“...what are your hobbies?”
“Hindi literature, music, computer software, reading and writing.”
“Hindi! … writing?... I guess in Hindi?”
“Yes sir”
वे हिन्दी पर उतर आये थे।
“आप राष्ट्रभाषा के बारे में कुछ बतायेंगे? भारत में राष्ट्रभाषा की अवधारणा पर कुछ कहिये।“
“सर, भारत विविधताओं का देश है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कच्छ से अरुणांचल तक फैले इस देश की अनेक राष्ट्रभाषायें हैं जैसे कश्मीरी, पंजाबी, मराठी, तेलुगू, कन्नड़, बंगला, हिन्दी आदि। इन भाषाओं के समान्तर वे भाषायें भी हैं जिनका आम जन प्रयोग करते हैं लेकिन जो आज पिछली पंक्ति में हैं...”
”एक मिनट। आप ने अनेक राष्ट्रभाषायें कहा? Right?”
“यस सर।“
“राष्ट्रभाषा तो हिन्दी है न? इतनी भाषायें कैसे राष्ट्रभाषा हो सकती हैं? ...यह आम खास का क्या चक्कर है?” उनका चौंकने का अभिनय लाजवाब था।
“सर, आप जिस अर्थ में कह रहे हैं, वह राजभाषा से सम्बन्धित है। व्यावहारिक रूप में देखें तो हिन्दी भारत की दूसरी राजभाषा है और अंग्रेजी पहली। राजभाषा माने जिस भाषा में सरकारी काम काज होता हो, राज काज चलता हो। जहाँ तक राष्ट्रभाषा की बात है, किसी भी देश की सारी भाषायें वैसे ही राष्ट्रभाषा होती हैं जैसे सारे जन नागरिक – बराबर। राष्ट्र और राज में अंतर है। सारी राष्ट्रभाषाओं के प्रकट रूपों के पीछे उनसे पुरानी भाषायें हैं जिनमें प्रचुर साहित्य उपलब्ध है और जिनका प्रयोग आम जन आज भी करते हैं। हिन्दी को देखें तो अवधी, ब्रज, मैथिली आदि। हिन्दी माने हिन्दी क्षेत्र।“
वे पर्याप्त रूप से चौंक चुके थे।
उन्हों ने अंतिम उद्गार व्यक्त किये,” I think you are confused. You should study, rather more to know more about the fields you call your hobbies... No further questions. Thank you.”
वृहत्तर हिन्दी क्षेत्र (विकिपीडिया से साभार)। उत्तराखंड, हिमाचल, मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि के कुछ क्षेत्र छूटे हुये हैं। विकि को सुधारने के लिये अंग्रेजी में लिखूँगा। |
कंफ्यूजन बहुत भयानक है। हिन्दी को लेकर जाने कितने दुराग्रह हिन्दी समाज पाले हुये है। स्वयं अपने क्षेत्र की भाषाओं की जिन्हें कि माता, मातामही, पितामही जैसा सम्मान मिलना चाहिये, जो अब भी ऊर्जावान, जीवंत और अधिक व्यवहार में हैं, जिन्हें लोक जिह्वा पर हमेशा जीवित रहना है, जिन्हें उसके लिये सरकारी सहयोग की बैसाखी की आवश्यकता नहीं है और जो वाकई बहता नीर हैं; कितनी उपेक्षा हो रही है!
कितने ऐसे हिन्दीभाषी हैं जो किसी अन्य भारतीय भाषा को जानते हैं या जानने का प्रयास किये हैं? दयानन्द सरस्वती और कन्हैयालाल मुंशी जैसे प्रखर हिन्दी समर्थकों की भूमि गुजरात में जब मैंने गुजराती सीखनी चाही तो ऐसा उत्तर सुनने को मिला,”तमारे सीखवाने शी जरूर छे? बध्धा गुजरात हिन्दी समझता है साहब।“ (गुजराती भाई सुधार लेंगे, आज भी गुजराती समझ सकता हूँ लेकिन लिख नहीं सकता। पढ़ सकता हूँ क्यों कि उसकी लिपि देवनागरी से मिलती जुलती है लेकिन बोल नहीं पाता)। मुंशी जी के गुजराती साहित्य का हिन्दी अनुवाद पढ़ पढ़ कर निहाल होता रहा हूँ और सोचता भी रहा हूँ कि मूल तो और सुन्दर होंगे। बारहवीं या इंजीनियरिंग के दौरान मराठी से अनुवादित ‘ययाति’ को पढ़ना एक अद्भुत अनुभव रहा। शरत बाबू की बंगला कृतियों का क्या कहना!
