सोमवार, 23 जनवरी 2012

प्रेम और सुभाषचन्द्र बोस: An Indian Pilgrim ...Ich denke immer an Sie


सुभाषचन्द्र बसु ( टोकियो, नवम्बर 1943)
भारत में कुछ नायकों को लोग न मृत्यु बदा होने देते हैं और न प्रेम।
सुभाष चन्द्र बोस ऐसे ही नायक हैं। यह बात अलग है कि उन्हों ने प्रेम किया, विवाह किया और कुछ सप्ताह की पुत्री को छोड़ संसार से विदा भी हुये।
परी देश की कहानी सी लगती है यह प्रेम कहानी लेकिन त्रासद है। देश और प्रेमिका के प्रेम को साथ साथ साधने में अदम्य साहस और कर्म का परिचय देते सुभाष बाबू के जीवन के इस पक्ष से साक्षात्कार होने पर उनके प्रति और प्यार उमड़ता है। साथ ही यह खीझ भरी सीख भी पुख्ता होती है कि प्रेम की राह में काँटे बहुत होते हैं।

समर के संगी दो प्रेमी 
ऑस्ट्रिया में जन्मी और आयु में तेरह वर्ष छोटी एमिली शेंकेल  (Emilie Schenkl) से उनकी मुलाकात यूरोप निर्वासन के दौरान जून 1934 में वियना में हुई। विशार्ट नामक कम्पनी ने सुभाष बाबू को 1920 से आगे भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन पर पुस्तक लिखने को कहा था। अपनी पुस्तक के लिये अंग्रेजी जानने वाले किसी सहायक की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति एमिली ने की और दोनों के सम्बन्ध प्रगाढ़ होते चले गये। एमिली सज्जन, प्रसन्न और नि:स्वार्थ प्रकृति की महिला थीं। उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण सुभाष बाबू उन्हें प्यार से बाघिन कह कर पुकारते थे। एमिली ने बाद में बताया कि प्रेम में पहल सुभाष बाबू ने ही की थी।
  
दिसम्बर 1937 में दोनों ने गुप्त रूप से हिन्दू रीति के अनुसार विवाह कर लिया। उस समय जर्मनी में भिन्न नृवंश केमनुष्यों में आपसी विवाह पर रोक थी।

नवम्बर 1942 में उनकी एकमात्र पुत्री अनीता का जन्म हुआ और कुछ दिनों पश्चात सुभाष बाबू की रहस्यमय(विवादास्पद) दुर्घटनाजन्य मृत्यु हो गई। परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि सुभाष बाबू ने अपने जीवन के इस पक्ष को गोपनीय रखा और अंतिम यात्रा के कुछ पहले ही अपने भाई शरत बाबू को यह बात लिखी जिसमें पत्नी और बेटी का खयाल रखने का अनुरोध भी था। मृत्यु की तरह ही उनका प्रेम सम्बन्ध और वैवाहिक जीवन विवादास्पद हुए। दोनों के प्रेमपत्रों की असलियत पर प्रश्न उठाये गये और सुभाष बाबू के चरित्र और यूरोप जाने के असली मंतव्य पर लांछ्न लगाये गये। उन्हें कायर भी कहा गया जिसने अपने प्रेम सम्बन्ध को दुनिया से छिपाये रखा और बाद में पत्नी और पुत्री को धक्के खाने के लिये छोड़ दिया।

लोग भूल जाते हैं कि जो योद्धा होगा वह प्रेमी भी होगा। बिना प्रेम के, बिना उस भीतरी आग के कोई महान योद्धा नहीं हो सकता।

देखें उनके प्रेमपत्रों से कुछ अंश:

