गुरुवार, 29 सितंबर 2011

बी - 2

पिछले भाग से आगे ...

उस सुबह की मुझे अब भी याद है। बी ने बालों में तेल लगाया, कंघी किया, माँग में सनल टीका, आँखों में सुरमा लगाया और दाँतों तले पान दबा कर अपनी झोली उठा लीं जिसमें उनका पानदान, पंखा और तसबीह थे। मुझे घूरता देख उन्हों ने दिलासा दिया कि अब उनकी झोली उठ गई है तो अल्ला के करम से सब ठीक होगा। आगे वह, पीछे असलम और सबसे पीछे मैं। खुली दलान पार कर उन्हों ने जैसे ही दरवाजा खोला, सुल्तान मियाँ को रास्ता रोके पाया। वह कारखाने से जैसे भाग कर आये थे। सामने के ताल से ठंडी हवा आ रही थी लेकिन उनका तमतमाया चेहरा कुछ और ही छोड़ रहा था। मेरे देखे उन दोनों में हुये तमाम झगड़ों में वह पहला और अंतिम था जिसमें सुल्तान मियाँ जीते थे।

सुल्तान मियाँ को मेरे आने से आपत्ति थी। इस पर भी आपत्ति थी कि बी ने मुझे केले के पत्ते पर खिलाया, बट्टे से पानी पिलाया क्यों कि खाना खाने वाले बरतन हिन्नू के लायक नहीं थे। उन्हें डर था कि नये बरतन खरीदे जाने थे, जो कि बाद में सच साबित हुआ। घर में एक ‘जवान’ लड़की तन्नी थी। यहाँ मियाँ एकदम ग़लत थे। एक अजनबी लड़के के लिये सरकारी जगह पर जाकर बी का ‘नाचना’ उन्हें गवारा न था। यह उनका आपसी मामला था जिसमें मैं कुछ नहीं कर सकता था।

बी ने अपना जाना मुल्तवी कर बीच का रास्ता निकाला। असलम को मेरे साथ जाना था जिस पर सुल्तान मियाँ की आपत्ति पर बी की तड़क दहलाऊ थी – औलाद पर जने वाली का हक़ कइ गुना जियादा होता है। आप इस मामले में चुप ही रहें। उन्हों ने मुझे आशीष दी  और असलम को चेतावनी कि उसे हरदम मेरे साथ रहना था और साहब मुसाहिबों से खुद बात करनी थी। असलम एकदम नकारा साबित हुआ। डिप्टी ऑफिस पहुँचते ही उसकी घिघ्घी बँध गई और वह सामने की इमली तले घस्स से बैठ गया। मुझे अपनी लड़ाई खुद लड़नी थी। माई की याद का अगर कुछ एकदम साफ था तो उनकी आँखें थीं जिन्हें गँवई औरतें राजरानी की आँखें बताती थीं। कस्बे से चलते हुये मैंने वही आँखें बी में देखी थीं। अब मुझे किसी का डर नहीं था। घंटों इंतजार के बाद भी जब मुझे भीतर जाने की अनुमति नहीं मिली तो मैं दहाड़ें मार रोने लगा। डिप्टी साहब ने कारिन्दा भेज मुझे भीतर बुला लिया और मेरी कहानी सुन कर सच में करुणा से भर उठे। इस नसीहत के साथ कि मैं दुबारा कभी फेल न होऊँ, मुझे ग्रेस मिल गया।

हम लौटे तो शाम घिर रही थी। ताल किनारे पालतू बत्तखों का शोर था। सुल्तान मियाँ सिर गाड़े जमीन पर बैठे थे जब कि बी चौखट पर आँखें मूँदे तसबीह जप में लगी थीं। असलम ने धीरे से बताया – अम्मी, रंगीबाबू को साहब ने पास कर दिया। राजरानी वाली आँखें खुलीं और बी ने रोते हुये मुझे सीने से चिपटा लिया। सुल्तान मियाँ कुछ भुनभुनाये थे लेकिन हमलोगों को गुड़ और पानी देने के बाद बेपरवाह बी का झोला उठ गया।

बी नयी थाली, गिलास और गोश्त लेकर आईं। उस रात सुल्तान मियाँ के अलावा सब खुश थे। बहुत खुश। सुल्तान मियाँ ने खाते हुये इतना कहा – ठाकुर, ठीक से खा लेना और अपनी बी के लिये भी छोड़ देना। उसने दिन भर न कुछ खाया और न पिया। चौखट पर बैठी तपती रही। लाहौल बिला...