अभी कुछ महीनों पहले लघु उपन्यास ‘अग्निपरीक्षा’ को लिखते हुये शोध के चक्कर में अचानक ही मराठी ‘गीत रामायण’ से पाला पड़ा। गजानन दिगंबर माडगूळकर रचित और ‘ज्योति कलश छलके’ प्रसिद्धि वाले सुधीर फड़के द्वारा संगीतबद्ध और गायी गयी इस गीतमाला से इतना सम्मोहित हुआ कि सात आठ दिनों तक सुनता रहा। मेरे मोबाइल में इसके कुछ गीत हैं और गाहे बगाहे सुनता रहता हूँ।
जिस सांस्कृतिक एकता में हम भारतीय बँधे हुये हैं, वह और प्रगाढ़ और आनन्दमयी हो जाय यदि हर भारतवासी अपनी एक दूसरी भाषा को भी सीखे और समझे। हम हिन्दी भाषियों का दायित्त्व सबसे अधिक है क्यों कि हमारा क्षेत्र सबसे बड़ा है और संख्या भी। आज इस ‘राजभाषा दिवस’ पर एक और राष्ट्रभाषा सीखने का संकल्प लें तो कितना अच्छा हो! अपने क्षेत्र की लोकभाषाओं का ही अवगाहन प्रारम्भ करें तो भी अच्छा हो। विश्वास कीजिये उससे हिन्दी मजबूत होगी और कृत्रिमता के आरोप से, जो कि सही भी है, बचने लायक बनेगी।
चलते चलते...
अभी जब मैं महाराष्ट्र भ्रमण पर था तो मेरे छोटे भाई साहब ने एक दिन झुँझलाते हुये बड़े भाई साहब यानि कि बी एस एन एल (नहीं लगता जी ;)) की सेवाओं पर अपना क्रोध प्रकट किया - रोमिंग में लगता ही नहीं। अंत में उन्हों ने कहा कि वैसे मोबाइल मिलाने पर व्यस्तता या नेटवर्क सम्बन्धित सन्देशों को मराठी में सुनना बहुत अच्छा लगता है। मैने पूछा – क्यों? उनका उत्तर था – कभी कभी भोजपुरी जैसी लगती है। मैं सन्न रह गया और बस इतना कहा – ठाकरे परिवार तुम्हें पा जाय तो ....
वाह नक़्शे ने दिखा दिया भारत का ह्रदय है हिन्दी!
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी इस देश का कबाड़ा इन कई कथित राष्ट्र भाषाओं के प्रोत्साहन ने ही किया है ...विभाजित विखंडित अभिव्यक्ति है हमारी और हमारी अस्मिता ..हम आपके प्रवचन से सहमत नहीं है !
जवाब देंहटाएंइसमें आश्चर्य की क्या बात है बाबा. मराठी सच में भोजपुरी से बहुत मिलती-जुलती है. मेरी एक दोस्त मराठी है, भाई आंध्र प्रदेशीय है और दीदी-जीजाजी गुजरात के निवासी बन चुके हैं. तो तेलगू, मराठी और गुजराती - ये तीनों ही भाषाएँ सीखने का मेरा बड़ा मन है. और उर्दू भी... कितना अच्छा बताया आपने कि हम हिन्दी दिवस पर एक प्रादेशिक भाषा सीखने का संकल्प लें.
जवाब देंहटाएंलगता है मेरी टिप्पणी ग़ायब हो गयी
जवाब देंहटाएंअब इतनी लम्बी टिप्पणी दोबारा कैसे लिखूँ। दो शब्दों में काम चला ले रहा हूँ: "अच्छी पोस्ट"
जवाब देंहटाएंपाकिस्तान का काफ़ी बडा उर्दूभाषी समुदाय भी वृहत्तर हिन्दीभाषी क्षेत्र में ही गिना जाना चाहिये, उर्दू आखिर हिन्दी की ही एक बोली है।
जवाब देंहटाएंमिलजुल कर रहना है तो एक से अधिक भाषायें सीखनी होंगी।
जवाब देंहटाएंSmart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
जवाब देंहटाएंपाकिस्तान का काफ़ी बडा उर्दूभाषी समुदाय भी वृहत्तर हिन्दीभाषी क्षेत्र में ही गिना जाना चाहिये, उर्दू आखिर हिन्दी की ही एक बोली है।
इस टीप का मैं अनुमोदन करता हूँ.
