इतना ज्ञान ! वह भूल गया कि क्या करने आया था और अभी कुछ देर पहले शब्दों और साहित्य की बातें करने की कोशिश सी कर रहा था।
गणितज्ञ उसे हैरानी से देख रहा था लेकिन लेंठड़े की दृष्टि एक वैज्ञानिक पर जमी थी जो साहित्य में भी रुचि रखता था। लेंठड़े को यह बड़ी अजीब बात लगी कि शब्द और साहित्य पर वैज्ञानिक से बात की जाय। उसे लगा कि इस अद्भुत सभ्यता की जड़ों और उसके सनातन प्रश्नों के बारे में वैज्ञानिक से बात की जाय। आखिर शब्द, साहित्य वगैरह के प्रश्न तो इस सभ्यता के अस्तित्त्व से ही जुड़े थे। क्या था निचोड़ इस सभ्यता के सनातन प्रश्नों का ?
एक क्षण को उसने अपने पंजे कड़कड़ाए और फिर उस वैज्ञानिक की ओर दृष्टि कर शुरू हो गया...गणितज्ञ उसे हैरानी से देख रहा था लेकिन लेंठड़े की दृष्टि एक वैज्ञानिक पर जमी थी जो साहित्य में भी रुचि रखता था। लेंठड़े को यह बड़ी अजीब बात लगी कि शब्द और साहित्य पर वैज्ञानिक से बात की जाय। उसे लगा कि इस अद्भुत सभ्यता की जड़ों और उसके सनातन प्रश्नों के बारे में वैज्ञानिक से बात की जाय। आखिर शब्द, साहित्य वगैरह के प्रश्न तो इस सभ्यता के अस्तित्त्व से ही जुड़े थे। क्या था निचोड़ इस सभ्यता के सनातन प्रश्नों का ?
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महान चिन्तक, दार्शनिक अरस्तू का मानना था कि मानव मात्र का अन्तिम लक्ष्य/अभीष्ट सुख की प्राप्ति है। आखिर कौन नहीं चाहता सुख। पशु-पक्षी कपि-भालू, नर-वानर, ऋषि-मुनि सभी तो सुख चाहते हैं। हाँ, यह बात दीगर है कि पशु पक्षियों में सुख की वह अनुभूति नहीं होती जैसी कि प्रकृति की श्रेष्ठतम कृति मानव में होती है। पशुओं में सुखानुभूति महज एक जैवीय ``उद्दीपन प्रतिक्रिया´´ के ही दायरे में सीमित होती है। मानव ने अपने अद्वितीय और अद्भुत सांस्कृतिक विकास की यात्रा में कई तरह के ``सुखों´´ के अन्वेषण-अनुभूति के पड़ाव तय किये हैं-सांसारिक (भौतिक) सुख, आध्यात्मिक (मानसिक) सुख और यहाँ तक कि ``परमानन्द (सच्चिदानन्द ) तक की प्राप्ति´´ का सुख जिसके पश्चात् फिर किसी और सुख की चाह ही नहीं रह जाती। यही मोक्ष (निर्वाण) है। मोक्ष यानि एक उस ``परम सत्ता´´ में स्व-अस्तित्व का समाहित हो जाना-जो शाश्वत है, नित्य है, अजर है, अमर है, जिसके बखान में उपनिषदों की अकथ (फिर भी अधूरी) व्याख्यायें हैं और जिसके स्वरूप के निर्धारण का विचार मन्थन आज भी चल रहा है- चरैवेति, चरैवेति ... ... मान्यता है कि वही परमसत्ता ही परम सर्जक है, ब्रह्माण्ड-रचयिता है। उसी के अंश मात्र में स्थित मानव को पुन: उसी में लीन हो जाना है। ... ... तो फिर मानव अस्तित्व, उसके जीवन काल, धरती पर उसके प्रादुर्भाव-अवसान की आवश्यकता ही क्या है, जब मोक्ष ही परम अभीष्ट है, तो मानव जनमता ही क्यों है?विश्व भर के दार्शनिकों, आध्यात्मविदों ने इन प्रश्नों का समय-समय पर अपने-अपने ढंग से जवाब दिया है, जिसके फलस्वरुप, पुनर्जन्म, भूत-प्रेत, लोक-परलोक, मृत्योपरान्त जीवन जैसी अनेक रोचक अवधारणाओं का जन्म और विकास हुआ है। पर इस विषय में विज्ञान का नजरिया क्या है?
