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रविवार, 21 मार्च 2021

सदातन रात

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यह कोई नई कथा नहीं है। इसे अनेक ने अपने अपने ढंग से सुनाया है।
मैंने सोचा कि मैं भी एक संस्करण प्रस्तुत करूँ। 

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 एक बड़ा ही उद्विग्न युवा था जिसे जीवन की सिद्धि, अर्थ, उद्देश्य आदि से जुड़े प्रश्न उतप्त किये रहते। किसी साधु पुरुष ने उसे पर्वत की ऊँचाई पर रहने वाले ध्यानी बाबा के बारे में बताया कि तुम्हें वहाँ समाधान मिल सकते हैं।

अरुणोदय की बेला में युवक यह सोच कि सूरज चढ़े, इससे पूर्व ही पहुँच जाऊँगा, चढ़ने लगा।
ऊँचाइयाँ छली होती हैं, जितनी दिखती हैं, उससे बहुत अधिक होती हैं। यह अनुभव मानव के अन्तर्मन में जाने कितने युगों से भरा है। इस कारण ही ऊँचाइयों की यात्रा लोग नहीं करते, गिरने का भय तो रहता ही है, कष्टों एवं अवधि की सोच प्राण काँपते हैं जब कि साधक पहले दुर्गम की ओर ही भागते हैं।
युवक साधक था, चढ़ता रहा, भूधर भी उठता रहा। युवक को लगने लगा मानों अन्तहीन यात्रा है। अपराह्न हुआ, सन्ध्या की बेला होने को आई, तब उक्त अगस्त्य के समक्ष विन्ध्य नतमस्तक हुआ कि पहुँच गये तुम, मैं अब और नहीं बढ़ सकता।
युवक ने देखा कि एक कुटीर से धुँआ उठ रहा था तथा पक्षियों की चहचह के बीच कभी कभी बाँसुरी भी सुनाई दे रही थी। युवक साँसें छोड़ता, भागता वहाँ पहुँचा। देखा कि एक वृद्ध कोई पेय बनाने में लगा हुआ था। युवक ने छूटते ही पूछा - जीवन क्या है?
वृद्ध ने सिर उठाया। श्वेत श्मश्रु भरे मुखमण्डल पर किरणों की पीताभा स्मित संग लहक उठी - बैठो बेटे, थके हो, कहवा पी लो, बात को तो पूरी रात पड़ी है!
प्रस्तर शिला पर बैठे युवक के चषक में वृद्ध साधक कहवा उड़ेलने लगा। उसमें इतनी लय थी कि युवक मुग्ध हो गया। युवक सहसा चिल्लाया, रुकिये रुकिये! चषक भर गया है। आप को दिखता नहीं क्या?
वृद्ध पूर्ववत उड़ेलता रहा। कहवा चषक-अधर से प्रपात की भाँति गिरता रहा। युवक आँखे फाड़े देखता रहा। पात्र रिक्त कर वृद्ध युवक के पार्श्व में बैठ गया। युवक ने पूछा, बताने पर भी आप ने ऐसा क्यों किया? कहीं आप नेत्रबाधित तो नहीं? आप के लिये तो कुछ बचा ही नहीं?
क्षितिज पर पसरी अरुणाभ चूनर में खोये वृद्ध ने उत्तर दिया, अन्धे हमसे अधिक दृष्टिसम्पन्न होते हैं क्यों कि वे सदैव अन्धकार में ही विचरते हैं। छोड़ो, जानो कि कुछ नया पाने हेतु पहले जो भरा हुआ है, उसे रिक्त करना होता है, अन्यथा कहवे की भाँति ही नया प्रयाण कर जाता है। जो बह गया है, वह नदी हो जायेगा, सदा प्रवाही किन्तु उसे कोई बता नहीं पायेगा। कोई नहीं जानेगा कि एक साँझ को बड़े प्रेम से बना कर उसे एक बूढ़े ने बहा दिया था क्योंकि उसे जो किसी के मन पर लिखना था, उस हेतु शब्द समर्थ नहीं थे।
बेटे, शब्द संवाद के सबसे असक्षम उपादान हैं। इस कारण ही सर्वसटीक संवाद मौन में होता है, उससे नीचे उतर सूत्रों में बात होती है, उससे आगे वाद विवाद होता है। वाद विवाद हेतु कोई पर्वत नहीं चढ़ता। है कि नहीं?
पहले स्वयं को रिक्त करो, अब तक जो सीखा है, उसे बाँध कर कुटिया में रख आओ। देखो, पूर्ण चन्द्र उग आये हैं। आज पूर्णिमा की रात सोमसञ्चय को चषक रिक्त रखो।
कहते हैं कि वह रात बीती ही नहीं। आज भी उस व्याकुल युवा जैसे जन उसमें विचरते रहते हैं।

