रविवार, 10 मई 2009

दशाश्वमेध से अस्सी तक - ढोढ़ी में तेल


बनारस. गंगा.

न जाने ये मुझे अपनी ओर क्यों खींचते से लगते हैं? शायद पिछले जन्म का कोई संबन्ध हो.

होटल ताज़ ,जिसे अब गेटवे नाम दिया गया है, की प्रात:बेला.
 
वरिष्ठ सहकर्मी सुधीर जी के साथ घाट की तरफ़ जाने को निकलता हूँ. गाड़ी का ड्राइवर चिर परिचित मुद्रा में हमारी तरफ़ देखता है.... कहाँ सुबह सुबह ? सोने दो स्साले को. मैं पूरे रौ में हूँ. रिक्शे से घाट चलेंगें . बनारस की सुबह को खुले रिक्शे में देखने का आनन्द बन्द इनोवा में कहाँ?
 
रिक्शे वाला सुबह सुबह बीड़ी पी रहा है. बग़ल से जाती एक आरती की थाली से सुगन्ध आती है. बीड़ी और आरती . बाबा विश्वनाथ तुम्हारे इस गन्ध बिंब को प्रणाम.
 
गोदौलिया चौराहे से दशाश्वमेध घाट. धूप निकल आई है. रिक्शा छोड़ हम पैदल ही बढते हैं. योजना है अस्सी घाट तक जाएँगें और तुलसीदास की कुटिया देख कर वापस हो लेंगें.
 
सुधीर जी सुझाव देते हैं. पैदल ही चलें घाट घाट. मैं विकल्प देता हूँ नाव से चलें? कल संध्या आरती वाला मल्लाह पहचान कर मेरे पास आता है. अस्सी घाट तक सौ रुपये. मैं चौंकता हूँ, बेइमान ने कल आरती के समय केवल हरिश्चन्द्र घाट तक के 220 ले लिए थे. पैदल जाएँगें.
 
सुरसरि गंगे..पतितोद्धारिणी गंगे... कंठ अवरुद्ध है आँसू रोकता हूँ. हम बढ लेते हैं. एक भीखमंगा आता है...उपेक्षा के साथ हम आगे बढ़ जाते हैं. मैं पछता रहा हूँ. कैमरा और डायरी ले कर आना था. विस्मृति दोष ..हर घाट का अलग अलग विवरण नहीं रिकॉर्ड कर पाउँगा. .. कोई बात नहीं शायद इससे आनंद के क्षण अधिक मिलेंगें. मोबाइल तो है ही फोटो लेने को...


दूर तक फैला गंगा का पाट प्रात: की बाल-धूप में नहाया हुआ. दूसरा किनारा कुछ कुछ धुन्ध सी चादर मेंलिपटा. नावें ही नावें किनारे पर, पानी में, हाथ से खेई जातीं, केरोसीन डीज़ल इंजन से चलती. माथे पर श्वेत तिलक को पसराए घूमते लोग लुगाई. अधनंगे, लंगोट में, चोली और भीगी साड़ी में स्नान करते जन. कोई चिंता नहीं प्राइवेसी की. मेरी दृष्टि जाती है कुछ कुचों के उद्दण्ड सुपुष्ट सौन्दर्य पर.
 मन ही मन प्रशंसा करता हूँ लेकिन मन में काम नहीं उमगता. सब मां की गोद में हैं इस समय... पण्डे भाँति भाँति के उच्चारण करते और यजमान कुछ गमछा लपेटे तो कुछ भरी पुरी तोंद के साथ पैण्ट में अपने को यातना देते बैठे हुए. इस किनारे उँची अटारियों की सुदूर प्रसरा अनवरत शृंखला ... हम चल पड़ते हैं.
 सुधीर जी इन पक्के घाटों को बनाने में हुए व्यय पर एक नज़रिया पेश करते हैं. देखिए इतना बड़ा इनवेस्टमेण्ट बिना किसी रिटर्न के समझ में नहीं आता. असल में आप देखें तो यह पूरा बिजनेस मॉडल है. मैं मौन सहमति देता हूँ. साथ ही भुनभुनाता हूँ कहाँ इस समय यह पचडा लेकर बैठ गए?

वैसे बाज़ार यहाँ पूरी तरह से उपस्थित है. एक स्थान पर सादा मेक-अप किए एक सुन्दरी भगतिन की मुद्रा बनाए मानस पारायण कर रही है. वीडियो रिकार्डिँग हो रही है, बेचने के लिए. आगे बढ़्ने पर पिज्जा हट और फास्ट फूड के सेंटर भी उपर दिखते हैं. होटल और लॉज तो हैं ही. बेकार ही कॉर्पोरेट अकोमोडेसन लिया. यहीं रुक जाते.
प्रस्तर सोपानों को लौह पट्टियों से जोड़े रखा गया है. उस समय की समझ को दाद और श्रद्धांजलि एक सिविल इंजीनियर की.

