बिटिश भारत - उस राज का हिस्सा जिसमें सूरज कभी नहीं डूबता। आम जनता चरम गरीबी, अशिक्षा, अन्धविश्वास, शोषण, अत्याचार, भूख ..... जाने कितने अँधेरों से जूझती हुई। वह सूरज अन्धेरों का शहंशाह था।
राजे,रजवाड़े, जमींदार कायर निर्लज्ज समर्पण के बाद भोग और विलास में व्यस्त उनके साधन जुटाने हेतु मूर्तिमान शोषण और अत्याचार हो गए थे। ब्राह्मण गण जाति प्रथा, छुआछूत, शोषण और नारी प्रताड़ना के सूत्र स्मृतियों में तलाशते हुए उन्हें और मजबूत करने में लगे थे। उपनिषद और श्रुतियाँ आम जन के लिए निषिद्ध थीं। अंग्रेजी पढ़ा लिखा समाज प्रतिक्रियावादी हो सब कुछ नकारने और निस्पृह, निस्संग बौद्धिक विलासों में व्यस्त हो बाबू की नौकरी पाने के साधन जुटाने में लगा हुआ था।
और आम जनता ?
मालगुजारी और हर्जाने तले पिसती हुई भी बरगद की छाल, पुरानी गलित ईंटों और गूलर के दूध से बने 'व्यंजनों' से अकाल में जान बचा लेने की कला में प्रवीण हो चुकी थी। भारत की बर्बादी पूर्ण हो चुकी थी। अन्धेरों के सूरज की दमक दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी..जाने कितने अन्धेरे, आदमी की जिन्दगी एक !
और ऐसे में सन् 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन किया। बहाना था प्रशासनिक सुधार लेकिन नीयत थी विद्रोह की किसी सम्भावना की रीढ़ को तोड़ देने की ... भारत के जाने कितने भागों में इसके विरोध में विद्रोह भभक उठा। सशस्त्र । आधुनिक भारत के युवाओं ने सम्भवत: पहली बार इस तरह से उठान दिखाई थी।
ब्रिटिश दमन ने अपना वह चेहरा दिखाया जो पहले कभी नहीं दिखा था। छापे, गिरफ्तारियाँ ...... हथियार भले न बरामद हुए हों लेकिन करीब हर जगह मिला - विवेकानन्द साहित्य ।
उस संन्यासी की बातें भी उन युवकों की शस्त्रास्त्र बन गई थीं। रोमा रोलाँ ने विवेकानन्द को ऐसे ही योद्धा संन्यासी नहीं कहा था !
... योद्धा संन्यासी ने अपना काम कर दिया था। संन्यास और वक्तृता साहित्य की ऐसी मारकता पहले कभी नहीं देखी गई थी। अंग्रेजों की नाक तले सन् 1897 से लेकर 1902 में मृत्यु होने तक विवेकानन्द ने चुपचाप भारत और विशेषकर युवाओं में वह आग भर दी थी जो स्वतंत्रता प्राप्ति तक नहीं बुझने वाली थी।
... योद्धा संन्यासी ने अपना काम कर दिया था। संन्यास और वक्तृता साहित्य की ऐसी मारकता पहले कभी नहीं देखी गई थी। अंग्रेजों की नाक तले सन् 1897 से लेकर 1902 में मृत्यु होने तक विवेकानन्द ने चुपचाप भारत और विशेषकर युवाओं में वह आग भर दी थी जो स्वतंत्रता प्राप्ति तक नहीं बुझने वाली थी।
ऐसा क्या अनोखा था इस योद्धा संन्यासी में जो चालिस की अवस्था भी पार न कर सका लेकिन समूचे देश को झँकझोर गया? मात्र 5 वर्षों में वह कर दिखाया जिसकी परिणति ने अन्धेरों के सूरज को अंतत: डूबने पर मजबूर कर दिया?