सबसे पहले यह बात स्पष्ट कर देनी होगी कि विज्ञान के पास हर प्रश्न का जवाब नहीं है- उसकी अपनी एक विशिष्ट कार्य पद्धति है- विज्ञान की पद्धति यानि, जिज्ञासा ... ... प्रश्न... ... प्रेक्षण, संकल्पना, जाँच परख, सत्यापन और निष्कर्ष के सोपानों को पार कर जो उत्तर मिलता है, वहीं विज्ञान का उत्तर है-विज्ञान सम्मत उत्तर है। इसीलिए ``ईश्वर´´ का प्रश्न विज्ञान के समक्ष अनुत्तरित है-ईश्वर विज्ञान की कसौटी पर नहीं उतारे जा सकते। ऐसा कोई प्रयोग परीक्षण आज तक अवधारित नहीं हो सका जो ईश्वर की जाँच विज्ञान की पद्धति पर करे। अत: विज्ञान इस सम्बन्ध में चुप है- वह न तो यह कहता है कि ईश्वर है और न ही यह कि ईश्वर नहीं है। इन दोनों पक्षों की पुष्टि में प्रायोगिक प्रमाण नहीं है। यहाँ लाचार है बिचारा विज्ञान। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जाता है कि जो कुछ प्रमाण पूर्वक झुठलाया न जा सकता हो, उसे सप्रमाण साबित भी नहीं किया जा सकता । विज्ञान की पद्धति से ``ईश्वर´´ न झुठलाये जा सकते हैं और न ही साबित हो सकते हैं क्योंकि इसके लिए चाहिए प्रमाण (जो अभी तक नहीं जुट सका है)। फलत: ``लांग लिव गॉड´´ - जियें वे करोड़ों किंवा असंख्य वर्ष ... ... कम से कम विज्ञान से कोई चुनौती नहीं है उन्हें । हाँ, हम बात मानव के अन्तिम लक्ष्य की कर रहे थे... ... शायद विज्ञान के पास इस प्रश्न का भी उत्साहजनक सीधा सपाट उत्तर नहीं है... ... पर वह मानव की मौजूदा स्थिति, उसके भविष्य पर जरूर कुछ कह पाने की स्थिति में है।
चार्ल्स डार्विन ने बहुत ही प्रभावपूर्ण तरीके से यह स्पष्ट कर दिया था कि मानव किसी सृजन का परिणाम नहीं बल्कि एक लम्बी सतत विकास प्रक्रिया का उच्चतम उत्पादन है। यह विकास प्रक्रिया एक कोषी जीव से शुरू होकर अपने में समूची धरा के जीव जन्तुओं को समेटे हुए है। जीवनोद्भव और विकास का यह सिलसिला धरती पर लगभग एक अरब वर्ष पहले शुरू हुआ लगता है। करीब साठ करोड़ वर्ष पुराने सूक्ष्म जीव समूहों के जीवाश्म वैज्ञानिकों ने ढूढ़ निकाले हैं। विकास की प्रक्रिया एक बार जो शुरू हुई तो फिर थमी नहीं है, विविध जीवों के अवतरण के पश्चात् भी विकास की क्रिया विधि अभी भी सक्रिय है- यानि आज के आदमी, जानवर सभी विकास पथ पर ही अग्रसर हैं- बहुत धीमी गति से -शनै:शनै: । पर प्राणियों के इस ``जैवीय´´ विकास में एक बड़ी अनहोनी (!) मानव के साथ घटी है.. ... ... उसका एक और विकास अचानक ही शुरू हो गया- सांस्कृतिक विकास, जिसने कालान्तर में मानव की कई अलग थलग संस्कृति और सभ्यताओं को जन्म दे दिया। शायद यह मानव की जैवीय सत्ता से पृथक उसकी विशिष्ट बुद्धि से सृजित एक नये ढंग के विकास की प्रक्रिया है। आज मानव के इस वैविध्यपूर्ण अनूठे विकास की झलकियाँ, धरती के विभिन्न द्वीपों-महाद्वीपों में दृष्टव्य हैं- मानव का यही सांस्कृतिक विकास उसे अपने अन्य जैवीय सहचरों से एक अलग विशिष्ट पहचान देता है। निश्चित ही, मनुष्य उस परम सत्ता, (मैं उसे प्रकृति कहूँगा) की एक विशिष्टतम कृति है ... ... शायद इस कृति के अवतरण में प्रकृति का कोई हेतु छिपा है... ... कोई खास मकसद।
अब यदि मानव अस्तित्व के इस विशेष हेतु/प्रयोजन का पता लग जाय तो उसके अन्तिम अभीष्ट का भी कुछ आकलन सम्भव हो सकता है। प्रख्यात विज्ञान कथाकार आइजक आजिमोव ने अपनी एक - चर्चित कहानी ``द लास्ट ऐन्सर´´ में बड़े ही मनोहारी तरीके से मानव अस्तित्व से जुड़े इन कई शाश्वत प्रश्नों के उत्तर पाने की कोशिश की है। कहानी का भौतिकीविद नायक मृत्योपरान्त ब्रह्माण्ड नियामक (परम सत्ता) से यह जानना चाहता है कि उसकी उत्पत्ति का हेतु क्या था।
जवाब मिलता है-
``महज मेरी इच्छा, केलि, क्रीड़ा-कौतुक और कुछ नहीं´´ इस बेतुके जवाब पर नायक क्रोधित हो उठता है और कहता है,
``मात्र मनोरंजन के लिए मेरी उत्पत्ति की आपने, यानि मैं आजीवन केवल क्रीड़ा का पात्र बना रहा आपका´´ ... ...