न जाने कहाँ से रावण स्तोत्र के स्वर आ रहे हैं .. विलोलि बीचि वल्लरी...



कि घाट पर बनारस का पहला धक्का मिलता है. विशुद्ध संस्कृत और आध्यात्मिक मन:स्थिति में घाट की दीवार पर लिखा दिखता है "गदहा मूत रहा है. माधरचो.. मूत रहा है." भारत की तमाम सड़क से सटी कोन कठ कोन दीवारों पर थोड़े अलग अलग रूपों में पाया जाने वाला यह ब्रह्म वाक्य यहाँ भी उद्घोषित है.मुझे इसका कारण थोड़ी देर में समझ में आ जाता है. वज्र प्रस्तर दीवारों की उँचाई को मुँह चिढ़ाती उनसे सटी निरन्तर मूत्र रेखा दिखती है. साथ ही नथुने भर जाते हैं दुर्गन्ध से. कहते हैं माँ संतान का सब कुछ सहती है लेकिन गंगा माँ के किनारे काशी में ऐसा होता है! दुर्भाग्य है. वीरभद्र जी के सैनिकों कुछ करो भाई! सुधीर जी तुरंत एक रास्ता सुझाते हैं..


भीम (हमारे हेड का कूट नाम) को बताते हैं, हम लोग सुलभ शौचालय की तर्ज पर यहाँ टायलेट बना सकते हैं मुफ्त सुविधा. अभी तक मुझे एक भी टॉयलेट नहीं दिखा है. अत: मैं सहमत हो जाता हूँ. लोग करें भी तो कहाँ करें . गंगा जी में तो नहीं कर सकते सो किनारे घाटों पर ही...शायद अभी कुछ बाकी था. दिखती है ताजी , एक दिन की सूखी, कइ दिनों की अकड़ी विविध रंगों और आकार प्रकार की मल श्रृंखला. हम हगने में कितने उस्ताद हैं. लोगों ने इतने पास पास कैसे अपने को बचाते हुए हगा होगा ! किसी भी मल पर चिपोरने का चिह्न नहीं है. मैं मुग्ध हो जाता हूँ हम भारतीयों के sense of precision पर ! थोड़ा आगे बढ़ने पर एक प्रस्तर प्लेट्फॉर्म दिखता है जिसके किनारे पर बैठ कर कितने ही लोगों ने मल विसर्जन किया है. एक सीधी सी रेखा बन गई है जिसकी उँचाई बढ़्ती जा रही है. उपर ताजा माल और नीचे पुराना माल. मुझे लगता है कि एक ही तरह के लोगों ने इस स्थान को रिजर्व कर रखा है जो भिन्न भिन्न समय में यहां आ कर ... या एक साथ ही बैठ कर पंक्ति में.. नज़र हटा लेता हूँ. सुधीर जी क्या सोचेंगें !



हरिश्चन्द्र घाट पर कल आरती के समय हमने दो शव जलते देखे थे. आज बुझी हुई राख के ढेर दिखते हैं. गरमी बढ़ रही है और मैंने शर्ट उतार केवल बंडी में घूमना तय किया है. घाट से लगे मन्दिर के सामने एक अघोरी अर्धप्रज्वलित धूनी के सामने लेटा हुआ है. अघोरी को ग़र्मी नहीं लगती ! उसके आस पास चार कुत्ते उनींदे से लेटे हुए हैं. क्या रात को अघोरी ने शव साधना की है? ये कुत्ते ? सुधीर जी कहते हैं कुत्ते माते हुए हैं. ऐसा शव खाने के बाद होता है. शव शव, शिव शिव...


कपड़ा धोते धोबियों की पँक्तियाँ. साँवले पीठों पर पसीने में भीगी गंगा अपनी बूँदों में अठखेलियाँ लेती हुई ! जब भीगा कपड़ा उपर हवा में उठता नदी की धार का प्रवाह सा लगता है तो क्या गंगा मैया धुबिया को आशीर्वाद दे रही होती हैं? सम्भवत: धुबिया यहाँ जल में पियासा नहीं मरता होगा.

गंगा का पानी कितना गन्दा हो गया है. हैरानी तो तब होती है जब ऑपरेशन के समय डाक्टरों द्वारा पहने जाने वाले हरे चोगे भी यहाँ शिवाला घाट पर सूखते दिखाई देते हैं. इन्हें बाद में स्टर्लाइज किया जाता होगा शायद.









