मंगलवार, 23 मार्च 2010

वे लोग किस खुशी की बात करते थे ?

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भगत सिंह
राजगुरु
सुखदेव
श्रद्धांजलि, सभी चित्र साभार: http://www.shahidbhagatsingh.org
बलिदान दिवस: 23 मार्च 1931
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं।
वे लोग किस खुशी की बात करते थे ? ऐसा क्या था उस 'खुशी' में जो  जीवन तक निछावर कर गए?
.. आज स्वयं से, सब से यह पूछ रहा हूँ, "हम 'खुश' तो हैं न ?"
     

रविवार, 21 मार्च 2010

कुछ लिखना है लेकिन मन नहीं बन रहा इसलिए यह लिख दिया :)

(1 ) पोस्ट छपने के बाद से लेकर पहली टिप्पणी आने तक ही लेखक को यह सुविधा मिलनी चाहिए कि वह पोस्ट में परिवर्तन कर सके। उसके बाद नहीं। आदर्श स्थिति तो यह हो कि छपने के बाद से ही यह सुविधा बन्द कर देनी चाहिए,  आखिर ऐसे भी पाठक हैं जो पढ़ते तो हैं लेकिन टिप्पणी नहीं करते। लेकिन चूँकि वे दुबारा से पढ़ सकते हैं और वापस बिना टिप्पणी किए जा भी सकते हैं इसलिए उनके सापेक्ष कोई नियम बनाना ठीक नहीं है। 
टिप्पणी के मामले में बात अलग हो जाती है। आप ने कुछ पढ़ा, टिप्पणी किया और बाद में लेखक ने पोस्ट ही बदल दी ! ऐसी स्थिति से निपटने के लिए टिप्पणीकार को यह सुविधा मिलनी चाहिए कि वह अपनी पुरानी टिप्पणी में भी परिवर्तन कर सके। न न ! टिप्पणी मिटाना हल नहीं है। मिटाने के बाद भी सब कुछ उपलब्ध रहता है - कहीं न कहीं।
यह भी किया जा सकता है कि पोस्ट में किए गए परिवर्तन फुटनोट में स्वचालित रूप से नीचे समय के साथ अंकित होते रहें। 
 (2) आम जीवन में यूँ ही स्थापित हो जाने वाली टिप्पणी जब ब्लॉग जगत में आती है तो उसे अपने को स्थापित करने के लिए अधिकतम तीन स्तरों से गुजरना होता है। 
एक - जब पाठक टिप्पणी कर देता है तो वह केवल उसकी रहती है। 
दो - जब ब्लॉग स्वामी उसे देख समझ लेता है तो वह दो जनों की हो जाती है।
तीन - जब ब्लॉग स्वामी उसे प्रकाशित कर देता  है तो वह सारे ब्लॉग जगत की हो जाती है। 
मेरे जैसे कुछ आलसी टिप्पणी को इतनी दुरूह प्रक्रिया से नहीं गुजारते। मॉडरेशन नहीं लगाते। परिणामत: टिप्पणी बस पहले स्तर से ही गुजर कर सारे ब्लॉग जगत की हो जाती है। केवल ऐसी दशा में ही ब्लॉग स्वामी को यह अधिकार होना चाहिए कि वह टिप्पणी को मिटा सके। 
मॉडरेशन वालों को यह सुविधा नहीं मिलनी चाहिए। वे तो पहले ही देख सुन, सोच समझ कर प्रकाशित कर चुके हैं। 
यह सारी बकवास इसलिए कर रहा हूँ कि रविवार है। मन नहीं लग रहा और जो लिखना है वह इतनी दक्षता की माँग कर रहा है कि कँपकँपी छूट रही है। ब्लॉग जगत के महारथी, अतिरथी, सारथी, रथविरती, व्रती, पैदल ... वगैरह सबने टिप्पणियों पर कुछ न कुछ अवश्य लिखा है। मुझे लगा कि मेरा यह संस्कार तो अभी तक हुआ ही नहीं ! इसलिए सम्पूर्ण ब्लॉगर बनने की दिशा में एक और पग बढ़ाते हुए यह लेख लिख रहा हूँ। 
 उपर जो लिखा है वह इसलिए लिख पाया कि परोक्ष रूप से मुफ्त प्लेटफॉर्म उपलब्ध है। अगर इस काम के लिए पैसे अंटी से निकलते प्रत्यक्ष दिखते तो शायद न लिखता, संयम रखता। मुफ्त के प्लेटफॉर्म पर मुफ्त की सलाह देना अपराध नहीं एक कर्तव्य है - उसे मानने वाले की अंटी से हजारो नोट निकल जाँय तो भी। 
 अर्थ  यानि की धन बहुत महत्वपूर्ण है। 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' में यह सिद्ध किया जा चुका है कि प्रेम के प्रस्फुटन और उसको प्रवाहशील बनाने में भी धन का योगदान होता है। आखिर इतना धन न हो कि भैंस रखी जा सके तो दूध लेने कोई क्यों आएगी ? जब नहीं आएगी तो प्रेम पूर्व ताकाझाँकी नैन मटक्का कैसे होंगे? न होंगे तो प्रेम कैसे होगा ? ... सारांश यह है कि प्रेम के लिए धन परमावश्यक है। 
 पैकेट के दूध बेचने वाला गेट पर पुकार रहा है। आधुनिक युग ने प्रेम की तमाम सम्भावनाओं की हत्या कर दी है। पैकेट के दूध ने जाने कितनी प्रेम कथाओं को घटित होने से पहले ही समाप्त कर दिया होगा ! बड़ी त्रासदी है। 
 आप ने इसे पढ़ा यही बहुत है। टिप्पणी दे सकें तो और भी बड़ी बात होगी। दूध लेते समय दो लीटर उठौना महत्त्वपूर्ण नहीं होता, बाद में दूधवाला जो घलुआ देता है वह परम महत्त्वपूर्ण होता है भले 50 मिलीलीटर ही हो !     

