आज भीतर बाहर जूझते
वह सुबहें याद आई हैं -
जब पृथ्वी पर होते थे
बस मैं और तुम जीवित।
सब कुछ सिमटा था बस दो साँसों के बीच
होठों पर नहीं, नथुनों में थे चन्द शब्द
उनके उच्चारण एक ही थे - प्रेम।
आसक्त मन कितना अनासक्त था!
किसी की फिकर ही नहीं।
तुमसे जाना कि अनासक्ति क्या होती है!
सारी आसक्ति जो सिमट गई थी - बस तुममें।
पाखंड बिखरा है सब ओर
सच कहूँ तो कहते हैं झूठ।
भीतर बाहर
झूठ ही झूठ।
ऐसे में याद आता है,
वो जो तुम कहती थी
"तुम्हें सच बोलना भी नहीं आता।"
तुम कितनी सच थी!
इन बीत गए वर्षों में
कितने ही दिन रहे
जब तुम्हें याद ही नहीं किया।
उन दिनों किसी न किसी से
हमेशा सुनना पड़ा -
तुम पढ़ते क्यों नहीं?
किसके लिए पढ़ता?
क्या पढ़ता?
अक्षर नहीं, शब्द नहीं
बस दिखती रहीं
टेढ़ी मेढ़ी रेखाएँ।
उन रेखाओं से क्या वास्ता ?
जो गढ़ नहीं सकते थे तुम्हारे बिम्ब।
सदियों बाद तुम
जो याद आई हो
अनुष्टुप बरसने लगे हैं
सॉनेट सजने लगे हैं
गीत बजने लगे हैं
अचानक
टेढ़ी मेढ़ी रेखाएँ
बनने लगी हैं -
अक्षर, शब्द।
मैं पढ़ने लगा हूँ
लिखने लगा हूँ।
किसी ने कहा है-
तुम फिर से प्रेम में हो।
मैंने उसे प्रेम भर चूमा है।
कहा है -
"तुम सच हो।"
कानों में तुम फुसफुसाई हो
"तुम्हें सच बोलना भी नहीं आता।"
प्रेम की कविता पड़ कर अक्सर मेरे दिमाग में कुछ खुराफाती comments आती है, अभी भी आ रही है, पर क्यों खामखा बेमतलब की टिप्पणी कर के आपकी अच्छी खासी रचना की शान में गुस्ताखी की जाए.
जवाब देंहटाएं"तुम्हें सच बोलना भी नहीं आता।"
जवाब देंहटाएंयह भी सच है।
कृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं
अद्भुत!
जवाब देंहटाएंआपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को श्री कृष्ण जन्म की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं!
शुक्र है आपने बोलना शुरू तो किया। भले ही सदियाँ गुजर जाने के बाद। प्रेम शाश्वत है जैसे सत्य...।
जवाब देंहटाएंआपको सच बोलने की बारंबार बधाई।
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जवाब देंहटाएंगज़ब का ख्याल और लेखन्।
जवाब देंहटाएंकृष्ण प्रेम मयी राधा
राधा प्रेममयो हरी
♫ फ़लक पे झूम रही साँवली घटायें हैं
रंग मेरे गोविन्द का चुरा लाई हैं
रश्मियाँ श्याम के कुण्डल से जब निकलती हैं
गोया आकाश मे बिजलियाँ चमकती हैं
श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये
यह प्रेम का अंतर्नाद है ..प्रेमपत्र के ही नाद सौन्दर्य को एक और आयाम देता हुआ !
जवाब देंहटाएंसच और असच , आसक्ति और अनासक्ति के द्वन्द को बांहों में भर , मै और तुम अनन्त के पार यूंहीं सलामत बने रहेंगे !
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना ! सामायिक रचना !
प्रेम करते रहें यही सत्य है, शाश्वत है . सुन्दर रचना. आभार.