फिर एक उत्तर, ``वह तो तुम अभी भी हो, ... पहले साकार, अब निराकार रूप में´´
``यानि में आपका बन्धक हूँ, बन्धुआ प्राणी मात्र ... ... मैं इस बन्धन से मुक्ति चाहता हूँ´´ झुंझलाये नायक का प्रतिवाद था।
``हूँ, खूब ,बहुत खूब, ... ... सस्ते में ही निर्वाण चाहते हो--पड़े रहो इसी तरह... ... ´´
संवाद अनवरत चलता है... ... यहाँ मृत्यु के उपरान्त भी नायक को छुटकारा नहीं है। यहाँ वह मोक्ष को प्राप्त नहीं होता क्योंकि वह उस असीम सत्ता का ही प्रतिकार करता है, विद्रोह कर देता है... ... उससे प्रतिवाद करता है। ठीक आधुनिक मानव की तरह, जिसने प्रकृति के प्रतिकार को ही अपनी जीवनचर्या/जीवन दर्शन बना लिया है।
यहीं एक यह प्रश्न भी उठता है कि क्या ``प्रकृति पर विजय´´ का अभियान मानव का उसकी ``प्राकृतिक दासता´´ से मुक्ति का प्रयास है। क्या वह प्रकृति के बँधे बधाये वैकासिक क्रम से स्वतन्त्र हो अपना अलग विकास (सांस्कृतिक विकास) चाहता है, पर इस सूझ की प्रेरणा उसे मिली कहाँ से। कहीं उसकी यह विकास यात्रा भी प्रकृति से अनुप्राणित तो नहीं है। दूसरे शब्दों में क्या मानव का ``सांस्कृतिक विकास ``प्रकृति की ही कोई गुप्तगुंफित योजना तो नहीं है, तो क्या मानव का उत्कर्ष या अवसान उसके सांस्कृतिक विकास में ही निहित है। क्या मानव महा विनाश की ओर बढ़ रहा है। प्रकृति के इस या ऐसे किसी गुप्त प्रयोजन की भनक क्या उसे है?
किन्तु भला प्रकृति मानव का सम्पूर्ण विनाश क्यों चाहेगी। वह तो जीवन के सतत संवहन की पक्षधर रही है। संतति प्रवाह ही तो उसका एक प्रमुख ध्येय है।
प्रथम दृष्टि में तो यह सच सा लगता है कि सुख शान्ति के खेल में बेचैन मानव की सुख शान्ति ही उससे दिन ब दिन छिनती जा रही है-उसके सांस्कृतिक विकास, उसकी सभ्यता ने उसे कई महारोगों का अभिशाप भी तो दे डाला है। आज वह, चिन्ताग्रस्त है, तनाव ग्रस्त है- ``सुख´´ उसके लिए मरीचिका है। यानि प्रकृति से अलग हटना, स्वयं मानव के लिए आत्मघाती हो सकता है। शायद इसीलिए दार्शनिक रूसों ने ``प्रकृति की ओर लौटो´´ का नारा बुलन्द किया था। गोस्वामी जी की यह बहु -उद्धृत उक्ति कि ``सबसे भले वे मूढ़ जिन्हें न व्यापहि जगत गति... ... ´´ भी शायद मानव को जैवीय, प्रकृति सम्मत तरीके से जीवन यापन की व्यंजनात्मक सीख देती है।
आज का मानव सांस्कृतिक विकास के बावजूद भी अपने पाशविक अतीत से मुक्त नहीं है- उसकी पशु-विरासत उसके आचार-व्यवहार में क्षण-क्षण दर्शित होती रहती है। उसकी अति आक्रामकता, कामुकता उसकी पाशविक पृष्ठभूमि की ही चीख-चीख कर ऐलान करती है। विश्वभर में बढ़ती हिंसा और अपराधों पर एक दृष्टिपात तो कीजिए। गुफा मानव तो क्रोध में महज पत्थर के आयुधों का ही संधान करता था ... .पर आज का ``सांस्कृतिक मानव´´ तो परमाणु बम तक चल देता है। गुफा मानव अपने शिकारी दल के साथ पकड़े शिकार को साम्यवादी तरीके से मिल बाँट कर खाता था ... ... पर आज के ``धन कुबेर´´ सारी सम्पदा हड़पने को आमादा हैं... ... ... क्या मानव का यही अभीष्ट है, तो फिर सांस्कृतिक विकास का क्या अर्थ रह जाता है। जारी ......