विवेकानन्द को समझना हो तो 1893 में धर्म संसद में दी गई शिकागो वक्तृता पर समापन नहीं प्रारम्भ करना होगा। 1897 तक के चार वर्षों में अमेरिका और यूरोप को उन्हों ने दिखा दिया कि भारत केवल विलासी कापुरुष राजाओं, हाथियों और सँपेरों का देश नहीं था। उसकी ज्ञान परम्परा में एक ओर द्रव्य और ऊर्जा के पारस्परिक परिवर्तन के सिद्धांत छिपे थे तो दूसरी ओर सम्पूर्ण मानवता के स्वीकार के मूर्त सिद्धांत प्रस्तुत थे। जाति प्रथा जैसी घनघोर बुराई के बावजूद भारतीय मनीषा सर्वग्राही समावेशी थी।
आज आप को आसान लग रहा होगा लेकिन यह वह समय था जब समुद्र यात्रा पाप थी और श्रुतियाँ आम जन के लिए निषिद्ध थीं। यह वह समय था जब मैक्समूलर और उनके जैसे स्कॉलर आर्य आगमन/आक्रमण के यूरोप केन्द्रित अवधारणा को स्थापित कर चुके थे। मैक्समूलर के प्रशंसक होते हुए भी विवेकानन्द ने यूरोप के सामने भारत केन्द्रित विश्व सभ्यता की बाते रखीं। उनकी पुस्तक 'East and West’ पढ़ने योग्य है।
1897 में भारत वापस आने पर कोलम्बो से लेकर अल्मोड़ा तक किए गए भारत भ्रमण के दौरान दिए गए उनके भाषणों से जनता ने स्वयं को आप्यायित कर लिया। हर भाषण स्वाभिमान और निर्भयता के सम्मोहक सार्थक औपनिषदीय संदेशों से पटा पड़ा था। मूर्तिमान आत्मविश्वास सरीखे इस सुदर्शन योद्धा संन्यासी का सम्मोहन ऐसा था कि ब्रिटिश राज भी भाँप नहीं सका कि इस भ्रमण के दौरान क्या कुछ बोया जा रहा था। वह फसल ब्रिटिश राज को बहुत महँगी पड़ी। एक शांत विद्रोह गौरवशाली भूतकाल की नींव और आधुनिक शिक्षा की इमारत में बसता चला गया।
कितना विशाल अध्ययन था ! विश्व सभ्यता और भारत सब कुछ समेटे हुए। कला, साहित्य, विज्ञान, दर्शन, धर्म, गणित, नाटक, आर्किटेक्चर, कपड़े, खान पान, नृत्य, समाज शास्त्र, नारी उत्थान ..... कोई ऐसा पक्ष नहीं है जो विवेकानन्द की मर्मभेदिनी दृष्टि से बँचा हो। आज शायद एक दो पिज्जाओं की कीमत में विवेकानन्द का सम्पूर्ण साहित्य मिल जाएगा। मैंने दसियों साल पहले बस रु. 125/- में लिया था। हंसराज रहबर की लिखी उनकी जीवनी राजपाल एण्ड संस से प्रकाशित है। खरीद लीजिए और पढ़ डालिए।
उनको पढ़ने से पता चलता है कि नारी या शूद्र विषयों पर उनकी सोच आज के समय के हिसाब से भी बहुत आगे थी। उनका साहस अतुल्य था। नारी समस्या हो, मांसाहार के प्रश्न हों या शिक्षा का आम जन तक प्रसार हो – वे बहुत रेडिकलों से आगे नज़र आते हैं। मुझे आज रोना आता है जब कुछ लोग उनका नाम लेने पर शिकागो में तथाकथित ‘शून्य’ पर दिए गए उनके भाषण की बात करते हैं। नहीं, धर्म संसद में उन्हों ने जो कहा उसमे शून्य नहीं समूचे विश्व, समूची मानवता के लिए बहुत ही विराट सन्देश था। उन्हों ने उपनिषदों के सन्देशों से वहाँ उपस्थित प्रकाण्ड पंडितों को चमत्कृत कर दिया था। उनका वह संक्षिप्त भाषण आधुनिक विश्व के सर्वोत्तम भाषणों में स्थान रखता है।
सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित संन्यासियों को तैयार करता रामकृष्ण मठ हो या नारी शिक्षा के लिए सर्वसमर्पित भगिनी निवेदिता हों, विवेकानन्द ने अपनी सोच को ठोस परिणति में बदलने का उपक्रम भी कर दिखाया।
सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित संन्यासियों को तैयार करता रामकृष्ण मठ हो या नारी शिक्षा के लिए सर्वसमर्पित भगिनी निवेदिता हों, विवेकानन्द ने अपनी सोच को ठोस परिणति में बदलने का उपक्रम भी कर दिखाया।
बहुत कम लोगों को पता होगा कि उन्हों ने बाल गंगाधर तिलक और जमशेदजी टाटा को प्रेरित किया था। उनका सक्रिय जीवन उस योजना और प्रण को जी गया जो तिलक ने भारत को राजनीति और उन्हों ने धर्म के माध्यम से जगाने के लिए एक रेल यात्रा के दौरान लिया था। तिलक और विवेकानन्द के अवसान के बाद आए कांग्रेसियों ने उनकी विराट सोच का बंटाधार कर भारत की स्वतंत्रता को हिन्दू मुस्लिम समस्या में बदल दिया जिसकी परिणति उस चरम सुविधाजीवी और समझौतावादी सत्ता परिवर्तन में हुई जिसने भारतीय जन को क्षुद्र स्वार्थ लोलुप शुतुर्मुर्गी समाज में बदल दिया।
क्या कोई ऋषि विवेकानन्द फिर आएगा ? हाँ, वे ऋषि ही थे। स्वयं रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें सप्तर्षियों में से एक कहा था।
आज विवेकानन्द का जन्मदिन है (12 जनवरी, 1863, समय प्रात: 06:33, कोलकाता)। हम बस श्रद्धांजलि दे सकते हैं और उनकी बातों पर मनन कर सकते हैं। हममें जाने कितने छोटे छोटे विवेकानन्द सोए पड़े हैं। जरूरत बस उन्हें जगाने की है।
स्वामी विवेकान्द जी की अपनी प्रतिभा ने पूरे विश्व को चमत्कृत किया .. सदी भी ऐसे ही किसी व्यक्तित्व की बाट जोह रही है ...
जवाब देंहटाएंऋषि विवेकानंद को शत शत नमन ...!!
बहुत आभार इस विशिष्ट आलेख के लिए इस विशिष्ट दिवस पर ...स्वामी विवेकानन्द जी की पुणय आत्मा को शत शत नमन!!
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार इस आलेख के लिए। आज ऐसे प्रकाश स्तंभ की बहुत आवश्यकता है। स्वामी विवेकानंद जी को शत-शत नमन।
जवाब देंहटाएंअगणित भारतीयों की प्रेरणा बनने वाले इस ऋषि को प्रणाम. स्मरण कराने का धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन आलेख एक अपराजित योद्धा के लिए .
जवाब देंहटाएंस्वामी विवेकान्द जी की अपनी प्रतिभा ने पूरे विश्व को चमत्कृत किया .. सदी भी ऐसे ही किसी व्यक्तित्व की बाट जोह रही है ...
जवाब देंहटाएंऋषि विवेकानंद को शत शत नमन ...!!
आज टिपण्णी चुराने का दिल किया है...
और चोरी अपने घर करें तो पकडे जाने पर पिटाई नहीं होगी...:):)
गिरिजेश जी ,विवेकानंद जी जैसे विचारक के सिद्धांतों को सही मायने में कोई समझ नहीं पाया , और आज के युवाओं के लिए तो जैसे वे बेमानी से हो चुके हैं ,आपके बहाने उनकी याद हो आई , अब बताईये आलसी आप हुए कि हम
जवाब देंहटाएंहमारे तो यही आज भी आदर्श हैं,
जवाब देंहटाएंसुंदर और बहुत भाव-पूर्ण पोस्ट .
tanu.
विवेकानंद की कथा में एक विडम्बना भी छुपी है. समाज की ज्ञान योग्यता और प्रकाश को न पहचान पाने की विडम्बना. यदि विवेकानंद को खेतडी के राजा न मिले होते तो विवेकानंद विवेकानंद न होते. परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने पर ये महामानव छोटी सी नौकरी के लिये भटकता रहा. परमहंस की मृत्यु के बाद एक साधना स्थल के लिये भटकता रहा.