घाट की दीवार पर एक विचित्र सा चित्र दिखता है जिसके घेरे पर विदेशी भाषा में कुछ बहुत ही चित्रमय शैली में लिखा गया है. हम दोनों को कुछ समझ में नहीं आता. इस अबूझ को किसने गढ़ा होगा?




घाट की सीढियों पर ही एक सज्जन पाइप से आते पानी के अनवरत प्रवाह में जूते, कपड़े वग़ैरह धो रहे हैं. साथ ही पानी को पी भी रहे हैं. सुधीर जी को उत्सुकता होती है. भैया ई पानी कहाँ से आ रहा है?इ पानी तो ज़मीनी सोते का है साहब हम सब इसे ही पीते हैं. पी कर देखिए ! त्राहि माम . सुधीर जी का आभिजात्य जाग उठता है. ये पानी पिएँ? बात बदल देते हैं. ये डेढ़ इंच का पाइप है न. नहीं साहब दो इंच का पाइप है. मुझे हँसी सी आ जाती है. पाइप एक इंच का हो या दो का उससे पानी की गुणवत्ता का क्या सम्बन्ध? आदमी का दिमाग एक क्षण में ही कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है!
एक कोने में अधजली लकड़ी के टुकडे रखे हुए हैं. सुना था कि जलती हुई चिता को बुझा कर लकड़ी चुरा ली जाती है. आज देख भी लिया.
सामने ही आखाड़ों के मल्ल वृन्द तेल मर्दन के साथ स्नान कर रहे हैं . अधेढ़, युवा, बालक आदि सब. सिक्स पैक और एट पैक के इस जमाने में भी इनके पेट काफी निकले हुए हैं लेकिन बाजुओं में दम है. भारतीय जीन में कुछ है जो तोंद के प्रसार में योगदान देता है. नहीं तो इतने कसरत के बाद भी तोंद?

दो पहलवान बड़े मनोयोग से अपनी नाभियों में तेल लगा रहे हैं. क्या इसका स्वास्थ्य से कोई सम्बन्ध है? मैनें लोगों को नाभिस्राव से ग्रसित देखा है. क्या सरसो का तेल नाभि में डालने से इसकी सम्भावना कम हो जाती है?

तुलसी और अस्सी घाट का क्षेत्र. महामानव तुलसी की उँची कुटिया के नीचे सीढ़ीयों पर हम खड़े हैं. जहाँ से हमें चढना है ठीक वहीं नारी समाज जमा हुआ है. धो पोंछ कर सीढ़ियों को चमका दिया गया है . प्रात:कालीन कलेवे की तैयारी है. स्टोव और भीगे हुए चने रखे हैं. मल, मूत्र, शव के क्षेत्र में इस छोटे से भू भाग पर इतनी सफाई ! अन्नपूर्णा अपने तीनों रूपों वृद्धा, यौवना और बाला .. में यहाँ हमारी राह रोके हुए है. हम दोनों ठिठक जाते हैं. राह दो माँ ..जाओ भैया हम सब हटाए देते हैं. ..इतनी साफ सीढ़ियों पर जूते रखते संकोच होता है. हम किनारे किनारे बचाते हुए चढ़ जाते हैं.


सादगी भरी तुलसी की प्रस्तर कुटिया. उतनी ही सादगी मूर्तियों और पुजारी में. मन एकदम शांत हो जाता है. बताते हैं कि मानस का उत्तर अर्धांश तुलसी ने यहाँ लिखा था. सुधीर जी धीरे से बगल के मन्दिर में सरक लेते हैं. पूछते हैं यहाँ राधा कृष्ण का क्या काम? मैं कुछ नहीं बोलता. बस मेरे मन में कौंधता है "तुलसी माथ तबही झुके जब धनुही लौ हाथ".

हम सड़क की तरफ बढते हैं.

पुकार. . . अरे हो सरोजवा के माई एगो फूल माला दिहो हो. अधेड़ नारी अपनी ही रौ में है. नहीं सुनती. अरे ए बूढा,एगो फूल माला दिहो हो. एक दूसरा प्रसाद बेंचता जवान मसखरी करता है. का हो कब से तू बूढ हो गइलू? चेहरा उठता है और मैं वार्धक्य की दहलीज पर कदम रखते मुख के मातृवत सौन्दर्य में बूड़ सा जाता है. इतनी गरीबी और इतना गरिमा भरा मुख.. एक वत्सल हँसी दिखती है..अरे बेटा तोहके त हम बूढ़ नाहिं लागेलीँ न. जवान खिसियानी हँसी हँसता है.

हमलोग सड़क पर आ गए हैं. यह मानते हुए कि जहॉं भीड़ अधिक होती है, वहाँ चाय अच्छी मिलती है, सड़्क किनारे बेंच पर बैठ कर चाय पीते हैं, अपनी मान्यता को पुख्ता करते हैं और ऑटो पर बैठ जाते हैं. ऑटो पर ड्राइवर की बगल में एक सिपाही बैठ जाता है.