 कभी कभी तैरता हिमशैल भी पिघल जाता है, वैसा ही मेरे साथ हुआ है।...क्या इस प्यार का कोई लौकिक उपयोग है? हम जो कि दो अलग से देशों के वासी हैं, क्या कुछ भी हम दोनों में एक सा है? मेरा देश, मेरे लोग, मेरी परम्परायें, मेरी आदतें, रीति रिवाज, जलवायु ....असल में सबकुछ तुमसे और तुम्हारे परिवेश से अलग है। इस क्षण मैं वे सारे भेद भूल गया हूँ जो हमारे देशों को अलग बनाते हैं। मैंने तुम्हारे भीतर की स्त्री से प्रेम किया है, तुम्हारी आत्मा से प्रेम किया है।
एक खास प्रेमपत्र
नज़रबन्दी के दौरान उनके पत्र सेंसर किये जाते थे। अकेलेपन के इस दौर में एमिली के पत्रों से उन्हें आस मिलती। इस दौरान के औपचारिक पत्रों में भी अपने प्रेम को व्यक्त करने की राह उन्हों ने ढूँढ ली। उन्हों ने कालिदास के नाटक शकुंतला से प्रेरित गोथे की एक कृति के पहले भेजे अंग्रेजी अनुवाद का जर्मन मूल एमिली से ढूँढ़ने को कहा और इसे उद्धृत किया:
Wouldst thou the young year’s blossoms and the fruits of its decline,
And all whereby the soul is enraptured, feasted fed:
Wouldst thou the heaven and earth in one sole name combine,
I name thee, oh Shakuntala! And all at once is said.
कांग्रेस का दुबारा सभापति न बनने की दशा में उन्हों ने 4 जनवरी को यह पत्र लिखा:
 “...एक तरह से यह अच्छा होगा। मैं अधिक मुक्त रहूँगा और स्वयं के लिये मेरे पास अधिक समय रहेगा।“ उन्हों ने आगे जर्मन में जोड़ा ‘Und wie geht es Ihnen, meine Liebste? Ich denke immer an Sie bei Tag und bei Nacht.’ (और तुम कैसी हो मेरी प्रिये! दिन और रात हर समय मैं तुम्हें ही सोचता रहता हूँ।)“
एमिली हमेशा उनके लिये अति खास रहीं। अपनी पुस्तक में उन्हों ने केवल एमिली को ही नाम लेकर आभार व्यक्त किया। 29 नवम्बर 1934 को उन्हों ने पत्र में लिखा:

मैं यह पत्र एयरमेल से भेज रहा हूँ। किसी को यह न बताना कि मैंने तुम्हें एयरमेल से पत्र भेजा है, क्यों कि मैं और किसी को भी एयरमेल से पत्र नहीं भेजता हूँ – उन्हें यह ठीक नहीं लग सकता है।

एक और स्थान पर उन्हें दिल की रानी कहते हुये सुभाष बाबू लिखते हैं:
  तुम पहली स्त्री हो जिसे मैंने प्यार किया है...ईश्वर से प्रार्थना है कि तुम ही अंतिम रहो...मैंने कभी नहीं सोचा था कि किसी स्त्री का प्रेम मुझे बाँध लेगा। पहले कितनी स्त्रियों ने मुझे चाहा लेकिन मैंने उनकी ओर कभी नहीं देखा। लेकिन तूने बदमाश! मुझे पकड़ ही लिया।“ 
1937 के एक बहुत ही आर्द्र और सान्द्र पत्र में उन्हों ने लिखा:
... तुम हमेशा मेरे साथ हो। सम्भवत: मैं संसार में और किसी के बारे में सोच ही नहीं सकता।...मैं तुम्हें बता नहीं सकता कि बीते महीने मैंने कितना दुख और अकेलापन महसूस किया है। केवल एक चीज मुझे प्रसन्न कर सकती है – लेकिन मैं नहीं जानता कि वह सम्भव भी है। फिर भी मैं उसके बारे में दिन रात सोच रहा हूँ और ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूँ कि मुझे सही राह दिखाये ...”
दिसम्बर 1937 में An Indian Pilgrim नाम से उन्हों ने अपनी अधूरी आत्मकथा लिखना प्रारम्भ किया। उसमें उन्हों ने लिखा:
मेरे लिये सत्य का आवश्यक अंग प्रेम है। प्रेम जगत का सार है और मानव जीवन में आवश्यक तत्त्व है ...मैं अपने चारो ओर प्रेम का खेल देखता हूँ; मैं अपने भीतर उसे ही पाता हूँ; मुझे लगता है कि अपनी पूर्णता के लिये मुझे अवश्य प्रेम करना चाहिये और जीवन की पुनर्रचना के लिये मुझे प्रेम की एक मौलिक सिद्धांत के रूप में आवश्यकता है।“
एक पत्र में वह एमिली को समय पर दवाइयाँ लेने, वर्तनी की अशुद्धियों में सुधार करने और उन्हें उनकी वास्तविक जन्मतिथि, जन्म समय और स्थान भेजने को कहते हैं। उन्हों ने लिखा:
” Ich denke immer an Sie – Warum glauben Sie nicht?’ (मैं तुम्हारे बारे में हमेशा सोचता रहता हूँ। तुम मेरा भरोसा क्यों नहीं करती?). ....“Ich weiss nicht was ich in Zukunft tun werde. Bitte sagen Sie was ich machen soll (मुझे नहीं पता कि मैं भविष्य में क्या करूँगा। मुझे बताओ न कि मुझे क्या करना चाहिये)...Ich denke immer an Sie. Viele Liebe wie immer (मैं तुम्हारे बारे में हमेशा सोचता रहता हूँI हमेशा की तरह ढेर सारा प्यार) ”.
घोषित रूप से अपने पहले प्यार ‘देश’ और अपनी गुप्त ‘हृदयेश्वरी’ के प्रेम की पीर को जीते सुभाष बाबू की मन:स्थिति को सोच आँखें भर आती हैं। उनका अंतिम पत्र यह था:
“...मैं नहीं जानता कि भविष्य ने मेरे लिये क्या रख छोड़ा है। हो सकता है कि मैं अपना जीवन जेल में ही बिता दूँ, मारा जाऊँ या फाँसी पर चढ़ा दिया जाऊँ। चाहे जो हो, मैं तुम्हें याद करता रहूँगा और तुम्हारे प्यार के लिये तुम्हें अपनी मौन कृतज्ञता व्यक्त करता रहूँगा। हो सकता है कि मैं तुम्हें फिर कभी न देख पाऊँ .... हो सकता है कि लौटने पर तुम्हें लिखने लायक भी न रह पाऊँ...लेकिन मेरा भरोसा करो कि तुम हमेशा मेरे हृदय में रहोगी, मेरी सोच में रहोगी और मेरे सपनों में रहोगी। यदि भाग्य हमें इस जीवन में अलग कर देगा तो अगले जन्म में भी मैं तुम्हें चाहूँगा।
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अनीता और एमिली
अगस्त 1945 के अंत की एक साँझ एमिली अपने वियना के घर की रसोई में बैठी ऊन का गोला बनाती रेडियो पर समाचार सुन रही थीं। अचानक ही रेडियो ने घोषणा की कि भारतीय ‘क़िस्लिंग’ सुभाष चन्द्र बोस एक विमान दुर्घटना में तायहोकू (ताइपेय) में मारे गये हैं। एमिली की माँ और बहन ने उन्हें भौंचक्के हो कर देखा। वह धीरे से उठीं और बेडरूम की ओर गईं जहाँ उनकी पुत्री अनीता गहरी नींद में सोई हुई थी। उसके बिस्तर के बगल में झुक कर वह रोने लगीं।
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आभार: द टेलीग्राफ (कलकत्ता); हिन्दुस्तान टाइम्स; टाइम्स ऑफ इंडिया और सर्मिला बोस  

