(अ)
जिसे देखो वही खलिहान की तरफ भागा चला जा रहा था। वहाँ बुढ़वा पीपल के नीचे एक मेहरारू बेहोश पड़ी हुई थी। बाउ के मामा जीवधन सिंघ जब तक पहुँचते, अच्छी खासी भींड़ जमा हो गई थी। पेंड़ के नीचे लेटी बेहोश थुलथुल मेहरारू के शरीर पर लदर लदर मास - वहाँ मौजूद लोगों में से किसी ने पहले वैसा नहीं देखा था।...
पेचिस का मरीज सोहिता हरदम लोटे का पानी ले कर ही बाहर निकलता था। मामा ने उसके हाथ से लोटा छीन बेहोश औरत के चेहरे पर छींटा मारना शुरू किया। कुछ ही देर में औरत होश में आ गई और बड़बड़ाती हुई उठ कर बैठने की कोशिश करने लगी तो लोगों के मन में सवाल उठने लगे - कौन है? ये यहाँ तक आई कैसे?
खैर, जैसे तैसे कर के उसे पेंड़ का आसरा दे बैठाया गया और अचानक जीवधन बाबू के मन का कुहासा साफ हुआ जैसे सबेरे की टरेन पकड़ने जाते हुए रास्ते में अन्हरिया बारी से निकलते ही अचानक दिन का उजाला आ धमका हो !
" अरे ई त परबतिया के माई ह !" (अरे! यह तो परबतिया की माँ है।)
"परबतिया के माई ?" पास में मौजूद कई बुजुर्गवार लोग लुगाइयों के मुँह से एक साथ ही सवालनुमा अचरज निकला था। शंका और कौतुहल नपत्ता हो गए...
व्याधिग्रस्त परबतिया के माई काला पानी की सजा पूरी कर लौट आई थी। साबूत जिन्दा। उस जल्लाद जगह से भी जीते लौटना बदा था। लोग लुगाई स्तब्ध थे!
नाटी शरीर में जैसे मास और पानी ही बचे थे। भूख के मारे बोलने की कोशिश भी फुसफुसाहट थी और साँस जैसे धौंकनी। बेरिया की अजिया सासु लाठी ठेकते गुड़ का रस अपने नाती के हाथ में थमाए उसके पास आई। रस पीने के बाद परबतिया के माई की इन्द्रियों ने काम करना शुरू किया और फिर बैस्कोप के माफिक गए जमाने की घटनाएँ एक एक कर आती चली गईं... मन जुड़ा गया। अपने गाँव जवार में आखिर वह पहुँच ही गई थी !
बाउ के मामा को देखते ही बनमानुख याद आया। याद आई वह करिखही रात और फिर जीवधन बाबू के पैर पकड़ वह पुक्का फाड़ रो पड़ी। आवाज नहीं, हाँफ, सिसकी और विलाप का अजीब मिश्रण पूरी शरीर के मास परतों में हिचकोले खा रहा था।
मामा ने मुँह में अंगोछा ठूँसा और फफक पड़े। पास की जमा औरतों ने साथ दिया और मरद आँखें पोंछते अपने को रोकने की कोशिश करते भी हिचकने लगे। .. खलिहान पर हरनाचिघार मच गया था।
(आ)
मामला शांत हुआ तो लोगों के दिमाग अशांत हुए। सैकड़ो सवाल लेकिन परबतिया के माई कुछ कहने सुनने की स्थिति में हो तब न ! फुसफुसाती आवाज में उसने अपने घर जाने की इच्छा जताई तो मामा ने बैकुंठा और बहोरन को सहारा देने का इशारा किया। लद लद देह ऐसे चल रही थी जैसे पोरसा भर भूसा का बोझा लिए गाड़ा डगर रहा हो। पन्द्रह बीस कदम पर ही रुक कर फफनाती हाँफ को आराम देती, मास से लगभग बन्द हो गई आँखों में उतर आए पसीने को साफ करती और फिर चल पड़ती...एक एक कदम जैसे गुजरे दिनों का हिसाब कर रहा था।
उसकी ग़ैरहाजिरी में मामा ने परबतिया के माई के घर को वैसा ही छोड़ दिया था। कोर्ट कचहरी पुलिस का मामला, कौन बिना बात फँसे !...