प्रादेशिक भाषा सीखने की बजाय विदेशी भाषाओँ को सीखने की कोशिश करना मुझे ऐसा ही लगता है जैसे अपने पर्यटक स्थलों को छोड़ कर विदेश घूमने को प्राथमिकता देना ...
जवाब देंहटाएंअद्भुत है हमारा देश , हमारी भाषाएँ . सहमत हूँ कि कम से कम एक अतिरिक्त प्रादेशिक भाषा सीखने का प्रयास जरुर किया जाना चाहिए!
जय हो !
जवाब देंहटाएंपुरतः सहमत हूँ और कोशिश करता हूँ कि ऐसा कर सकूँ/सकता रहूँ।
जवाब देंहटाएंहिन्दी सारे देश में समझी जाती है चाहे टूटी फ़ूटी ही सही,
जवाब देंहटाएंलेकिन कोई भी अन्य भाषा पूरे देश में नहीं समझी जाती है,
तो आखिर हिन्दी हुई ना हिन्दुस्तान की भाषा।
संस्कृत सब भारतीय भाषाओं की माँ जैसे गुजराती, मराठी, आदि
हिन्दीभाषी लोग अगर एक अहिन्दी क्षेत्र की भाषा सीखने लगें तो सद्भावना का प्रसार शीघ्रता से हो !
जवाब देंहटाएंहिन्दी दिवस दौर की मेरी पढ़ी बेहतरीन पोस्ट.
जवाब देंहटाएंगिरिजेश सर - बहुत बहुत धन्यवाद यह टिप्पणी विकल्प बदलने के लिए :) , और इस आलेख के लिए | इतने दिनों से आपके लेखों पर चाह कर भी कुछ लिख न पा रही थी |
जवाब देंहटाएंआपका लेख बहुत ही उत्कृष्ट है | सभी भाषाएँ अपने में इतनी खूबसूरती छुपाये हैं - बस हमने जो दूरी का पर्दा बनाया है न - उसी से वे हमें प्यारी नहीं लगतीं | हिंदी भाषा में क्लिष्ट शब्दों को बढ़ावा हो / ना हो - इस पर भी कई लेख कल और आज पढ़े | मनोज सर के ब्लॉग "विचार" पर इस पर अपना नजरिया भी रखा |
अपना निजी अनुभव शेयर करना चाहूंगी यहाँ - मैं म.प्र में पैदा हुई और पली बढ़ी हूँ - कन्नडा का मुझे क ख ग भी नहीं आता था - जब ९८ में इनकी जॉब यहाँ लगी तब मैं बहुत घबरा गयी थी | कैसे एक ऐसी जगह रहूंगी जहाँ किसी से बात तक न कर पाऊंगी ? तब "learn kannada in 30 days " खरीदी थी और आश्चर्यचकित रह गयी थी यह देख कर कि वर्णमाला कन्नडा की और हिंदी की एक ही है - सिर्फ लिपि अलग है | वही स्वर, व्यंजन, वही मात्राएँ (एक दो फर्क हैं) पर सच कहती हूँ - मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूँ उस ईश्वर की जिसने मुझे यहाँ आने और यह भाषा सीखने का अवसर दिया | इतना सुन्दर literature है इसमें - कि क्या बताऊँ | specially श्री बसवा के वचन - it was worth learning a whole new language to read them ... बि.एस.एन.एल. की तो खूब कही - वैसे - बेस्ट कवरेज उसी का लगता है मुझे | :)
आदरणीय राहुल सिंह जी के चलते यहाँ तक आ गया। निश्चित रूप से एक बेहतर समाधान है यह कि उत्तर वाले दक्षिण की एक भाषा सीखें और वह भी अनिवार्य रूप से। इससे शायद कुछ कल्याण हो। वैसे स्पष्ट शब्दों में इसे तुष्टिकरण की नीति ही कहेंगे। …विवेकशून्य होकर जिन्होंने भारत की सब भाषाओं का घोर पक्षपात किया है, उससे हानि पहुँची है। …और उर्दू को गिना जाना चाहिए नहीं वह है ही हिन्दी।
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