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

पुन: कब ...


भूमि से नीचे बहुत, कहीं बहुत गहरे है एक आसमान
कोर से उछलती दमकती बिजलियाँ हैं मेरुप्रभा का आसमान
उसके छाये में पलते घने दरख्त, मनुष्य, पशु, हैवान, फरिश्ते
बहती हैं नदियाँ जिनमें पानी नहीं काला शोणित अश्यान अप्राण।
दिन और रात नहीं होते वहाँ, घड़ी घड़ी हैं पुकारें दहाड़ सी
समय की बीत जताती ज्वालामुख जिह्वा करती रह रह फुफकार
कानों में घुसती है चुम्बकीय हवा के संग बिन सूरज प्रकाशमान
करती स्तवन तुम सब, तुममें सब रूप, तुम सर्वशक्तिमान।

मैं आ गया हूँ, पहुँच गया हूँ। चौथा या पाँचवाँ जाने कौन सा?
हाथ पाँव सही सलामत, कोई दर्द कहीं नहीं, न देह का पता
मैं स्वस्थ हूँ, सुरक्षित हूँ, बस मस्तिष्क की जगह कोई जड़ पिंड है
याद आता नहीं कि किसी उभरे शिलाखंड से टकराया सिर गिरते हुये
याद है भी, होती भी है? जड़ है फिर भी प्रश्न उठते हैं पिंड में
कहते हैं दिमाग को काटो तो दर्द नहीं होता, चोट लगी तो कहाँ लगी?

एक साथ ज्यों पीठ ठोंकी है हजार हाथों ने सब ठीक है, ऐसिच है
पहली दफा ऐसा ही होता है, अब आ गये हो, सब ठीक होगा
इब क्या होगा, अब जीवन कैसा होगा? पहला सवाल है जो मैंने पूछा है
अट्टहास हैं समवेत उन्नत आत्मा! यहाँ जीवन और मृत्यु नहीं होते
इस लोक में वैसी हवायें हैं ही नहीं जो उन्हें अलग अलग करें।

हवायें? मैंने दीठ फेरी है उन अनाम वृक्षों की पुतलियों पर
झँकोरे नहीं, किसी चित्रकार के ब्रश से निकले भगोड़े छागल हैं
इधर उधर कुँलाचते सब धुँधला करते उभारते नये नये लैंडस्केप
लहरा उठती हैं बहुरंगी साड़ियाँ मेरुप्रभा मुग्ध इठलाती है
बरस रहे हैं पत्ते गिरते चमक चन चन नदी के पानी में। 
अश्यान फलक में तैर नहीं, उछलते हैं बार बार सरकते
अदृश्य में फिसलते चमकते रह रह खिलखिल झिलमिल।

