प्रात: का 07:45 का समय हमारे घर थोड़े अंतराल की फुरसत का होता है। बच्चे स्कूल जा चुके होते हैं । हम पति पत्नी दोनों प्रात: भ्रमण से मुक्त हो दंत धावन कर चुके होते हैं और मैं समाचार पत्रों पर सरसरी मार चुका होता हूँ। बच्चों के कमरे में एक निश्चित स्थान पर श्रीमती जी जमीन पर बैठ तरकारियाँ काटती हैं और मैं सामने ही पर्यंक पर पेट के बल लेटा ब्लॉग के पोस्ट पढ़ रहा होता हूँ। इसके पहले चाय साथ साथ समाप्त की जाती है- वहीं पर. . ।
फुरसत के ये दो कप रूटीन में सेट हो चुके हैं।
सब कुछ पूर्व निर्धारित सा यंत्रवत होता है:
" सुनिए जी ब्रश कर लीजिए।"
"हूँ.."
"चलिए, जल्दी करिए। पानी दे चाय चढ़ा दूँ।
मैं ब्रश करता हूँ। दो छुहारे, पाँच बादाम और दस पन्द्रह मुनक्कों या किशमिश के साथ दो गिलास पानी गटकता हूँ। लैप टॉप खोलता हूँ और ब्लॉगवाणी के खुलने के कुछ क्षणों के भीतर ही श्रीमती जी सब्जियों को प्लेटों में लिए चाय के साथ जमीन पर सामने आ विराजती हैं। दोनों धीरे धीरे चाय समाप्त करते हैं। बीच बीच में दैनन्दिन बातें होती हैं - एक लाइना और एकवर्णी। जैसे:
"आज ऑफिस से आते वक़्त सौ का फुटकर लेते आइएगा - दस दस का।"
"हूँ।"
"हूँ नहीं, कन्या भोजन कराना है - दक्षिणा देनी पड़ेगी।"
"हूँ।"
"सुन भी रहे हैं कि नहीं?"
"...."
मुझे पता है कि दिन में रिमाइण्डर मिलेगा सो हूँ हाँ करता रहता हूँ और ब्लॉग पढ़ता रहता हूँ। रिमाइण्डर नहीं मिलता तो काम भी नहीं होता। कभी कभी श्रीमती जी खुद कर लेना पसन्द करती हैं और कभी कभी फॉलो अप कर करवा भी लेती हैं.....।
मुझे पता है कि दिन में रिमाइण्डर मिलेगा सो हूँ हाँ करता रहता हूँ और ब्लॉग पढ़ता रहता हूँ। रिमाइण्डर नहीं मिलता तो काम भी नहीं होता। कभी कभी श्रीमती जी खुद कर लेना पसन्द करती हैं और कभी कभी फॉलो अप कर करवा भी लेती हैं.....।
आधा से पौन घण्टे के बाद कटी सब्जियों के साथ ही फुरसत के ये दो कप धुलने को उठ जाते हैं। इस दौरान घंटी बजे तो अटेण्ड करने की 100% ज़िम्मेदारी मेरी होती है।
.......
मेरा अवचेतन इस समय की प्रतीक्षा सा करता रहता है। मौन संवाद और साहचर्य के ये क्षण बड़े सुकून दायक होते हैं। कोई घिच पिच नहीं - शुद्ध फुरसत । यहाँ तक कि परिवेश भी इनका अनुशासन मानता है। घण्टी कभी भी ऐसा कुछ नहीं ले कर आती जिसमें भंग भाव हो - साहचर्य के वर्षों ने इन क्षणों को कितनी शक्ति दे दी है !
यहां आपका आलस्य चरमोत्कर्ष पर होता है............आप आलसियों के निर्विवाद सम्राट हैं............ईश्वर आपके आलस्य को शक्ति प्रदान करें .
जवाब देंहटाएं"यहां आपका आलस्य चरमोत्कर्ष पर होता है............आप आलसियों के निर्विवाद सम्राट हैं............"
जवाब देंहटाएंमैंने कभी जिक्र नहीं किया पर आलसी सम्राट होने का मुकुट मेरे सिर पर होना चाहिये । इधर आठ बजे तक मेरी आंख खुल रही है । सवेरे सवेरे हल्की सी ठंड बढ़ जाती है और ब्रह्ममुहुर्त की नींद का तो क्या कहना ।
पेट के बल लेटा -यही तो मेरी भी कम्फर्ट मुद्रा है -बाकी भी सिमिलैरिटी हैयै है -तरकारी से लेकर हूँ हाँ और सब !
जवाब देंहटाएंआप और अरविन्द जी की दिनचर्या के यह क्षण एकदम से सिमिलर हैं - मैं समझ नहीं पा रहा हूँ । आवश्यक रचनाधर्मिता की आवश्यक शर्त तो नहीं यह !
जवाब देंहटाएंलगता है जैसे अपनी खटिया कल्पवृक्ष के नीचे डाल ली हो| ऐसा खुशकिस्मत आदमी आलसी हो सकता है (बल्कि होना ही चाहिए) मगर नास्तिक नहीं|
जवाब देंहटाएंप्रसन्न रहो, आबाद रहो
बनारस रहो या इलाहाबाद रहो!
"शुद्ध फुरसत" क्या बात है !
जवाब देंहटाएंफैशन के दौर में गारंटी की तरह लगता है ये शब्द तो !
भगवान् ने ठीक इसी वक़्त चलने वाली स्कूल बनाई, जिससे फुरसत का आकाश थोडा और फ़ैल गया.इसमें बच्चों की धमाचौकडी से मुक्त सब कुछ जैसे मंद विलंबित में चलता है.
जवाब देंहटाएंअपने वाली बात कह दी आपने.
अब इस पर क्या कहूं...
जवाब देंहटाएंछुट्टे भिजवा दूं...
पत्नी काटे तरकारी/पति भरे हुंकारी/ कैसी लीला त्रिपुरारी्
जवाब देंहटाएंजै हो आलसी सम्राट की।
बड़ी ईर्ष्या हो रही है। हमारे लिये तो सबेरे का समय सात बजे से ढ़ाई घण्टा तो "दारुजोषित की नाईं" नाचते बीतताहै!
जवाब देंहटाएंऔर फोन पर जो हमारी भाषा होती है हमारी, वह सुन थानेदार भी कुछ शब्द सीख ले! :(
वाह रे आलसीपन !
जवाब देंहटाएंलोगॊं को पता ही नहीं
आलस्य तो सांसारिकता से आवरण है
इसी आवरण में विचारों के मन्द समीर बहा करते हैं
किसी को क्या पता...!