फुरसत के ये दो कप रूटीन में सेट हो चुके हैं।
सब कुछ पूर्व निर्धारित सा यंत्रवत होता है:
" सुनिए जी ब्रश कर लीजिए।"
"हूँ.."
"चलिए, जल्दी करिए। पानी दे चाय चढ़ा दूँ।
मैं ब्रश करता हूँ। दो छुहारे, पाँच बादाम और दस पन्द्रह मुनक्कों या किशमिश के साथ दो गिलास पानी गटकता हूँ। लैप टॉप खोलता हूँ और ब्लॉगवाणी के खुलने के कुछ क्षणों के भीतर ही श्रीमती जी सब्जियों को प्लेटों में लिए चाय के साथ जमीन पर सामने आ विराजती हैं। दोनों धीरे धीरे चाय समाप्त करते हैं। बीच बीच में दैनन्दिन बातें होती हैं - एक लाइना और एकवर्णी। जैसे:
"आज ऑफिस से आते वक़्त सौ का फुटकर लेते आइएगा - दस दस का।"
"हूँ।"
"हूँ नहीं, कन्या भोजन कराना है - दक्षिणा देनी पड़ेगी।"
"हूँ।"
"सुन भी रहे हैं कि नहीं?"
"...."
मुझे पता है कि दिन में रिमाइण्डर मिलेगा सो हूँ हाँ करता रहता हूँ और ब्लॉग पढ़ता रहता हूँ। रिमाइण्डर नहीं मिलता तो काम भी नहीं होता। कभी कभी श्रीमती जी खुद कर लेना पसन्द करती हैं और कभी कभी फॉलो अप कर करवा भी लेती हैं.....।
मुझे पता है कि दिन में रिमाइण्डर मिलेगा सो हूँ हाँ करता रहता हूँ और ब्लॉग पढ़ता रहता हूँ। रिमाइण्डर नहीं मिलता तो काम भी नहीं होता। कभी कभी श्रीमती जी खुद कर लेना पसन्द करती हैं और कभी कभी फॉलो अप कर करवा भी लेती हैं.....।
आधा से पौन घण्टे के बाद कटी सब्जियों के साथ ही फुरसत के ये दो कप धुलने को उठ जाते हैं। इस दौरान घंटी बजे तो अटेण्ड करने की 100% ज़िम्मेदारी मेरी होती है।
.......
मेरा अवचेतन इस समय की प्रतीक्षा सा करता रहता है। मौन संवाद और साहचर्य के ये क्षण बड़े सुकून दायक होते हैं। कोई घिच पिच नहीं - शुद्ध फुरसत । यहाँ तक कि परिवेश भी इनका अनुशासन मानता है। घण्टी कभी भी ऐसा कुछ नहीं ले कर आती जिसमें भंग भाव हो - साहचर्य के वर्षों ने इन क्षणों को कितनी शक्ति दे दी है !