जवाब देंहटाएंसमाज में प्रकाश पुंज हमेशा होते हैं पर समाज उन्हें पहचान नहीं पाता.
आज शायद एक दो पिज्जाओं की कीमत में विवेकानन्द का सम्पूर्ण साहित्य मिल जाएगा। मैंने दसियों साल पहले बस रु. 125/- में लिया था।
जवाब देंहटाएंकाश इसके बाद भी उनके विचारों का प्रचार प्रसार हुआ होता .. हम उसके अनुरूप चल पाते .. उस महान आत्मा को हमारा नमन !!
बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
ऐसे महामनव को मात्र ३९ साल की उम्र में सम्भवतः किसी ने विष देकर मार दिया था। विवेकानन्द सचमुच ऋषि परम्परा के विद्वान और साधक थे। उन्होंने अपना सन्देश उस समय फैलाया जब संचार और आवागमन के साधन अत्यन्त सीमित थे।
जवाब देंहटाएंआपने उन्हें याद करके और उनके अवदान को इंगित करके बहुत अच्छा किया।
@ विवेकानन्द नहीं, महर्षि दयानन्द को विष दिया गया था।
जवाब देंहटाएंअतिशय शारीरिक और मानसिक श्रम के कारण विवेकानन्द श्वास रोग, मधुमेह और अन्य कई व्याधियों से ग्रसित हो गए थे। कहते हैं उन्हों ने स्वेच्छा से समाधि ले ली थी।
स्वामी विवेकानंद जी को श्रद्धांजलि. जब उनकी मौत हुई थी.... तो उनके postmortem रिपोर्ट में यही लिखा गया था... कि ब्रह्मचर्य अपनाने कि वजह से उनकी अल्प आयु में मृत्यु हुई है....
जवाब देंहटाएं@ तो उनके postmortem रिपोर्ट में यही लिखा गया था... कि ब्रह्मचर्य अपनाने कि वजह से उनकी अल्प आयु में मृत्यु हुई है....
जवाब देंहटाएंऐसा कुछ नहीं है। बहुत विस्तृत छ: जीवनियों को मैं पढ़ चुका हूँ। कहीं ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। वैसे भी मृत्यु के बाद पोस्टमॉर्टम के द्वारा ऐसी बातें मेडिकली सिद्ध नहीं की जा सकतीं।
उनका जीवन कुछ ऐसा था कि जैसे मोमबत्ती के दोनों सिरों में लौ जला दिया जाय ताकि अधिक प्रकाश मिले। शरीर की सीमाएँ तो रहती ही हैं।
यह बात सिर्फ वैसी ही है जैसे उनके शिकागो भाषण को 'शून्य' से सम्बन्धित किया जाता है। कोरी बकवास, अफवाह।
ऐसे ही महामानव दैवीय गुणों से युक्त हो जाते हैं धीरे धीरे बहते समय की गाढी श्यानता के साथ.
जवाब देंहटाएंकुछ टिप्पणियों से मुझे लगा कहीं ये वही ऐतिहासिक प्रोसेस तो नहीं एडिशन और निगेशन का?
विवेकानंद पर बहुत महत्वपूर्ण नहीं पढ़ पाया हूँ, हाँ रामकृष्ण जी पर रोमां रोलां की जीवनी ज़रूर बहुत पहले पढ़ी थी.जिससे जानकारी चाहूँ कोहली जी का ही नाम लेते हैं.आप क्या कहते हैं?
ऐसे महापूरुषो को शब्द से सम्बोधित करना मुश्किल होगा, इनके जैसा व्यक्तित्व हमारा हमेशा मार्गदर्शन करता रहेगा । आभार आपका
जवाब देंहटाएंअति उत्तम, ये है लोगों का महापुरुषों के वारे में ज्ञान. एक उन्हें विष से मार रहा है, शायद उसे केवल आनंद का ही ज्ञान है, चाहे विवेक हो या दया. दूसरा उन्हें अल्प आयु के कारण ब्रह्मचर्य से मार रहा है, हे अली! कल कहीं ये भगत सिंह आदि और हाँ जीसस की पोस्टमार्टम खोज कर उन्हें भी ब्रह्मचर्य से न मार दें. ये जरूरी तो नहीं कि हमें हर बात का ज्ञान हो पर अंट शंट लिखने से पूर्व अर्जन कर लें तो बेहतर.