मैं ऐसे ही पूछ बैठता हूँ का हो अबकी चुनउवा में के जीती? शहर और देहात में वोट बँटि गइल, मुख्तरवा जीति जाइ. .अनायास ही बचपन में देखी नौटंकी के दृश्य उभरने लगते हैं... पता नहीं घाट की देखी नाभि-तेल प्रक्रिया और नौटंकी मिल कर में मन में क्या करने लगते हैं... लवण्डा नाच रहा है...इनाम... बाबू की तरफ़ से इनाम पॉंच रुपया और ढोढ़ी में तेल डालने के लिए चवन्नी...जिन बाबू ने दिया रुपैया......आज नाहीं मिलबे बिहान नाहीं मिलबे परसो मिलबे गन्ना में. लवण्डा नाच चुका और जा चुका. बनारस में मिलने का वादा वादा ही रहेगा. ढोढ़ी में तेल कौन डाले!
शिव शंभो तुम्हारी नगरी का मीमांसक मैं कौन होता हूँ? बस तुम्हारा नाम रख लेने से क्या होता है? शुभ, शव, कुरूप, सुरूप, अरूप, प्रेम, घृणा, संस्कार, विकार, साँड, राँड, संन्यासी सबको तुम ठाँव देते हो. कालकूट धारण करने वाले नीलकण्ठ हो तुम. मुख्तार को भी समो लोगे! बस गले से नीचे मत उतरने देना और अपनी नगरी पर नज़र बनाए रखना. ..

12 टिप्‍पणियां:

  1. इतनी अच्छी पोस्ट मगर लम्बी हो गयी है -इसे दो पार्ट में करना था -जाहिर है आलस कर गए !

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  2. धन्यवाद अरविन्द जी. मुझे भी लगा कि पोस्ट लम्बी हो रही है लेकिन चित्रों को देखते हुए सोचा यह लम्बाई ज्यामितीय लम्बाई ही है. एक निहायत ही छोटे भ्रमण को दो भागों में देना मुझे नहीं सुहाया.

    वैसे भी बनारस के आगे अपना बस कहाँ चलने वाला? गंगा ने जैसे चाहा वैसे ही बह गए.

    आते रहें. आप लोगों की टिप्पणियों से बल और दिशा दोनों मिलते हैं.

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  3. आपका यथार्थवादी दृष्टिकोण और मेरी तस्वीर - एक नया अनुभव है मेरे लिए ।

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  4. बहुत ही उम्दा लिखा है , कुछ यूँ लगा कि बनारस पहुच गया हूँ . बहुत ही देसी तरीके से बनारसी भाषा मै लिखा है. उम्मीद करता हूँ कि आपका आलस्य सुशुतावस्था मै ही रहेगा.

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  5. मल संस्कृति का सही चित्रण आपने दिखाया है कुछ तो मजबूरियां होती है ऐसे लोगों के पास , वर्ना ये हवाखोरी के लिए थोड़े आते हैं घाटों पर और लगे हाथ मल विसर्जन की क्रिया भी निपटा लेते हो
    बनारस भले ही माल से मालामाल हो रहा हो लेकिन नित्य क्रिया की समस्या से कसबे की ही भांति जूझ रहा है दीवालों पर गदहा लिख भर देने से गदहा हट नहीं जायेगा यहाँ यह कोई नहीं बताता या लिखता है की सार्वजनिक सौचालय या मूत्रालय यहाँ से इतनी दूर पर है कृपया उए प्रयोग करें बिना विकल्प दिए मात्र गली देने से गदहा मजबूरी में अनपढ़ बन कर ही सही नित्य क्रिया का अंजाम दे डालता है
    सटीक व बेबाक चित्रण के लिए धन्यवाद

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  6. बेचैन आत्मा के यहाँ अनूप जी ने लिंक चेंपा और ई पोस्ट हाथ लगी।

    ठीक इसी तरह मैं पैदल ही अस्सी घाट से हरिश्चंद्र घाट और आगे संभवत: मणिकर्णिका तक गया था। खूब तस्वीरें खींचा था। यही सब माहौल था।

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  7. कई जमानों बाद ऐसा लेखन पढ़ने को मिला, अनायास।
    दो चीजें समझ नहीं आई, प्रस्तर पर लोहे का जोड़ और अंतिम पैरा की बनारसी भाषा।
    उम्दा और सिर्फ उम्दा

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  8. बड़ा ही शानदार चित्रण है भाई साहब

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  9. Capitalizing on old material -needs a revisit and an addition with context to Manikarnika Moksha!

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