शनिवार, 18 अगस्त 2018

बोध कथा एक , पुरानी परिचित : ... यही दृष्टि है


'तुम स्त्री को नहीं देखोगे।'
'यदि वह देखे तो?'
'तो भी नहीं।'
'स्त्री से बोलना मत!'
'यदि वह कुछ पूछे या कहे तो?'
'तो भी नहीं।'
'स्त्री को सुनना मत!'
'वह स्वयं पुकारे तो?'
'तो भी नहीं।'
'स्त्री का स्पर्श नहीं करोगे।'
'यदि वह स्वयं स्पर्श करे तो?'
'तो भी नहीं।'
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सन्न्यस्त आचार्य अपने शिष्य को प्रात:काल का उपदेश दे रहे थे। शिष्य हर बात को मन में अश्म रेख की भाँति बैठाता जा रहा था। सूरज आधा बाँस चढ़ आया तो आचार्य ने कहा - अब हमें प्रस्थान करना चाहिये। नाविक चला जायेगा तो पार होना दुष्कर हो जायेगा। 
दोनों नदी तट पहुँचे, न कोई नाव थी, न कोई नाविक। नदी का प्रवाह मन्थर था, तैर कर पार किया जा सकता था। प्रतीक्षा लम्बी होने लगी तो दोनों ने तैर कर पार करना उचित समझा। 
उसी समय एक युवती वहाँ विह्वल स्थिति में पीछे से आई तथा दोनों से हाथ जोड़ पार कराने की प्रार्थना करने लगी। शिष्य ने तो आँखें नीचे ही झुका रखी थीं, मन ही मन प्रतीक्षा करने लगा कि देखें, अब गुरु क्या करते हैं, उपदेश तो बहुत दिये थे ! कनखियों से देख भी चुका था कि युवती सुन्दर थी। 
गुरु ने उससे कहा - वत्स ! दुखिया है, उसे पार कराओ। शिष्य ने समझा कि परीक्षा ले रहे हैं। उसने उत्तर दिया - क्षमा आचार्य, यह आप की शिक्षाओं के विपरीत होगा। हमें इस माया को यहीं छोड़ चल देना चाहिये। 
गुरु ने युवती से कहा - स्थविर आयु है किन्‍तु तुम्हें पार करा सकता हूँ। मेरी पीठ पर सवार हो अपने को इस ओढ़नी से दृढ़ता से मुझसे बाँध लो। हम तैर कर पार कर लेंगे। 
शिष्य इस प्रस्ताव से आश्चर्य में पड़ गया किन्‍तु मौन ही रहा। आचार्य ने युवती को पीठ पर चढ़ाया एवं तैर कर उस पार उतार दिया। धन्यवाद देती वह अपने मार्ग गई। उन दोनों ने भी पन्‍थशाला का मार्ग पकड़ा। 
... 
शिष्य दु;खी था, बहुत दु:खी। आचार्य भ्रष्ट हो चुके थे। शिक्षा के मध्य में ही इनका त्याग करना होगा, यह सोचते हुये वह उद्विग्न मन से साथ बना रहा। पहुँचते पहुँचते संध्या हो गई। संध्या वन्दन एवं अल्पाहार के पश्चात आचार्य विश्राम की मुद्रा में लेट गये। शिष्य भी पार्श्व में पड़ रहा। 
कुछ ही समय में आचार्य गहरी नींद में खो गये किन्‍तु शिष्य करवटें लेता रहा। आधी रात तक जब नींद नहीं आई तो उसने सोचा कि अब क्या सम्मान करना? जगा ही देते हैं। 
आचार्य को उसने पुकार कर जगाया एवं रुष्ट स्वर में बोला,"मैं आप का त्याग कर रहा हूँ, आप भ्रष्ट हो गये हैं।" 
आचार्य ने साश्चर्य पूछा,"वत्स ! मैं भ्रष्ट ? कैसे ?"
शिष्य ने उत्तर दिया,"आप ने एक सुंदरी युवती को पीठ पर आरूढ़ करा नदी पार कराया। उसके अङ्ग लम्बे समय तक आप से लगे रहे ! अपनी शिक्षा का भी सम्मान नहीं करते, ढोंगी हैं आप! छि: !!"
गुरु अट्टहास कर उठे,"वत्स ! मैं तो पार कराते ही उससे मुक्त हो गया था। वह दुखिया भी मुझसे उसी समय मुक्त हो गई। तुमने तो उसकी कोई सहायता भी नहीं की थी ! किन्‍तु अब तक ढोये जा रहे हो? वह तुम्हारे मन मस्तिष्क पर सवार है। सच कहो, देखा था न उसे?"
शिष्य ने रूँधे गले से कहा - हाँ एवं फूट फूट कर रोने लगा। 
आचार्य उसका सिर अपनी गोद में ले सान्त्वना देने लगे - गुरु का कहा मानना चाहिये वत्स ! न मानने से शिष्य नरकगामी होता है। 
तुमने आज दारुण नरक भोगा है। अब मुक्त हो। शान्‍त हो सो जाओ। प्रात:काल बातें करेंगे। 
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'तुम स्त्री को नहीं देखोगे।' 
'कदापि नहीं आचार्य! मैं उसे देख कर भी नहीं देखूँगा।' 
'यदि वह देखे तो?' 
'मैं नहीं देखूँगा तो वह कैसे देख सकेगी?' 
'हाँ वत्स ! यही दृष्टि है।'
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शनिवार, 30 अप्रैल 2011