परबतिया के माई दुआर के बीच में खड़ी आँखों पर हाथ दिए निहारने लगी जैसे अपनी बाट जोहते घर की नजरों से जामा तलाशी ले रही हो।
..उँड़ासी हुई खटिया का ढाँचा भर बचा था। सुतरी कब की गल बिला गई थी। जिस टाट के सहारे उसे कभी खड़ा किया गया था, उसकी बस रेख सी झाँक रही थी। उसके दोनो ओर मोथे की जाने कितनी पीढियाँ पैदा हो लापता हो चुकी थीं। दोनों मड़इयों की जगह दो ढूह से दिख रहे थे जिन पर रत्ती पसरी थी। दोनों ढूहों से झाँकते दो दो खम्भे आसमान को बता रहे थे कि इंतजार बहुत ऊँचे दर्जे की चीज होती है। एक खम्भे पर काई जाने कितनी बार जमी थी सूखी थी। दुवार तो जैसे मूज,कूसा, भचकटया का बगैचा हो चला था।...
गले में कुछ अटक गया था। लगा कि सुखरिया सामने से आ रहा है। एक पल को आँखों के आगे अन्धेरा छाया और फिर घम्म से जमीन पर बैठ परबतिया के माई ने दारुण विलाप शुरू कर दिया। मामा ने इशारा किया। लोग लुगाई अपने अपने घरों को चल दिए। जितने मुँह उतनी बातें।
"अरे बचि कइसे गइल?" (अरे ! कैसे बच गई?)
"देक्ख केतना मोटाइलि बा!"(देखो कितनी मोटी हो गई है!)
"है बुरधुधुर, बेमारि बा। पूरा देंहि पानी हो गइल बा"(धत्त बेवकूफ! बीमार है। पूरी देह पानी हो गई है।)
"कुच्छू होखे काला पानी से बँचि त गइलि !"(कुछ भी हो काला पानी से बँच तो गई।)
(इ)
मधया बिन माँ बाप का किशोर। मैभा महतारी उसकी पालनहार थी। रूढ़ लोकमान्यता के विपरीत वह देवी थी। मधया को अपने बच्चे की तरह पाला था लेकिन बेटा नालायक निकल गया। दिन भर घूमता रहता था। उस दिन पहली बार मधया गम्भीर हुआ था।
खलिहान से ही परबतिया के माई के पीछे पीछे लगा वह उसके दुवार तक आया था। जब उसे रोता छोड़ सब चल दिए तो भी दूर बैठा चुपचाप देखता रहा था। शाम होने पर जब वह चुप हुई तो दौड़ता अपने घर गया और परई भर दूध लाकर उसे पिलाया।
... एक झोंपड़ी मामा ने छवा दी और जिन्दगी धीरे धीरे चल निकली। परबतिया आई, एकाध महीने रही भी लेकिन घर गिरहस्ती और आसक्त मरद के कारण वापस ससुरा चली गई।
मधया को जैसे मरी माँ मिली तो परबतिया के माई को सहारा। थोड़े ही दिनों में दोनों को गाँव ने एक ही घर का सा मान लिया। परबतिया के माई अब मधया के काकी हो गई थी। हालाँकि उमर के हिसाब से उसे ईया होना चाहिए था लेकिन बनाए गए रिश्ते समय के कर्ज से मुक्त होते हैं। इसमें गाँव वाले कुछ नहीं कर सकते थे।
मैभा महतारी भी खुश थी, मधया अब खेत डाँड़ और ढोरों की खोज खबर रखने लगा था।
... काकी की बिमारी यथावत बनी रही। दस कदम से ज्यादा चलने पर काकी हाँफने लगती। जमीन पर बैठ सुस्ता लेती फिर चलती। खेत गोड़ार या तो परती थे या बटाई लेकिन घूमने फिरने और लोगों से मिलने जुलने की साध पूरी न होती। दुखिया काकी मधया से अपने मन की बात कहती और सुबक लेती।
एक दिन मधया ने पूछा," ए काकी, पइसा रखले बाड़ू ?" (काकी, कुछ पैसे रखी हो?)
" का होई रे? केतना चाहीं?"(क्या होंगे रे? कितने चाहिए?)
"रेक्शा कीने के बा"(रिक्शा खरीदना है।)
"का होई रे?"(क्या करेगा उसका?)