अचानक पाता हूँ यहाँ कोई विसरित प्रकाश नहीं, अन्धकार नहीं
बस है जो कि होता है तब जब कोई होता है ढूँढ़ता उसे जो होता है
पुकार आई है सब ओर से (यहाँ दिशायें नहीं और न उनका बोध है)
आगंतुक! अपना प्रश्न पूछो! प्रश्न? कैसा प्रश्न? वह क्या था जो पूछा
पहला, जिसे उलझा दिया तुमने हवाओं के पल्लू में बाँध कर?
फिर से हैं अट्टहास समवेत सिद्ध हुआ कि तुम पर्यटक नहीं
आगंतुक! तुम हम हो, अब नहीं जाना तुम्हें उस दिवालोक में
जहाँ अस्तित्त्व बस होते नहीं, नागरिक होते हैं और कुछ रह नहीं जाते।

माथे से द्रव रिस उठा है, आँखों से रिस उठा है, जाना अब नहीं हो पायेगा?
घेर लिया है मुझे अनेक रोशन श्यान जिह्वाओं ने, द्रव सूख गया है
साफ बेलार बिनटपकी चाट मिलन की अभावी सहसा प्रथम छुअन सी।
कौन हो तुम लोग मुझे रोकने वाले? सामने क्यों नहीं आते, क्यों यूँ लजाते?
हाथ घुमाओ यूँ जैसे कि किसी पास खड़े को लग न जाय, हम दिखेंगे
हुई है हाथों में जुम्बिश और मुझे घेरे खड़े हैं हजारों दमकते स्याह से
यहाँ कोई काल नहीं सब वर्तमान है, फिकर करोगे तो सब दिखेंगे
जिन्हें तुम कहोगे भूत से, ऊपर वहाँ कोई भविष्य नहीं, तुम्हारा नहीं।

मैं चल पड़ा हूँ उनके साथ साथ, चन्द कदम जोर साँस, पानी पी, चल
यह है हमारा आहार विहार। हम हवाखोर बस होते हैं, जीते मरते नहीं।
यहाँ आओ, हमें दिखलाओ, मुंड में क्या है? घिर गये हैं प्रभाओं के वलय
मैं मुग्ध हूँ। नाच रही है नायिका। मेरुप्रभा। आयत नेत्र अक्षितिज अबूझ
लघुत्तम केन्द्रक परिक्रमा इलेक्ट्रॉन, महत्तम निहारिकायें, कितने प्रकाशवर्ष!
तुम अद्भुत हो, जगा दी याद हमें हमारी विस्मृति की, पहले हम ऐसे ही थे
तुम क्यों आये? मैं आया नहीं खुद से, गिरा हूँ मृत्युलोक से, जहाँ जीवन है।
-झूठ है सब - तुम भी क्या खूब गिरे! हममें से कोई नहीं पतित यहाँ, हम हैं
शाश्वत, बदलते नित नवीन। इस लोक बार्धक्य का क्षरण नहीं, खुश रहो।
यहाँ विस्मृति है, तुममें दोष है कि तुम्हारे म्ंड में स्मृतियाँ हैं, शेष हैं और
यहाँ की भी हो रही रिकॉर्डिंग। एक प्रश्न, एक वृत्त, एक केन्द्र, एक प्रमेय
फिर मुझे क्यों कहा गया पहली दफा, पहली दफा ऐसा ही होता है?

ज्यों पूछ दिया हो कोई सनातन अनसुलझा प्रश्न सब ओर सन्नाटा
फुफकार, दहाड़ चुप। रुक गई हैं मेरुप्रभायें। साटिका साटिन बिजलियाँ
थम! आहट। हाँ, इस लोक में आहट भी है! किसी बवंडर की अकस्मात
अट्टहास वह तुम्हें बहलाने को था। हम भुलक्कड़ों की मज्जा में है यह!
बहलाना, फुसलाना, दुलराना, समझाना पतन की चोट गहरी है होती
उन्नत! नहीं बहलोगे, नहीं फुसलोगे, नहीं दुलरोगे तो कैसे समझोगे? कैसे?
कैसे होगे हममें से एक, तब जब कि तुममें हैं हजार दोष! पतित!!
उन्नत, पतित, पतित, उन्नत घिरे हैं उलटबाँसी प्रश्नवाची आवर्त अविश्वास
नहीं, मैं नहीं सम्मोही अदृश्य यमदूतों की चुम्बकीय शीतलता से घिरा
महके गुलाब घेरे हैं उन्नतग्रीव ऊष्म सुकोमल गोरे बन्धन हाथ, साथ
तैर रही है देह सुचिक्कण फूलदार साटिन में जिस पर खिले कास कचनार
लिपटी है वह जो सुन्दर है, अलसाई आँखें कजरारी, रोज का जीवन है
कानों पर अटखेलियाँ हैं गर्म सिसकी, देह पिघले मोम जमती सर हवा।