जोरू से बिगड़ी बात, हुये जाति से बाहर

बहुत दिनों पहले किसी पुरवे में एक आदमी रहता था। वह अपनी जाति पंचायत का मुखिया था। बहुत अनुशासनप्रिय था और निर्मम दंड देने के लिये जाना जाता था। एक दिन उसे कुलदेवी का सपना आया - तुम दंड देने में बहुत निर्मम हो गये हो। यह ठीक नहीं। अपने को सुधारो। 
सबेरे उसने अपनी पत्नी को बात बताई तो उस भली महिला ने उसे राह सुझाई - दंड ऐसा दो कि लोग बहुत दुखी न हों और भय भी बना रहे। 
मुखिया झुँझलाया - अपने पुओं की तरह नीरस गोलगाल बातें न करो। साफ साफ कहो। 
उसकी पत्नी ने समझाया कि मेंड़ डाड़ पर गोरू के मुँह मारने जैसी शिकायतों पर कुछ न करो, समझा दिया करो। बाकी जहाँ चार पैसे जुर्माना लगाते हो उसे एक पैसा कर दो। 
वह मान गया और कुछ दिन मामला ठीक चला लेकिन उसे यह लगने लगा कि लोगों ने उसे भाव देना बन्द कर दिया है। और जातियों के मुखिया उसकी खिल्ली उड़ाने लगे। पंचायत में धन की कमी हो गई लिहाजा उस वर्ष कुलदेवी की पूजा भी ठीक से नहीं हुई। लोग नाराज़ हो गये क्यों कि उन्हें तो धूम धड़ाके की आदत पड़ चुकी थी।
पत्नी ने कहा - इस तरह पूजा पाठ करना बेकार है। अगली बार मुझे पियरी ला देना। हम औरतें यह काम कर लेंगी। मुखिया को बात बुरी लगी और उसने अपनी पत्नी को खूब खरी खोटी सुनाई।    
कुछ दिनों में उसके दाहिने हाथ ने काँप पकड़ ली। कुलदेवी ने फिर दर्शन दिया - पैसे का दंड लगाना छोड़ दो हाथ ठीक हो जायेगा। उसने वैसा ही किया। हाथ ठीक होता गया और उसकी इज़्ज़त और कम होती गई। 
दूसरे साल की पूजा उसे अपने धन से करानी पड़ी। उसे इसका दुख नहीं था लेकिन दिन ब दिन घटती प्रतिष्ठा से वह बहुत परेशान हो गया। अब देवी ने भी दर्शन देना बन्द कर दिया था जैसे उन्हें उसकी इज़्ज़त से कुछ लेना देना ही नहीं! 
उसने अपनी पत्नी से फिर सलाह लिया। उसकी पत्नी ने कहा - अपनी इज़्ज़त अपने हाथ। 
उसे फिर समझ में नहीं आया। पूछने पर उत्तर मिला - इतनी सीधी बात नहीं समझ सकते तो जाति के मुखिया क्यों बने बैठे हो? छोड़ दो। 
छोड़ने की बात करती है!  उसे अपनी जोरू जबर लगी। उसने बात नहीं मानी, झुँझलाया भी कि इज़्ज़त के चक्कर में हाथ काँपना फिर से न शुरू हो जाय। लेकिन उसे एक बात समझ में आ गई कि उसे ही कुछ करना पड़ेगा। उसने यह भी तय किया कि अपनी पत्नी से सलाह लेना बन्द कर देगा। 