"अरे काकी तोहके घुमाइब।"(अरे काकी! तुम्हें घुमाना है।)
काकी की आँखें भर आईं, जैसे डूबते को तिनका मिला हो। उसी दिन उसने मामा को बुलवाया। मामा और मधया बड़की शहर गए और चौथे दिन रिक्शा लेकर लौटे। मधया चलाना भी सीख गया था। शायद मामा को बैठा कर लाया भी था।
गाँव के लिए रिक्शा अजूबा था। साइकिल बस गजकरन सिंघ के यहाँ थी जिसमें दो पहिए थे लेकिन इसमें तो तीन पहिए थे। कोई भी थोड़ी देर में चला सकता था। मधया छूने दे तब न !
परबतिया के माई को जैसे पाँव मिल गए हों। मधया रिक्शे पर बैठाए उसे खेत खलिहान घुमाता। खाली रहता तो किसी को नाता रिश्ते में छोड़ आता, फिर ले आता। कुछ कमाई भी हो जाती थी।...
(ई)
आज मौसम बहुत सुहावन था। काकी ने मधया को रिक्शा पक्की सड़क पर ले चलने को कहा। चिकनी सड़क, मन्द मन्द बयार और रिक्शे के अगल बगल से गुजरती हवा! काकी की जाने कब आँख लग गई।
धड़ाम !...
आँख खुली तो पाया कि मधया उसे जमीन से उठाने की कोशिश कर रहा था और शरीर का पोर पोर दुख रहा था। उसने मधया को सौंह दिलाई कि किसी को नहीं कहेगा।
मधया था तो किशोर ही न ! उस समय तो मुश्किल से हँसी रोका लेकिन घर आ कर खूब हँसा और अपनी महतारी को भी बताया। बात मशहूर हो गई। रिक्शे की बरजन से चिढ़े लोगों को एक मसाला मिल गया। लोग काकी से पूछते और चिढ़ने के बजाय काकी तफसील से सुनाने लगती।
"सुनलीं हे तू रेक्शा से गिरि गइल रहलू। कइसे ? मधया लँड़हेर हे, सारे कहीं गड़हा में कुदा देहले होई। घाव त नाहिं लागल न?"(सुना है कि तुम रिक्शे से गिर गई थीं। कैसे ? मधया बदमाश है, साले ने कहीं गड्ढे में कुदा दिया होगा। चोट तो नहीं लगी थी न ?)
"अरे बचवा, वोकर कौनो दोष नाहीं। रेक्शवा पर एतना निम्मन बयार लागत रहल के हमार आँखि लागि गइल। भारी देंहि नाहिं रोकाइल। भहरा गइलीं। एतना उपर से गिरब त घाव लगबे करी लेकिन ठीक हो गइल।"(अरे बेटा, उसका कोई दोष नहीं था। रिक्शे पर इतनी अच्छी हवा लग रही थी कि मेरी आँख लग गई। भारी शरीर सँभल नही ंपाई, गिर गई। इतने उपर से गिरने पर चोट तो लगनी ही थी लेकिन ठीक हो गई।)
लोग बाद में यह कह कर कहकहे लगाते कि उसकी देंह तो गुलगुल्ला है। चोट कैसे लगती? अजीब तरह का क्रूर चिढ़ाऊ मनोरंजन था यह जिसमें चिढ़ना नहीं था फिर भी करीब रोज यह बात काकी से कोई कर ही जाता।..
..ऐसे ही एक दिन जब खलिहान पर बहोरना काकी से वही पुराना रिक्शे वाला घटना क्रम पूछ कर मजे ले रहा था, बाउ गाड़ा लिए ममहर करने आ पहुँचे। ( ...जारी)
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शब्द सम्पदा:
सिध्धर - एक प्रकार की छोटी मछली, उससे भी छोटी को सिधरी कहते हैं।
सिध्धर - एक प्रकार की छोटी मछली, उससे भी छोटी को सिधरी कहते हैं।
(1) मेहरारू-औरत; (2) थुलथुल - अत्यंत स्थूल, मोटी (3) लदर लदर मास - मोटी शरीर पर का अस्ंतुलित मांस (4) टरेन - ट्रेन (5) अन्हरिया बारी - देसी आमों का पुराना, बहुत बड़ा और घना बागीचा जिसमें दिन में ही रात जैसा अन्धेरा रहता था। (6) नपत्ता - लापता (7) अजिया सासु - सास की सास (8) रस - शरबत (9) नाती - पोता (10) बैस्कोप - बाइस्कोप (11) करिखही - बहुत काली (12) हरनाचिघार - आर्त्तनाद (13) लद लद देह - ऐसी शरीर जिसमें मांस की परतें शरीर छोड़ झूलती रहती हैं (14) पोरसा भर - बहुत ऊँचा (15) गाड़ा - बैलगाड़ी (16) फफनाती - उफनती (17) बाट जोहते - प्रतीक्षा करते (18) उँड़ासी हुई - खड़ी की हुई (19) सुतरी - सुतली (20) गल बिला - सड़ गल कर गायब हो चुकी,(21) रत्ती - एक तरह की लता जो खेतों में फैलती है। (22) कूसा - कुश घास (23) भचकटया -नरम पत्ते वाला छोटा कँटीला पौधा, (24) बगैचा - बागीचा,(25) मैभा महतारी - सौतेली माँ (26)गिरहस्ती - गृहस्थी,(27) ईया - दादी ,(28) बड़की शहर - गोरखपुर ,(29) चिढ़ना - जो चिढ़ाने पर चिढ़े ।
अरे हम तो देखते ही पहचान गए थे परबतिया के माई को. कहानी इसी प्रकार चलती रहेगी तो पीछे छूती कुछ और गुत्थियों के सुलटने की भी उम्मीद है. (वैसे कुछ रहस्य रह भी जाने चाहिए. )
जवाब देंहटाएंदेसज भाषा में बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट....