लगा चाटा चटाक, जल उठे हैं गाल, जम गई है देह डाँट- कल्पना मूर्ख! 
दिव्य लोक आकर सोचता मल, मज्जा, विष्ठा, लार, लपार हासिल जो यूँ ही
तुम सचमुच आये हो सम्राट एकराट की दुनिया, किस्मत वाले हो, अटेंशन!
आ पहुँचे हो उनके सामने तैरते राख नदी पर, हवाई तिलस्म में घुलते
देखो! छिटक उठे हैं सितारे इस गहन चिरगर्भवती धरा की ममता कोख में 
देखो! निहारिकायें उड़ा रही हैं धूल धमाल अरे! साज ताल, सुनो पखावज
नाद निर्वात नित नृत्य नग्न हो उठा नवीन। काट खाया है निज को शोणित हीन
चमकती खाल से झाँकती शिरायें यह सच है अज्ञानी, झुको सच के आगे! 

सामने सच विराट, श्याम मुंड लाट, श्याम भूधर हवाखोरों के वार
सहस्रों छिद्र मोहन, सहस्र रूप, सहस्र किनारे चमके  हजारो हजार
झुका हूँ, घुटनों को गला रहा शीतल तेज़ाब, देखा कभी कृष्ण प्रकाश?
इतना चौंधियाता! धड़के धड़ दिल हजार हजारो भुलक्कड़ साष्टांग अभिचार
उगलने लगी हैं पसीना घायल नोच दी गयी शिरायें, उतर रही है खाल
धीरे धीरे मांस पकता नमकीन जलन! देख रहा अस्थियों के चमके फास्फर;
 हे देव! तुम्हें ऐसे ही मिलना था। क्या करूँगा मैं जब देह ही नहीं रहेगी?

 हंग हहा गस्पा ज्या तुन ता मातल गहा.... सच स्वामी ने क्या कहा?
सिर उतार ले लिया है एक छाया ने हाथ में और कहा है बड़े प्यार से
गुस्ताख! स्वामी से प्रश्न पूछते हो जैसे कि हम हों? सुनो जो सुना कहा
भूमि के ऊपर प्रकाश वह अन्धकार, जीवन वह मृत्यु, देह वह हवा
मैं देता हूँ दिशायें उन्हें, मेरुप्रभायें दासियाँ मेरी जिनकी देह चुम्बक
भटका देती हैं राहों को जब मचलती हैं बिजलियाँ उनमें शाद को।
मैं ऐसा ही हूँ कि तुम जान नहीं सकते, हाँ ऊपर नीचे जी सकते हो...
चूमा है मुझे अनुवादक ने, आह आनन्द! अभी बन्द भी न हुईं कि
घुसेड़ कोटरों में हड्डियाँ निकाल ली आँखें उसने, सौंप दिया है सच को
रहेंगी तो रिसती रहेंगी, आका! तुम्हें भेंट है, तुम सब, तुममें सब रूप,
दिखने दिखाने का क्या काम?” गर्जन ध्वनि तुन ता मातल गहाऽऽ
गलदश्रु हूँ मैं, ज्ञानचक्षु खुले हैं पहला स्तवन, नासमझा बिला दहा।

दौड़ चली हैं भीतर रश्मियाँ हिम सा फैलता श्यामल प्रकाश
बहते गालों पर रक्ताश्रु, घुसती हवा सहलाती आँखों के कोटर
कम्पयमान है सब कुछ मैं भीतर देख रहा सहमता उमगता
निकसे वह स्तुति निराभरण साधारण सी और एकदम साफ।
सर्वरूप तुम पतितों के तारनहार
तुम सर्वशक्ति महिमा ....
...”
 रुक गये हैं शब्द स्तवन गूँजती भीतर पदावली कोमल कांत
रुक गई हैं साँसें, चुम्बकीय बवंडर, उल्का फुसफुसाहटें सब शांत
निकल आये हैं सब ओर से शांत सरकते व्याल सब विष स्नात
आह विष शीतल! जलन दाह पीड़ा दलन सब शांत, क्या मृत्यु!
नहीं यह जीवन चरम, कुछ कहो स्वामी, कष्ट काटता अपार।
जकड़ गये कपोल अश्रु सूखे रक्त से, हुआ क्या प्रसन्न वह?