बुधवार, 17 मार्च 2010

एक और कुकर्म की भूमिका

मेरे कुकर्मों की निन्दा न करो
मेरे कुकर्म निम्नतर हैं 
मेरे कुकर्म तुम्हें स्वीकार्य होने चाहिए: 
उसने बलात्कार किया - तुम चुप रहे 
उसने घोटाला किया - तुम चुप रहे 
उसने देश को समझौते के नीचे दफन कर दिया - तुम चुप रहे 
आज मेरे निम्नतर कुकर्म पर 
तुम इतने प्रगल्भ क्यों हो?
तुम पक्षपाती हो 
तुम उसके साथी हो
तुम्हारे मन में चोर है - 
तुम्हें याद दिलाता हूँ
तुम्हारी कसौटी ।
तुम्हें दुनिया में हो रहे
हर कुकर्म , हर अत्याचार, हर घपले
से गुजरना होगा
उन पर लिखना होगा - 
इसके बाद ही तुम लिख सकते हो मेरे स्याह कर्म 
कराह सकते हो
मेरे कुकर्मों की तपिश से झुलसते हुए -
बेहतर है चुप रहो जैसे पहले रहे थे 
तुम्हारा मौन  तुम्हारा कवच है
गारंटी है
कि
तुम निरपेक्ष हो इस सापेक्ष दौर में - 
बोलने पर तुम्हें सफाई देनी होगी :
उसने बलात्कार किया - तुम चुप रहे
उसने घोटाला किया - तुम चुप रहे
उसने देश को समझौते के नीचे दफन कर दिया - तुम चुप रहे
क्यों ? 
.. अब देखो न तुम्हें इस 'क्यों' पर टाँग 
मैंने अपनी टाँगे फैला दी हैं
एक और कुकर्म की भूमिका में - 
उम्मीद है कि टँगे हुए तुम 
चुप रहोगे। 

मंगलवार, 16 मार्च 2010

नवसंवत्सर पर प्रार्थना

आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:।
संगच्छध्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते
समानीव आकूति: समाना हृदयानि व:
समानमस्तु व मनो यथा व: सुसहासति।
धूप!
आओ,अंधकार मन गहन कूप
फैला शीतल तम ।मृत्यु प्रहर
भेद आओ। किरणों के पाखी प्रखर
कलरव प्रकाश गह्वर गह्वर
भर दो विश्वास सबल ।
तिमिर प्रबल माया कुहर
हो छिन्न भिन्न। सत्त्वर सुरूप
आओ। अंधकार मन गहन कूप
भेद कर आओ धूप।

सोमवार, 15 मार्च 2010

यहाँ थूकते जाइए

यह माला फूलों से नहीं हजार हजार के करेंसी नोटों से बनाई गई है।
जरा अनुमान लगाइए कितना रुपया !
थूकते भी जाइए।
मुझे आपत्ति नहीं होगी।  

शनिवार, 13 मार्च 2010

किस क़ुफ्र की सजा मुझे दी तुमने ज़िहादी !

zihad
लाहौर बम धमाकों में घायल 18 महीने का ज़ाहिद शाहिद
चित्र साभार: इंडियन एक्सप्रेस 
क़ाफिर नहीं, ईमान भी नहीं अल्लाताला पर -
किस क़ुफ्र की सजा मुझे दी तुमने ज़िहादी ! 
अगली बार बम फोड़ो तो खयाल रखना ज़िहादी
क़ाफिर मरें, ईमानदार मरें, घायल हों बेईमान
पर न घायल हों यूँ चन्द महीनों की साँसें ।
मर जाएगा कुछ, हो जाएगा सीने में दफन
याद आएगा हमेशा माँ की लोरियों पर
याद आएगा हमेशा माशूक की बोलियों पर
एक इंसान जो दफन हुआ अस्पताल की गोद में
बस याद आएगा ।
जवान हो जब मैं उठाऊँगा ए के 47
वो: जो याद आएगा - न क़ाफिर था न ईमान वाला
मारा गया मर गया बस इसलिए कि वह कुछ न था
बचता वही है जो क़ाफिर हो या ईमान वाला
बचने के लिए कुछ होना जरूरी है,
बस इंसान होना नाकाफी है।