जवाब देंहटाएंदेशज और सहज शैली में बढ़िया चल रही है ......लंठ महाचर्चा !!
जवाब देंहटाएंलगता है कि छूटी हुई ट्रेन फिर से पकडनी पड़ेगी ?
लंठ महाचर्चा विराट होते होते महाकाव्याकार होती जा रही है..
जवाब देंहटाएंएक अनुरोध है, बल्कि जिद समझिये तो बेहतर होगा ..इस महागाथा के समस्त प्रसंग क्रमबद्ध रूप से आप अपने साइडबार में सबसे ऊपर लगा दीजिये..
वैसे ये प्रसंग इतनी जिजीविषा से आप्यायित हैं, कि भाषा में हैंडिकैप्ड, तथा ब्राउजिंग से नफरत करने वाले लोग भी आर्काइव से ढूंढ-ढांढ कर इसके सारे प्रसंग पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर पायेंगे.. मेरा दावा है।
ग्राम्य जीवन पर सबसे पहले रेणु के ’मैला आँचल’ की बात होती है.. मेरे पर्सनल फेवरिट रामदेव शुक्ल की ‘ग्रामदेवता’ और वीरेन्द्र जैन की ‘डूब’ और ‘पार’ हैं..
लेकिन अतिशयोक्ति या वाह-वाह न समझा जाय तो यहाँ सार्वजनिक स्वीकारोक्ति दर्ज कराना चाहूँगा कि रेणु जैसे महाप्राण या वीरेन्द्र जैन के भुगते हुए यथार्थ के चित्रण के अलावा अगर ग्राम्य जीवन का इतना भदेस और सोंधा चित्रण अगर अंतर्जाल पर कहीं देखा तो यहीं देखा.. निश्चित रूप से अंतर्जाल पर रची कुछ उत्कृष्ट कोटि की रचनाओं में से एक..
सारे लिंक इकट्ठा दीजिये.. कल फिर देखने आऊंगा। आपकी सारी फीड रीड मोर फॉरमैट की होती हैं, इसलिये IE में उनका संचयन नहीं हो सकता.. लिंक से मैनुअली इसकी ई-बुक बनाउंगा, फिर प्रिंट-आउट से सहेज लूँगा।
चलाये रहिये लंठ महाचर्चा!!
जवाब देंहटाएंदेशज शब्दों का विस्तृत प्रयोग आपकी प्रविष्टियों को एक अर्थ प्रदान करता है ..आपकी कथा कहने का तरीका ही कुछ इस तरह का है कि इसे पढ़ते हुए एक गाँव का रेखाचित्र सामने नजर आने लगता है ....खेत खलिहान , चौबारे ...चौपाल पर इकट्ठा लट्ठ लिए कई सारे लोग ...
जवाब देंहटाएंइसी बहाने कुछ भूले बिसरे शब्दों से फिर से जान पहचान हो गयी ...!!
अतिविशिष्ठ पोस्ट की श्रेणी मे है आपकी यह पोस्ट. परबतिया के माई की कथा का आगे इंतजार है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
ऐ हो महराज..सौंसे बिलाग घूम अइनी हम ..बाकी अइसन नीमन कथा बंचवईया कोई नइखे..!!!