सा मिना मइ तंत वारे वाकुल कनगा गन ताम गाम
वारे कुल गा गना तना सन्गा केतुच मऎ ऍऑ दनाम...

श्याम पट है ललाट श्याम सब अन्ध अक्षर चमकें अनेक
पतित मैं सब कुछ छूटा अनसमझी तिलस्म दुनिया में
देह से त्वचा उतरी आँखें निकाल लीं वायु पिशाचों ने
और तुम बोलते हो वह बानी जिसके वैसाखी दलाल!
क्या नहीं पर्याप्त तप मेरा या तुममें नहीं आत्मविश्वास?
कुछ समझ आता नहीं स्वामी! नहीं चाहिये संवाद दलाल
सीधे  कहो मैं अन्ध त्रस्त इस अन्ध लोक के अन्धों से।

चमक उठे हैं विषधर मेरुप्रभा संग बहुरंग नील श्याम संग
विलुप्त हुये वायु पिशाच हो लीन साँपों के वलय श्वेत
आह! दिखी पहली बार ऐसी सफेदी रोशनी वाकई उजली
फूटी है वाणी की धार, हो शक्ति मुक्त, अगम कृष्ण विवर से
आह! सम्बोधित किया स्वामी ने सीधे मुझे निज भाषा में

तुम अन्ध! दिखता है तुम्हें वह जो नहीं दिखे और किसी को 
तुम मुक्त! जकड़े है तुम्हें वह झटक बढ़ते सब छोड़ जिसे
तुम पतित! साहस तुममें डूबने की अतल तक भार लिये। 
लगा होगा सब कुछ तिलस्म तुम्हें जिसे वाकई तुमने रचा
कुछ नहीं खास सब कुछ वैसे ही है जो है, तुममें है
मानो कि  शब्दों के पार चित्रों के पार सादा है सब कुछ
समझने को नहीं चाहिये चित्रमयी बोली, बस सीधी बात।
  
मानो कि वे वायु पिशाच सच हैं
हैं वे बहुरुपिये तुम्हारे प्रताड़क, मेरे उद्गाता
वे अमर हैं धारण किये सनातन कालकूट को।
नहीं जरूरत मंथन की उन्हें, वे मथते हैं काल को
उनके कूट से भटकते हैं ऋत रूप, वे गढ़ते हैं।
 
वे साँप सम्मोहक सच करते नाश विवर मूषकों का
और सँजोते हैं वसुधा का धन कुंडली मारे प्रलोभनों के।
दे वास्ता सुखमणि का छीनते हैं वे पल एक, दो, तीन ...
जिनसे सदियाँ चरमराती हैं। 

छीन लेंगे वे तुमसे तुम्हारे सारे मिथक
और उनका सच तुम्हारा होगा।

वे गढ़ेंगे कल्पना-वृद्ध रौंदते चित्र तुम्हारे पितरों के
और उनका इतिहास तुम्हारा होगा।
 
उनके व्याकरण रखे बैंकों के गुप्त लॉकरों में
आयेगा वह दिन तुम्हें जब बस करेंसी नोट समझ आयेंगे
और उनकी भाषा बानी तुम्हारी होगी।

वे गिनेंगे नहीं उस देह को जिससे है तुम्हारा इतना मोह
वे गिनेंगे दो कान, दो हाथ, दस अंगुलियाँ ...अंग अंग खंड खंड
वे गढ़ेंगे बहु और अल्प तुम्हें काट बाँट
नाक मुँह पेट अल्पसंख्यक, 
आँखें हाथ पैर कान बहुसंख्यक।  
वे जीते ही तुम्हें कर देंगे विदेह
जब कि भोगेंगे स्वयं सुख देह अनेक। 
तुम्हें करेंगे सम्मानित भी
भव्य उपाधि,
उदात्त व्याधि
ज्ञान शिरोमणि

तुम जो देखते श्याम प्रकाश यहाँ
ऐसे ही होंगे तुम्हारे आठों पहर
खो जायेंगे साँझ रजनी सबेर दुपहर,  
उनके सब दिन तुम्हारे होंगे।