आलेख अच्छा है .. आपके और आपके परिवार के लिए नया वर्ष मंगलमय हो !!
जवाब देंहटाएंकाफी रोचक लेख है। अगली पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी।
जवाब देंहटाएंअसल में जब हम ईश्वर की कल्पना करते हैं तो वह बहुत कुछ गणितीय होती है - चतुर्विम या इससे अधिक डायमेंशन का प्राणी। वह जो कण्ट्रोल कर सकता है इस त्रैविम विश्व को।
जवाब देंहटाएंपर शायद वह है नहीं। ईश्वर हमारे आपके सबके बीच लेटेण्ट है - सुशुप्त ऊर्जा की तरह।
बहुत जबरदस्त सम्भावनायें निहित हैं उसमें। और यह शब्द/साहित्य/साहित्य को लुलुहाना/ब्लॉगरी/चिरकुटई/कोंडकेत्व सब छुद्र हैं! :)
बिहने टिपियायेंगे.. अभी नये साल की शुभकामना झोरी भर लेके आये हैं, गंठिया लीजिये..!
जवाब देंहटाएंउड़ीबाबा.. यहाँ तो पोस्टेड बाई डॉ० अरविन्द मिश्र दिखा रहा है.. कल फुर्सत में पढ़ना पड़ेगा।
पहले तो आलसी के एकल से समुदाय होने पर बधाई. अब यहाँ तरह तरह के आलस से सामना होगा. मैंने विज्ञान उतना नहीं पढ़ा पर एक टिप्पणी करूंगा, विज्ञान के हर नियम में एक डिस्क्लैमर होता है, "जैसा और जितना अब तक पता है, उसके अनुसार". अब देखिये सोलहवीं सदी तक विज्ञान ( पश्चिमी ? )मानता रहा कि सूर्य पृथ्वी का चक्कर लगाती है. तो विज्ञान ईश्वर को नकारता है या उसके प्रति शांत है तो वह इस लिये कि आज तक जैसा और जितना अब तक पता है, उसके अनुसार ऐसा है. पर प्रति दिन जो ज्ञान उदघाटित होता है, उसे देख कर कहा जा सकता है कि विज्ञान को अभी बहुत कुछ नहीं पता.
जवाब देंहटाएंआपको नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाए!
जवाब देंहटाएंलाजबाब ,ज्ञानवर्धक और सजीव विचारों से भरा......आगे की प्रतिक्छा.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रोचक . नववर्ष की अनेको शुभकामनाये ...
जवाब देंहटाएंअभी तक ठीक से नहीं पढ़ पाये थे। अब पढ़ लिए तो समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या टिपियाएं। दर्शन के विद्यार्थी जो ठहरे। कार्तिकेय का अनुसरण करते हुए शेष और विशेष टिप्पणी कल पर टालते हैं।
जवाब देंहटाएंअभी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
शब्द से अक्षर तक जा रहे हैं का?
जवाब देंहटाएंनव वर्ष मंगलमय हो!
बहुत अच्छा लेख है, पर लगता है कि एक बार फिर से पढ़ना पड़ेगा.
जवाब देंहटाएंकाल करे सो आज कर आज करे सो अब
जवाब देंहटाएंपल में प्रलय होयगा भूरी करेगा कब ?
इसी तर्ज पर हमने तो आज ही यह आलेख पढ़ लिया वैज्ञानिक द्रष्टिकोण जरा देर से समझ आता है पर आलेख का सार
"गुफा मानव अपने शिकारी दल के साथ पकड़े शिकार को साम्यवादी तरीके से मिल बाँट कर खाता था ... ... पर आज के ``धन कुबेर´´ सारी सम्पदा हड़पने को आमादा हैं... ... ... क्या मानव का यही अभीष्ट है, तो फिर सांस्कृतिक विकास का क्या अर्थ रह जाता है।"
इससे पूर्णत सहमत |
यहाँ तो बात मानव के अंतिम अभीष्ट पर केन्द्रित हो गयी है ! अगली कड़ी में मामला थोडा साफ़ होना चाहिए.
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