बी का वह एकदिनी रोजा मेरे लिये जन्म भर का आशीर्वाद बन गया। दुबारा मैं कभी फेल नहीं हुआ।

बी ने मुझे डाँट कर वापस घर भेज दिया। विदा करते हुये कहा – अपना घर अपना ही होता है बेटा लेकिन जरूरत पड़े तो हिचकना नहीं। इस घर में तुम्हारे लिये एक थाली हमेशा रहेगी। तुम्हारे लिये इस अनपुरना का दुआर हमेशा खुला रहेगा। सुरमा लगाने के बहाने उन्हों ने आँखें नीची की लेकिन जिसे टपकना था वह टपक ही गया।

घर पहुँचा तो सिवाय बड़की माई के कोई खुश नहीं हुआ। खुश नहीं कहना ज्यादती होगी। असल में उस भूख भरे घर में यह कोई मायने ही नहीं रखता था। मुझसे बारह साल बड़े पहलवान ने तो कह दिया कि अब फिर से थरिया में बारह ढेर लगेंगे।

ऐसे में जब एक रात मैंने कस्बे में रह कर आगे की पढ़ाई करने का फैसला सुनाया तो मुझे दिख नहीं पाया कि किसको कैसा लगा? बाद में पता चला। भाई खुश हुये थे। छुट्टियों में खेतों में खटने मुझे आना ही था जब कि घर में एक पेट कम होने वाला था। बहनों को कुछ खास नहीं लगा था, मैं बजगानी में बाँध कर चुराये आलू और कन्न कभी नहीं लाता था। बड़की माई खुश हुई थी कि कम से कम एक को तो भर पेट खाने को मिलने वाला था और काका थोड़े चिंतित कि कस्बे में लड़का रहेगा कहाँ? यह सब बाद की बातें हैं, उस समय तो बस खामोशी छा गई थी।

मेरे साथ खाली हाथ काका कस्बे आये थे। यह देख कि मैं एक जोलहा के यहाँ रहने वाला था, उन्हों ने बताया कि कैसे पुरखों की रखवाली को एक मियाँ भेस बदल उनके पीछे पीछे घर बार छोड़कर गाँव में साथ आ बसा। बी से उनकी देखा देखी नहीं हुई। किवाड़ की आड़ से बी ने उन्हें इतना बताया कि मेरी अब पाँच औलादें हैं। काका अनपुरना के दुआर से संतुष्ट वापस चले गये।

उस रात सुल्तान मियाँ और बी की लड़ाई सिर्फ तन्नी के कारण मार पीट में बदलने से रह गई लेकिन बी विजयी हुईं। दो दिन असलम के साथ सोने के बाद तीसरे दिन मेरी ‘कोठरी’ तैयार हो गई। क्वार्टर के ‘गेट’ और रिहाइशी कमरों के बीच खासी लम्बी खुली दलान थी। उसका एक कोना टिन के पत्तरों से घिर गया और ऊपर छप्पर पड़ गया। बी की करामात कि कुल जमा पाँच रुपये खर्च में कोठरी तैयार हो गई। उठौवा पैखानारूम  की व्यवस्था हर क्वार्टर में थी लेकिन यहाँ केवल बी और तन्नी उसका इस्तेमाल करते, सभी मर्द बाहर जाते थे। 
  