और तुम सीना तान छाती ठोंक कहते फिरोगे
नहीं! हमसे कुछ नहीं छिना, हमने अपनाया है। 
वे तिलस्मी वायु पिशाच होंगे तुम्हारे मित्र और सम्बन्धी
तुम कहोगे, इन्हें पाने को मैंने दिये हैं बलिदान
खाल तक उधेड़ दी मैंने अपनी, अब मैं गुलाबी गोरा दमकता हूँ
और तुम्हारे पास दमक से चौंधियाने को आँखें नहीं होंगी
तुम वही देखोगे जो वे बतायेंगे
इस तरह होगा तुम्हारा मस्तिष्क संस्कार
तुम्हारी पीढ़ियाँ तर जायेंगी
 तुम बच जाओगे अपने आगम के लिये बस एक मिथक भर
जो देह पर लिये फिरता था सैकड़ो कृमि, दुर्गन्ध पीव से लदा।

सुनो! मत रोको मुझे, मैं स्वामी नहीं, सच नहीं, तुम्हीं हो
तुमसे हुआ हूँ साक्षात बताने को
जिन ध्वनियों को तुम समझ नहीं पाते लेकिन कहते हो
निरर्थक अबूझ नहीं वे, शिराओं में खौलते बहते रक्त की
आदिम रंगलहरियाँ हैं। कम हैं वे जो उन्हें सुन पाते हैं।
वही होते हैं पतित और बनते हैं पथिक उन खुदरीली राहों के
जो ले जाती हैं अन्ध गह्वर मरुस्थलों तक
ले जाती हैं निहारिकाओं के पार चुम्बकीय उद्यानों तक।
उन्हें दिखते हैं वे सब जो औरों को नहीं दिखते
आस के सपनों के पल दूर भयानक भविष्य के
होते हैं दास उनके और करते हैं प्रतीक्षायें अनंत
कि भूत से आयेंगे स्वामी और ले फिरेंगे खुशरंग वीथियों में
वे अगोरते हैं वर्तमान के वसंत को।

जाओ! यह तिलस्म पतन, पतन नहीं उत्थान है
गिरते रहोगे रह रह इस अन्ध विवर में
कि तुम्हारी जीवन संजीवनी यही है। 
तुम हो शापित निज रचना से
तुम्हारे एक कन्धे भूत का अमिट सच है
और दूसरे कन्धे भविष्य का गर्भ है।
तुम्हारा वर्तमान वह नहीं जो वे बताते हैं
तुम बस मनुष्य हो, पिशाच नहीं
समय तुम्हारी सीमा है,
और तुम हो अभिशप्त यूँ ही घुट घुट जीने को
तुम शापित आस हो
तुम अमर हो।

मैं हूँ श्लथ, लुंज पुंज
ऊपर नीचे एक साथ मेरा विस्तार
यह प्रकाश वह अन्हार दुर्निवार
मैं -
अपार्थिव सन्न जीवन लहरियों का द्रष्टा
लिख चुका जो याद रहा बस जोह रहा - 
कब?
पुन: पतन कब?

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

मैं तुम्हें लिखता हूँ।

जब तुम्हें लिखता हूँ, स्वेद नहीं, झरते हैं अंगुलियों से अश्रु। सीलता है कागज और सब कुछ रह जाता है कोरा (वैसे ही कि पुन: लिखना हो जैसे)। जब तुम्हें लिखता हूँ।
  
नहीं, कुछ भी स्याह नहीं, अक्षर प्रकाश तंतु होते हैं (स्याही को रोशनाई यूँ कहते हैं)। श्वेत पर श्वेत। बस मुझे दिखते हैं। भीतर भीगता हूँ, त्वचा पर रोम रोम उछ्लती है ऊष्मा यूँ कि मैं सीझता हूँ। फिर भी कच्चा रहता हूँ (सहना फिर फिर अगन अदहन)। जब तुम्हें लिखता हूँ।

डबडबाई आँखों तले दृश्य जी उठते हैं। बनते हैं लैंडस्केप तमाम। तुम्हारे धुँधलके से मैं चित्रकार। फेरता हूँ कोरेपन पर हाथ। प्रार्थनायें सँवरती हैं। उकेर जाती हैं अक्षत आशीर्वादों के चन्द्रहार। शीतलता उफनती है। उड़ते हैं गह्वर कपूर। मैं सिहरता हूँ। जब तुम्हें लिखता हूँ।

हाँ, काँपते हैं छ्न्द। अक्षर शब्दों से निकल छूट जाते हैं गोधूलि के बच्चों से। गदबेर धूल उड़ती है, सन जाते हैं केश। देखता हूँ तुम्हें उतरते। गेह नेह भरता है। रात रात चमकता हूँ। जब तुम्हें लिखता हूँ।

जानता हूँ कि उच्छवासों में आह बहुत। पहुँचती है आँच द्युलोक पार। तुम धरा धरोहर कैसे बच सकोगी? खिलखिलाती हैं अभिशप्त लहरियाँ। पवन करता है अट्टहास। उड़ जाते हैं अक्षर, शब्द, वाक्य, अनुच्छेद, कवितायें। बस मैं बचता हूँ। स्वयं से ईर्ष्या करता हूँ। जब तुम्हें लिखता हूँ।