जवाब देंहटाएं@ उनका जीवन कुछ ऐसा था कि जैसे मोमबत्ती के दोनों सिरों में लौ जला दिया जाय ताकि अधिक प्रकाश मिले।
जवाब देंहटाएंविवेकानंद जी के बारे में सब कुछ इस लाईन में समेट दिया गया है।
@ संजय व्यास
जवाब देंहटाएंबस विवेकानन्द सम्पूर्ण बाङ्गमय, हंसराज रहबर रचित जीवनी और ढेर सारा धैर्य।
वादा करता हूँ एक नई दुनिया उद्घाटित होगी।
शत शत नमन स्वामी जी को और आलसी जी को भी अलाल होकर भी हम जैसे चुस्त-दुरुस्त लोगों से लाख गुना ज्यादा तेज और बेहतर है।
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी ,विवेकानंद जी जैसे विचारक के सिद्धांतों को सही मायने में कोई समझ नहीं पाया , और आज के युवाओं के लिए तो जैसे वे बेमानी से हो चुके हैं ,आपके बहाने उनकी याद हो आई , अब बताईये आलसी आप हुए कि हम
जवाब देंहटाएंस्वामीजी तक पर अफवाहे हैं?
जवाब देंहटाएंआश्चर्य !
उनका जीवन कुछ ऐसा था कि जैसे मोमबत्ती के दोनों सिरों में लौ जला दिया जाय ताकि अधिक प्रकाश मिले। शरीर की सीमाएँ तो रहती ही हैं।
जवाब देंहटाएंअब क्या बचा..वाकई सब कुछ समेत लिया आपने..
बहुत गदगद हूँ..इस आलेख से ..आपका यह रूप बेहद ही अच्छा/संतुष्टीपरक लगा मुझे...!
मुझे लगता है ऋषि विवेकानन्द पर आपको और भी लिखना चाहिए..एक स्वाभाविक लोभ हो रहा है मुझे आपकी ज्ञान राशि को देख..!
यह मेरे लिये पहेली है कि आदिशंकर, रामानुजम, विवेकानन्द ... इतनी कम उम्र में इतना कर के चले गये।
जवाब देंहटाएंयूं लगता है कि पुनर्जन्म को नकारने वाले कहीं गलती करते हैं। अन्यथा इतनी मेधा!
@ ज्ञानदत्त जी
जवाब देंहटाएंआप थियोसॉफिस्ट के प्रिय विषय की दिशा में टिप्पणी किए हैं।
शंकर, कृष्णमूर्ति, रजनीश, विवेकानन्द, रामानुजम और ऐसे ही और लोगों की प्रतिभा के बारे में पुनर्जन्म जैसी बातें वे लोग करते रहे हैं। ...पता नहीं कितना सच है!
इन विभूतियों ने सोचने पर मजबूर तो किया ही हुआ है।
मकर संक्रांति पर्व की हार्दिक शुभकामना . भगवान सूर्य की पहली किरण आपके जीवन में उमंग और नई उर्जा प्रदान करे
जवाब देंहटाएंमेरे लिए तो विवेकानंद एक हिन्दू स्फिंक्स सरीखे हैं -महान मनाव मेधा ,चुम्बकीय व्यक्तित्व ,गहन स्वाध्याय ,मोहक वक्तृता ,स्पष्ट दृष्टि ,पर फिर भी बहुत अनकहा रह गया इस आधुनिक सन्यासी से /का -मुझे दुःख होता है महान भारतीय मेधाओं के अल्प कालिक जीवन से -शंकर ,रामानुजन ,विवेकानंद --काश ये और भी जीवित रहे होते तो मानवता का कितना भला होता .
जवाब देंहटाएंआपका यह आलेख इस महामानव के जम दिन पर है -शत शत नमन !
महफूज की टिप्पणी पर सहज ही यह उक्ति याद सी हो आयी -हे ईश्वर इन्हें माफ़ करना ए नहीं जानते ये क्या कह रहे हैं !