वहाँ रहते मैंने जाना कि बी क्या बला थीं! कारखाने की उस छोटी सी कॉलोनी में उनकी ग़जब धाक थी। वह करीब करीब खुदमुख्तार थीं। ताल में उनकी बत्तखें तैरतीं, बगल के टोले में बटाई भैंस और बकरियाँ थीं, खुद की सिलाई पुराई, डलिया बिनना, सुरमा बनाना, दलान में पपीते, अमरूद और कोठी की छोटी सी बगीची का ठीका ... बी सब तरफ थीं। सिवाय अपने शौहर के उनकी किसी से लड़ाई नहीं होती। सुल्तान मियाँ इसके लिये खासे बदनाम थे। ऐसी खुशदिल औरत से कोई कैसे लड़ सकता था? गैंगमैन थे लेकिन उन्हें कोई न पूछता। सब बी की रट लगाये रखते जिनके लगाये पान उस छोटे दायरे में मशहूर थे।
                                                
हफ्ते भर के भीतर ही मेरी पढ़ाई चल निकली। रात में मैं और असलम एक ही ढेबरी की रोशनी में पढ़ते और बी रखवाली करतीं। उनकी अजीब सी आदत थी, जब भी हम और असलम के कारखाने में लग जाने के बाद सिर्फ मैं छुट्टी के दिन पढ़ते तो वह कोठरी के सामने बैठ जातीं। कुछ न कुछ करती रहतीं और समय समय पर गुड़, पानी, पपीता, अमरूद या बत्तख के उबले अंडे खिलाती रहतीं। कहतीं कि मगज पर जोर हो तो खोरिश बढ़िया होनी चाहिये। बाद में पान की लत भी लगा दीं। पढ़ाई गहरी हो तो मुँह सूखने लगता है – यह ज्ञान मुझे बी से ही मिला वरना मुझे तो खबर ही नहीं थी। उस समय हमारी गली में कोई शोर नहीं हो सकता था। बी का डंडा जानवरों से लेकर इंसानों तक सब पर भारी रहता। छुट्टी के दिन  गाँव जाना और खेती का काम करने में नागा होने लगा लेकिन मैं खुश था। मुझे माई मिल गई थी।

अगली बरसात में पहली गड़बड़ हुई। भारी बारिश के कारण पैखानारूम जाने लायक नहीं था और बाहर गई लौटती तन्नी अचानक आई बारिश से भीगने से बचने के लिये मेरी कोठरी में आ गई। मैं सोया हुआ था, मुझे पता ही नहीं चला। नींद सुल्तान मियाँ की तड़क से खुली जिन्हों ने बारिश धीमी होने के बाद तन्नी को मेरी कोठरी से निकलते हुये देख लिया था। मैं भौंचक था।  (अगला भाग)            

7 टिप्‍पणियां:

  1. कितना सजीव वर्णन कर रहे है आप बी तो हमारे सामने खड़ी हो गई आकार ... गरीबी और पैसा दोनों रिश्तों के मायने बदल देता है

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  2. ब्लॉग पर एक खास विटामिन की कमी हो जाने की पूर्ति कर रही है ये कहानी :)
    बी १२ तक खिलाइये पाठकों को.

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  3. ओझा जी, क्वोनो खास कमी अब नहीं रहेगी... मज़े की बात "एक आलसी का चिटठा... क्रमश:" अगले दिन ही पोस्ट लिखने लग गए हैं आचार्य.. :)

    कहानी सपाट चलते हुए एक दम घुमावदार मोड पर आ गयी है... काश अगला अंक जल्दी पढ़ने को मिले.

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  4. गजब कथा प्रवाह! किस मोड़ पर आ गए हैं हम !

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  5. निकलते निकलते एक मोड़ दे दिया कहानी में।

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  6. अति रोचक रही अब तक की कथा. अभिषेक की बात से सहमति है। तनिक तन्नी बेचारी का ख्याल भी रखा जाये, सुल्तान मियाँ का का भरोसा!

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  7. पहले बी की ममता ने डूबोया फिर तन्नी और सुल्तान
    ने दिल की धड़कन बढ़ा दी...

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