जवाब देंहटाएंक्या लिखूँ! आप एक अच्छे उपन्यास की तैयारी में जुट गये हैं। इन्तजार रहेगा। अग्रिम बधाई।
जवाब देंहटाएंईल्लेव, मलिकाइन पहिले से जगह छेंकाए बइठी हैं...। अब हम का बताईं। गुम्मे निकरि जा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंमुदा हम कहि रहे हैं कि यदि ब्लॉग साहित्य का नोबल प्राईज होता तो डोर 'बाउ' की ओर ही खिंचती.....'सांवली' लिखने पर पुलित्जर तो है ही :)
जवाब देंहटाएंवैसे, कल आपसे फोन पर बात हुई औऱ आज जाकर मौका लगा है इस पोस्ट को पढने का। लेकिन जब पढा तो बस पढता चला गया। देशज भाषा को तो मैं भी बहुत पसंद करता हूँ..... भोजपुरी भाषी होते हुए भी यहां कुछ बातें तो मैं भी नहीं समझ पा रहा था (शायद शहर ने मुझ पर भी पोरसा भर भूसा लाद दिया है :)......लेकिन नीचे उन शब्दों का तर्जुमा देख कुछ शब्दों को और सीखने को मिला है।
पोस्ट तो बढिया है। मुझे तो लगता है कि किताब अब जल्दी ही छपनी चाहिये इससे पहले कि आपके दिमाग में 'सांवली' चकर पकर करे :)
बहुत बढिया लिखा । बहूत खूब।
lage rahiye........
जवाब देंहटाएंupanyas jeevant hone ki or agrasarit hai
भारतीय साहित्य के प्राण हैं ऐसी देशज कथाएँ
जवाब देंहटाएंनगीनों सी चमक लिए ..
आप ने एक ऐसी ही श्रुंखला यहां रखी है ... क्या बात है !!
सब बढ़िया ! आभार !!
नव - वर्ष की अनेक शुबकामनाएं
स्नेह,
- लावण्या
अभी हम भी ऐसी महागाथाओं को कागज पर पढ़ने वाले पोंगा इंसान हैं । इसे प्रिंट करके ही पढ़ते हैं/रहे हैं/पढ़ते रहेंगे । इसलिये टिप्पणी की कोई भलमनसाहत नहीं दिखानी !
जवाब देंहटाएंकार्तिकेय भाई की बात मान लिये - बहुत किये ! लिंक ठीक से लगाया करिये ! "लंठ महाचर्चा : बाउ मंडली और बारात एक हजार : दूसरा दिन - पूर्वपीठिका": का लिंक गलत लगा है ।
सुनाते रहिये सुन रहे हैं लंठचर्चा अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar prvahmyi bandhkar rkhne vali atynt sshkt katha .desh ka koi bhi grameen anchal ho mn to udvelit ho ho jata hai fir ganv se jude logo ko to trpti hi deti hai vha ki gathaye .agli kdi ka intjar.
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह रोचक. अपनी पुरानी प्रार्थना दोहरा रहा हूँ, इस कथा को एक क्रम में उपलब्ध करायें तो आनंद आ जाये.
जवाब देंहटाएंअरे बाप रे, इत्त समय कहां से मिल जाता है?
जवाब देंहटाएंनव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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पुरूषों के श्रेष्ठता के जींस-शंकाएं और जवाब।
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन के पुरस्कार घोषित।
अपनी बोली , भाषा , माटी , सभी की सुगंध ,सौंधापन एक साथ.
जवाब देंहटाएंबस ऐसह्हीं पढ़वावत रहा गिरिजेश भैय्या !
बहुत बढ़िया। लंठ महाचर्चा की शुरुआती कड़ियों को पढ़ने के बाद हमारी कही बातें ही देखिये अब अन्य लोग भी दोहरा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसमझ गए होंगे। जमे रहिए और जल्दबाजी न करें।
एक ठो पीडीऍफ़ बनाया जाए कहिये तो हम बना दें ? पूरा होने का इंतजार तो करते ही रह जायेंगे... जैसे-जैसे बढ़ता रहेगा जोड़ते जायेंगे. आप छपवायेंगे नहीं तो कम से कम इबुक तो रहेगा.
जवाब देंहटाएंशानदार । बहुत दिनों बाद नेट पर आया और सीधे यहीं पर आया । मालूम था खाली हाथ नहीं लौटूंगा । लंठाधिराज की जय हो ।
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