न आना, न मिलना। दूर रहना। हर बात अधूरी रहे कि जैसे तब थी और रहती है हर पन्ने के चुकने तक। थी और है नियति यह कि हमारी बातें हम तक न पहुँचें। फिर भी कसकता हूँ। अधूरा रहता हूँ। जब तुम्हें लिखता हूँ।

तुम्हें चाहा कि स्वयं को? जीवित हूँ। खंड खंड मरता हूँ।  साँस साँस जीवन भरता हूँ। मैं तुम्हें लिखता हूँ।

तुम्हारा गीत फिर फिर तुमसे ही कहता हूँ  ... जा रे हंसा कागा देश!
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रविवार, 1 जनवरी 2012

... लेकिन वैसा होता कहाँ है?”

“तुम किस्से गढ़ते हो, मेरी कहानी भी कहो न! उसे तो गढ़ना भी नहीं पड़ेगा।“

“गढ़ना आसान होता है और सच असम्भव।“
“सच तो सीधा सा होता है, बस कह दिया।“

“यहीं समस्या है। कहने वाले सीधे नहीं होते। वे तो कहते हैं कि सच जैसा कुछ होता ही नहीं। जानते हो समस्या क्या है? ....सीधे सादे लोग कहानियाँ नहीं कहते। कहने वाले हमेशा कुटिल और छलिया किस्म के लोग होते हैं। अंतस के स्याह को चाँदी के वर्क में लपेटते हैं और किसी सादी सी बात पर चिपका देते हैं। उसके पहले सादेपन को सोनापन दे चुके होते हैं।“
“अच्छा!”

“हाँ, देखो न! आसमान लाल होता है। चिड़ियाँ चहकती हैं। सूरज उगता है। उजाला होता है। - अब ये कितनी सादी सी बात है, रोजमर्रा की। इस पर किसी सीधे सादे इन्सान ने कुछ कहा क्या? नहीं, लेकिन एक पंक्ति की इस बात पर पूरे संसार में एक लाख गीत कवितायें और साढ़े छप्पन हजार कहानियाँ और इतने ही मन्तर, संतर, टोटके वगैरह हैं। कुटिल प्राणियों ने जाने क्या क्या जाने कितने जतन से लिख मारा!”
“तुम इतने निश्चित कैसे हो? मेरा मतलब संख्याओं से हैं।“

“चूँकि मैं किस्से गढ़ता हूँ इसलिये निश्चित हूँ। तुम्हें भरोसा न हो तो गिन लो – ठीक उतनी ही गीत कवितायें वगैरह मिलेंगी।“
“तो मेरी कहानी नहीं कहोगे?”

“ऐसा मैंने कब कहा? मैं तो बस तुम्हारी गढ़न वाली बात पर तुम्हें समझा रहा था।“
“तो मेरी कहानी बिना गढ़न के लिखना।“

“देखो! तुम्हें अपनी कहानी स्वयं नहीं पता। ऐसे समझो कि सुबह जब कलेवा कर काम पर निकलते हो तो क्या बात उतनी ही भर होती है? ... नहीं होती। अब जो तुमसे देखना बच गया है, वह मुझे कैसे दिखेगा? ... तो मैं गढ़ूँगा। बिना गढ़े कहानी नहीं कही जा सकती।“
“यह तो आसमान, चिड़ियाँ, सूरज और उजाले पर भी लागू होता है? फिर तुमने उन्हें सादी सी बात क्यों कहा?”

“इसलिये कि तुम्हें समझाना था कि हम कैसे कहते हैं।“
“यह तो छल है।“

“एकदम। मैं यही तो कह रहा हूँ कि कहने वाले हमेशा कुटिल और छलिया किस्म के लोग होते हैं।“
“मुझे अपनी कहानी नहीं कहवानी।“

“यह तुम्हारी सीमा है कि तुम स्वयं नहीं कह पाओगे। उसके आगे तुम्हारा जोर नहीं। मैं तुम्हारी कहानी कहूँगा। तुम्हें मेरा कृतज्ञ होना चाहिये कि मैं तुम्हारी बात मान रहा हूँ।“

“मुझे तुमसे बोलना ही नहीं था।“

“वही तो! संसार में सब चुप हो जायँ तो कहानी कैसे कही जा सके? ... लेकिन वैसा होता कहाँ है? ...बोलना चुप रहने से अच्छा लगता है और कहना सुनने से। बस इसी में तो हम गढ़ने वालों की चाँदी है।”