
मैंने सोचा कि मैं भी एक संस्करण प्रस्तुत करूँ।
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एक बड़ा ही उद्विग्न युवा था जिसे जीवन की सिद्धि, अर्थ, उद्देश्य आदि से जुड़े प्रश्न उतप्त किये रहते। किसी साधु पुरुष ने उसे पर्वत की ऊँचाई पर रहने वाले ध्यानी बाबा के बारे में बताया कि तुम्हें वहाँ समाधान मिल सकते हैं।
अरुणोदय की बेला में युवक यह सोच कि सूरज चढ़े, इससे पूर्व ही पहुँच जाऊँगा, चढ़ने लगा।ऊँचाइयाँ छली होती हैं, जितनी दिखती हैं, उससे बहुत अधिक होती हैं। यह अनुभव मानव के अन्तर्मन में जाने कितने युगों से भरा है। इस कारण ही ऊँचाइयों की यात्रा लोग नहीं करते, गिरने का भय तो रहता ही है, कष्टों एवं अवधि की सोच प्राण काँपते हैं जब कि साधक पहले दुर्गम की ओर ही भागते हैं।
युवक साधक था, चढ़ता रहा, भूधर भी उठता रहा। युवक को लगने लगा मानों अन्तहीन यात्रा है। अपराह्न हुआ, सन्ध्या की बेला होने को आई, तब उक्त अगस्त्य के समक्ष विन्ध्य नतमस्तक हुआ कि पहुँच गये तुम, मैं अब और नहीं बढ़ सकता।
युवक ने देखा कि एक कुटीर से धुँआ उठ रहा था तथा पक्षियों की चहचह के बीच कभी कभी बाँसुरी भी सुनाई दे रही थी। युवक साँसें छोड़ता, भागता वहाँ पहुँचा। देखा कि एक वृद्ध कोई पेय बनाने में लगा हुआ था। युवक ने छूटते ही पूछा - जीवन क्या है?
वृद्ध ने सिर उठाया। श्वेत श्मश्रु भरे मुखमण्डल पर किरणों की पीताभा स्मित संग लहक उठी - बैठो बेटे, थके हो, कहवा पी लो, बात को तो पूरी रात पड़ी है!
प्रस्तर शिला पर बैठे युवक के चषक में वृद्ध साधक कहवा उड़ेलने लगा। उसमें इतनी लय थी कि युवक मुग्ध हो गया। युवक सहसा चिल्लाया, रुकिये रुकिये! चषक भर गया है। आप को दिखता नहीं क्या?
वृद्ध पूर्ववत उड़ेलता रहा। कहवा चषक-अधर से प्रपात की भाँति गिरता रहा। युवक आँखे फाड़े देखता रहा। पात्र रिक्त कर वृद्ध युवक के पार्श्व में बैठ गया। युवक ने पूछा, बताने पर भी आप ने ऐसा क्यों किया? कहीं आप नेत्रबाधित तो नहीं? आप के लिये तो कुछ बचा ही नहीं?
क्षितिज पर पसरी अरुणाभ चूनर में खोये वृद्ध ने उत्तर दिया, अन्धे हमसे अधिक दृष्टिसम्पन्न होते हैं क्यों कि वे सदैव अन्धकार में ही विचरते हैं। छोड़ो, जानो कि कुछ नया पाने हेतु पहले जो भरा हुआ है, उसे रिक्त करना होता है, अन्यथा कहवे की भाँति ही नया प्रयाण कर जाता है। जो बह गया है, वह नदी हो जायेगा, सदा प्रवाही किन्तु उसे कोई बता नहीं पायेगा। कोई नहीं जानेगा कि एक साँझ को बड़े प्रेम से बना कर उसे एक बूढ़े ने बहा दिया था क्योंकि उसे जो किसी के मन पर लिखना था, उस हेतु शब्द समर्थ नहीं थे।
बेटे, शब्द संवाद के सबसे असक्षम उपादान हैं। इस कारण ही सर्वसटीक संवाद मौन में होता है, उससे नीचे उतर सूत्रों में बात होती है, उससे आगे वाद विवाद होता है। वाद विवाद हेतु कोई पर्वत नहीं चढ़ता। है कि नहीं?
पहले स्वयं को रिक्त करो, अब तक जो सीखा है, उसे बाँध कर कुटिया में रख आओ। देखो, पूर्ण चन्द्र उग आये हैं। आज पूर्णिमा की रात सोमसञ्चय को चषक रिक्त रखो।
कहते हैं कि वह रात बीती ही नहीं। आज भी उस व्याकुल युवा जैसे जन उसमें विचरते रहते हैं।