जवाब देंहटाएंप्रेम की अवस्था, सच का झूठ पकड़ती हुयी।
जवाब देंहटाएंकहानी हो या कविता, लगता तुम्हें प्रेम का रोग लगा गया है. खैर वर्षा है ही प्रेम की ऋतु.
जवाब देंहटाएंनासदासीन्नोसदासीत्तादानीं नासीद्रजो नो व्योमापरो यत|
जवाब देंहटाएंकिमावरीव: कुहकस्यशर्मन्नम्भ: किमासीद्गहनं गभीरं||
...सत भी नहीं असत भी नहीं ...
(ऋग्वेद १०.१२९)
एक बेहतरीन अभिव्यक्ति....उम्दा पोस्ट..बधाई
जवाब देंहटाएंसोच रही हूँ कि ये प्रेमग्रंथ लिखने के बाद आप फिर से भाऊ पर लिख सकेंगे क्या ?
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंअच्छी पंक्तिया है ...गज़ब का लेखन्।
जवाब देंहटाएं......
( क्या चमत्कार के लिए हिन्दुस्तानी होना जरुरी है ? )
http://oshotheone.blogspot.com
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जवाब देंहटाएंकविता की मर्यादा में रह कर
जवाब देंहटाएंइतना खूबसूरती से बयां करना बधाई का पत्र है
जय हो........
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जवाब देंहटाएंवाणी जी का सवाल मेरा भी है।
जवाब देंहटाएं@ वाणी जी
जवाब देंहटाएंअनुराग जी
आज प्रात: उठते ही ये पंक्तियाँ मन में आईं:
तुमसे जाना कि अद्वैत क्या होता है
तुमसे जाना कि द्वैत क्या होता है
जीवन त्रिकोण हो गया।
हर रचनाकार का एक बड़ा, बहुत बड़ा 'प्लस प्वाइंट' होता है। मेरा यह है कि मैंने अपने सारे चरित्रों को देखा है, उनसे आत्मीय हुआ हूँ, उन्हें अनुभव किया है। लिखते हुए कुछ अधिक गढ़ना नहीं पड़ता। बाउ से न मिल कर भी बाद की पीढ़ियों से जान पाया कि वह कैसे रहे होंगे?
हाँ, रचते हुए एक निश्चित भावभूमि की आवश्यकता होती है। यह सच है कि इस समय बाउ पर लिखना कठिन होगा। कुछ ऐसा जैसे एक्सप्रेस वे पर ड्राइव करते व्यक्ति को शिवपालगंज की गलियों में चलाने को कहा जाय। बहुत खुन्नुस खाएगा बेचारा! :) लेकिन मज़बूरी बन जाय तो चलाएगा ही। जब गलियों में आनन्द आने लगे तो एक्सप्रेस वे सूने लगने लगते हैं।...
ये रचनाएँ बहुत दु:ख देती हैं। मजे की बात यह है कि उन दु:खों से ही सुख उपजता है - घनघोर आत्मिक।...
स्वांत:सुखाय रघुनाथ गाथा भाषानिबद्धमति मंजुल मातनोति।...
तुलसी के आगे मैं कहीं नहीं लेकिन स्वांत:सुखाय पर तो अपना भी हक है। :)
सच
जवाब देंहटाएंआखिर सच बोलने की जरूरत भी क्या है?
जवाब देंहटाएं………….
जिनके आने से बढ़ गई रौनक..
...एक बार फिरसे आभार व्यक्त करता हूँ।
तुलसी के आगे मैं कहीं नहीं लेकिन स्वांत:सुखाय पर तो अपना भी हक है।
जवाब देंहटाएं- आपका यह वाक्य ले जा रहा हूँ बिना इस्माइली लगाए ! .. बाकी सत्यासत्य तो समय/परिस्थिति/व्यक्ति/समूह सापेक्ष है , जहां जो बलशाली हो |
सच्चा प्रेम दिल के रास्ते ही मस्तिष्क पहुंचता है।
जवाब देंहटाएंसच्चा प्रेम दिल के रास्ते ही मस्तिष्क तक पहुंचता है।
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