शनिवार, 21 अगस्त 2010

शाबास रिज़्वी दम्पति!

अभी अभी पीपली लाइव देख कर लौटा हूँ। फिल्म समीक्षा नहीं आती। इसलिए सिर्फ दर्शक की दृष्टि से बताऊँगा। बहुत पसन्द आई। कहीं कहीं गहराई देनी थी लेकिन फिल्म तेजी से बढ़ गई। की गल नइँ जी।
शाबास रिज़्वी दम्पति! शाबास टीम पीपली!!
ऐब्सर्डिटी को निर्मम भाव से दिखाने के लिए धन्यवाद। हिन्दुस्तान के रोज़ रोज़ मरते गाँवों की व्यथा के प्रति एक व्यक्ति भी सम्वेदनशील हुआ हो तो फिल्म सफल है। स्पष्ट है फिल्म सफल है।
रानी का डण्डा 1, 2  लिखने वाला टीम पीपली को नमन करता है। संतोष हुआ कि 'वह' अकेला नहीं है।
संजीव तिवारी का यह लेख भी पढ़ने योग्य है।

पुनश्च:
दो प्रकरण बहुत जमे। क़स्बाई अखबार का संवाददाता जो कि एकमात्र सम्वेदनशील मीडियामैन (इंडियन अंग्रेजन मीडियावाली के हिसाब से ग़लत धन्धे में) है, विस्फोट में मारा जाता है। लाश से झाँकते जले हुए हाथ में पहना हुआ कड़ा उस त्रासदी को बयाँ कर जाता है जो एक मीडिया वाले की निरर्थक मौत से उपजती है। उसका मरना 'न्यूज' नहीं बनता।
दूसरा - जब कैमरा हिलते हुए गाँव के भूदृश्य से तेज़ी से डेवलप होते मॉडर्न शहर के भूदृश्य तक आता है। भारत और इंडिया का कंट्रास्ट उभर आता है। और अंत में कथानायक मज़दूर रूप में दिखता है जो समाचारों में मर चुका है, घर वालों के लिए मर चुका है। मुआवजा ग़ायब है और एक किसान ग़ायब है अपने खेतों से लेकिन अपने ही देश में अजनबी ग़ुम हो जी रहा है। ग़ुमशुदा की तलाश तक ग़ायब है। कैसी विकट त्रासदी!
   

14 टिप्‍पणियां:

  1. पीपली तो मैंने पहले दिन ही देख ली थी क्योंकि उसका सब्जेक्ट और प्रस्तुत्करण मुझे खीच ले गया।

    संजीव जी की पोस्ट भी पढ़ी। वाकई में ड्राईवरों के बीच एड़स जैसा मुद्दा अभी तक किसी ने उठाने की कोशिश नहीं की है, जबकि यह ड्राईवरी लाइन में एक आम बीमारी सी हो गई है।

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  2. मैं कैसे देखूँ? वर्धा से नागपुर जाकर?
    लखनऊ में २७-२८ को रहूंगा।

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  3. अब आप लोग इतनी तारीफ कर रहे हैं तो फिल्म देखना ही पड़ेगी !

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  4. मैंने भी देखी और बहुत ही पसंद आई ,
    खास तौर से हास्य और व्यंग का इतना सशक्त एवं परिपक्व प्रस्तुतीकरण निश्चय ही प्रशंसनीय है ....

    "mangoमैन" हरदम लतियाया जाता है......

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  5. सबके अनुभव पढकर देखने की इच्‍छा हो रही है !!

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  6. बा भइया ..हम भी अजयी देखे हैं और रिव्यू भी कर दिए हैं .कमाल की फिलम है -खूब घूमा है है रानी का डंडा और कैमरे का फोकस ...ये मस्त मस्ट सी फिलम ...

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  7. अरविन्द जी वाली पोस्ट भी अभी देखी है !
    फिल्म देखनी ही है !

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  8. मेरे पोस्‍ट का उल्‍लेख करने के लिए धन्‍यवाद भाई साहब.

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  9. आप ही सा मैं भी सोचा ! देखते हुए कभी कभी रानी का डंडा याद आ रहा था !

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  10. महंगाई डायन खाए जात है गीत गजब का लगा.बाकी सब तो है ही बढ़िया.पता नहीं क्यों रियलिस्टिकहोने के बावजूद गालियाँ भली नहीं लगीं .

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