बहुत ही सार्थक आलेख.आपने ' शून्य ' के पार जाकर मीमांसा की जो बहुत जरूरी थी.दुर्भाग्य कि हम अपने महर्षियों को बस पूजते हैं ,अपनाते नहीं .
जवाब देंहटाएंसंक्रांति पर अनंत शुभकामनायें.
भारतीय मनीषा सर्वग्राही समावेशी थी। और सदा ही रहेगी
जवाब देंहटाएंविवेकानंद मेरे भी आराध्य युग पुरुष हैं
ये लिंक देखिएगा
http://www.lavanyashah.com/2008/09/shami-bibeknondo.html
स स्नेह्म
- लावण्या
मैनें रहबर जी द्वारा लिखित जीवनी तो नहीं, लेकिन नरेन्द्र कोहली के "तोड़ो, कारा तोड़ो" के समस्त खंड पढ़े हैं.. और मेरी प्रिय पुस्तकों में से एक है..!
जवाब देंहटाएंवस्तुतः मेरे विचार से इस उदात्त मनीषी को देश-काल की सीमाओं में बाँधना पर्याप्त अन्याय होगा.. ये विभूतियाँ सिर्फ देश नहीं, बल्कि आत्मगौरव विस्मृत हर जाति, चाहे वह किसी देश में हो, में जीवन की गरिमा का संदेश देने और प्राणिमात्र को एकात्मता सूत्रों में आबद्ध करने के लिये युगों-युगों में आविर्भूत होती आई हैं.. उनसे तुलना किये जाने वाले लोग शायद उस स्तर तक कभी न पहुँच पायें..
@ अरविन्द जी
अच्छा हुआ कि स्वामी जी का ३९ साल की अवस्था में ही इस निस्सार जगत से मोहभंग हो गया.. वरना उन जैसों की शतायु मेधा धारण कर पाना संभव नहीं है इस संसार के लिये..!
और हाँ.. कोई पुनर्जन्म की अवधारणा नहीं.. एक ही शक्ति थी जो विभिन्न देश-काल में विभिन्न नामों से आविर्भूत होती आई..हर एक जीनियस, हर एक "न भूतो न भविषयति". और विवेकानन्द शायद इनके सबके उपर..!!!!
बहुत कुछ समय की गर्त मे खो जाता है। जिस युवावर्ग के लिए स्वामी जी ने अलख जगाई आज वो ही उन्हें भुला चुका है। इस तरह के आलेखों की बहुत आवश्यकता है। हममें जाने कितने छोटे छोटे विवेकानन्द सोए पड़े हैं। जरूरत बस उन्हें जगाने की है।
जवाब देंहटाएंअगर इस आलेख का आपके कण्ठ से सस्वर पाठ भी सुन पाते तो धन्य होते....
कहीं और यह कहता तो यकीनन झूठा मान लिया जाता, यहाँ ऐसा नहीं होगा इसलिये बताता हूँ।
जवाब देंहटाएंशायद सातवीं या आठवीं में था तो अपने कमरे में इनका चित्र लगाया था, छाती पर हाथ बाँधे और ओज भरे नेत्रों से प्रेरणा देते - उठो, जागो और अपने लक्ष्य से पहले मत रुको। यह चित्र हमेशा मेरे कमरे में लगा रहा। उस समय मैं साढ़े इक्कीस साल का था जब नौकरी के सिलसिले में एक दूसरे शहर गया और किराये का मकान सजाने के लिये बाजार में एक पोस्टर बेचने वाले नौजवान से जब विवेकानन्द का पोस्टर मांगा तो उसने दो तीन बार पूछा, "किसका?" और फ़िर बोला, फ़िल्मी हीरो के पोस्टर दीवाली के बाद निकालेंगे, ढूंढ लेना आकर।"
पद्म सिंह के कमेंट से एकदम सहमत (अगर सहित)।
आभार।
पुण्यात्मा को एक बार फिर स्मरण। सचमुच वे अपने समय से कहीं आगे थे! संजय मो सम का अनुभव वर्तमान भारत की एक अलग ही तस्वीर पेश करता है।
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