अब वह अपने पुराने ढर्रे पर लौट आया। हाथ काँपने के डर से पैसे का दंड लगाना तो बन्द रखा लेकिन बात बेबात लोगों को जाति बाहर करने लगा। कुछ ऐसे जैसे बकरी दूसरे के खेत में गई - परिवार जाति बाहर!
कुछ दिन बीते और उसे महसूस होने लगा कि खोई इज़्ज़त वापस आने लगी थी। एक दिन कुलदेवी ने सपने में फिर दर्शन दिये - तुमने अपनी हरकत नहीं सुधारी तो मैं तुम्हें छोड़ जाऊँगी। 
उसे कुलदेवी की धमकी समझ में नहीं आई। छोड़ने से क्या मतलब? मारे ज़िद के अपनी पत्नी से भी नहीं पूछा। 
कुछ दिन और बीते। 
एक सुबह उसके द्वारे उसकी बिरादरी वाले आये। एक ने आगे बढ़ कर कहा - हम तुम्हें विदाई देने आये हैं। जाति से विदाई।
मुखिया ने पूछा - इसका क्या मतलब? 
उसे उत्तर मिला - तुम निरे मूरख हो। तुम्हारी लोगों को जाति बाहर करने की आदत के कारण अब सिवाय तुम पति पत्नी के कोई और जाति में बचा ही नहीं। हम जातिबाहर लोगों ने मिल कर खुद को जाति में शामिल कर लिया है और तुम्हें जाति बाहर। 
बात यूँ बिगड़ी देख वह घर में घुसा कि पत्नी से सलाह ले, वह वहाँ नहीं थी। भीड़ में से एक बूढ़े ने बताया - वह तुम्हें छोड़ गई। कह रही थी कि उसने तुम्हें आगाह भी किया था लेकिन तुम नहीं माने। 
वह सिर पकड़ कर बैठ गया। उसे सब समझ में आने लगा। 
     
              

शनिवार, 27 नवंबर 2010

ज्ञान साधना में पायरिया और खजुहट - सब लगने का खेल

एक महात्मा थे। साधना में एक ऐसा दौर आया कि दातून करना, नहाना सब छोड़ दिए क्यों कि उन्हें लगा कि इनसे जीवहत्या होती है।

जब पायरिया और खजुहट से त्रस्त हुए कुछ समय बीत गया तो एक दिन लगा कि दातून और नहाना छोड़ने से भी एक जीव को कष्ट हो रहा है, शायद मृत्यु भी हो जाय। खजुहट से कुत्ते मरते भी देखे थे और देह, मुँह से आती दुर्गन्ध से  भक्त जनों के कष्ट भी। 
ज्ञान अनुसन्धान की आगे की यात्रा उन्हों ने दातून और स्नान के बाद प्रारम्भ की लेकिन जीवन भर खजुआते रहे और बात करते गन्धाते रहे...

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(2) एक देहाती बोध कथा
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