मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

न कहना कि मैं मौन रहा

अभी अभी लखनऊ की हसीन सड़कों पर ड्राइविंग कर के लौटा हूँ। स्टेशन से घर तक बिना ब्रेक लगाए बिना गेयर बदले 45-50 की स्पीड, आराम से आलस का आनन्द लेते हुए। दुनिया चाहे जितनी ही हलकट कमीनी हो जाय, अच्छाई अपनी जगह बना ही लेती है। मेरे भीतर बैठे इंजीनियर को सड़कों की सुन्दरता के नीचे दफन गन्धाते भ्रष्टाचरण भी दिखते हैं लेकिन नगर के हृदयस्थल में दसियों किलोमीटर यूँ ड्राइविंग करना सुहाता भी है। साली अजीब स्थिति है!

गौतम राजऋषि (रिशि वालों से क्षमा) की इस पोस्ट को अभी अभी पढ़ा हूँ और यह भाग मन से जा ही नहीं रहा: 
 ब्लौग-जगत में भी जैसे ये कश्मीर वाला चिल्ले कलाँ अपनी अपरिभाषित-सी मनहूसियत लिये पसरा हुआ है। इन्हीं किसी भ्रमण के दौरान कलम का एक सिपाही कहीं कोई सच्ची बात कहता नजर आता है और फिर नजर आती है पूरे ब्लौग-जगत की तिलमिलाहट। चलो, इसी तिलमिलाहट के बहाने ये पसरी हुई मनहूसियत थोड़ी खिलखिलाती दिखाई देती है...संग-संग दस्ताने में छुपी ऊँगलियों को भी हँसी आती है और हँसते हुये वो की-बोर्ड पर लड़खड़ा कर कुछ संभलती हुई, कलम के उस सिपाही को और उसकी सच कहने की जिद्दी-सी जिद को सैल्यूट करती हैं।

ब्लॉग माफियाओं के विरुद्ध इन लेखों को नमन - सतीश पंचम की पोस्ट   और अमरेन्द्र त्रिपाठी की पोस्ट  
इन लेखों ने नकली खालों को उतारने का काम किया है। 
पाले हुए गुर्गे जिनके बारे में मुझे शक है कि वे असल में गुर्गे नहीं, खुद माफिया ही हैं; टिप्पणियों और लेखों के माध्यम से वमन करने में लगे हुए हैं। जाने कितना कूड़ा भरा हुआ है जो विरेचन इतना लम्बा खिंच रहा है? वे अखाद्य खाना न छोड़ें न सही, वैद्यकी अपना काम करती रहेगी। पंचम या अमरेन्द्र न सही कोई और सही। 
एक आदत सी हो गई है - सोचने में बेईमानी की। अमाँ आप का सोचना कोई थोड़े सुनता है? वहाँ तो तमीज से काम लो!  
न! न सोचना की कोई राजनीति या गुटबाजी है। हम तो बस ऐसे ही हैं। अपनी कठौती के पास जूते सिलते रहते हैं लेकिन  क्या करें? कभी कभी नज़र राजपथ की तरफ भटक ही जाती है। इस बार कुछ अधिक ही ... 
आखिर में अपनी एक _विता

ढूढ़ा किए दौरे जहाँ कि तिलस्म का राज खुले
देख लेते तुम्हारे अक्षर तो यूँ क्यूँ भटकते?
न भटकते तो कैसे होती हासिल ये शोख नजर
देखा तो पाया, आखराँ न होता कोई आखिरी मंजर।

चुप हैं खामोशी से भी नीचे तक
कैसा खामोश मंजर कि सब कहने लगे हैं
थके पाँवों के नीचे सरकते ग़लीचे
थमने की बातें करने लगे हैं।

तुम न कहते तो जाने क्या बात होती
जो कह गए हो तो जाने क्या बात होगी
जो कहना था न तुम कह पाए न हम कह पाए
अब इशारों इशारों में क्या बात होगी ।

चलो आज छोड़ें इशारे
कह दें जो कहनी थी पर कह न पाए -
देखो सड़क किनारे वो बूढ़ा सा पीपल
उसके पत्ते हवा में खड़कने लगे हैं
बैठें कुछ देर छाए में किनारे
न कहना कि ऐसे में क्या बात होगी।

समझो न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर
बैठें पीपल तले, शफेखाने, मयखाने या मन्दर
कोई सूरमा ऋषि हो या अजनबी सिकन्दर
हो जाती है बात जो होनी है होती
ग़र दिल के कोने कहीं लगावट है होती।

माना कि तुम हो परेशाँ और मैं भी हैराँ
जिनके जिन्दा निशाँ हैं जुबाँ पर हमारे
दिल ताने हुए है सख्त सी धड़कन 
फिर कैसी ये तड़पन जो न तुम भूल पाते
न हम भूल पाते !

एक बात जो है तुमको बतानी
एक उलझी जुबानी
कि थी ही नहीं इतनी काबिल परेशानी
जो न हम मोल पाते न तुम तोल पाते
जो न हम तोल पाते न तुम मोल पाते।

चलो छोड़ो ये मोल तोल की बातें
देखो पीपल तले वो भुट्टे की भुनाई
खाएँगे भुट्टे और पिएँगे एक लोटे पानी
एक गमछे से पोंछेंगे हाथ और आँखें
चल देंगे धीमे से हँसते ।

मानो कि वो बहुत बात होगी
न होंगे गलीचे न होंगे वो मंजर -
मैंने कहा था कि नहीं ?
न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर। 

21 टिप्‍पणियां:

  1. इन वमन करने वालों को नजरअंदाज करना ही उचित है। ज्यादा ध्यान देने से इनका भाव बढ़ जाता है। पर हमसे सब्र न हुआ और एक जगह टीप दे आए। अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है मुझे ब्लॉग जगत में।
    खैर... कविता अच्छी है आपकी।

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  2. दुनिया चाहे जितनी ही हलकट कमीनी हो जाय, अच्छाई अपनी जगह बना ही लेती है।....
    मेरा विश्वास तो हमेशा इसी पंक्ति पर कायम रहा है ...

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  3. यही तड़प और उत्साह ब्लॉग जगत का प्रवाह बनाये हैं। स्थिर जल को सड़ने के सिवा कुछ भाया है? इस विषय पर लिख रहा हूँ, आजकल।

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  4. " बिना ब्रेक लगाए बिना गेयर बदले 45-50 की स्पीड" आसार अच्छे नहीं दिखते:)
    ये जुमला कहीं पढ़ा हुआ लग रहा है, याददाश्त भी धोखा देने लगी है अब।
    न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर- ये रचना बहुत शिद्दत से याद आ रही है आजकल। कई बार पढ़ चुका हूँ।
    थो़ड़ा कन्फ़यूज़न अपने को भी है, ब्लॉग जगत के इस तिलमिलाहटी स्टाईल पर। कहने को सब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दम भरे रहते है, लेकिन जरा सी अरुचिकर बात नहीं पचती।

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  5. @ मो सम कौन
    ज्यादा हाँक दिए क्या? चलिए 35-40 का भाव लगा लीजिए। कोई प्याज थोड़े है कि डाउन नहीं होगी :)
    लेकिन अल्लसुबह सचमुच सुचिक्कण मार्ग पर ब्रेक और गेयर की जरूरत नहीं पड़ी।
    भ्रष्ट रवानी ..मोजा ही मोजा।

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  6. संतुलित गति में दुर्घटना का खतरा कम ही होता है।

    आभार

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  7. सोचने में भी बे-इमानी..... क्या करें...... एक आदत जो हो गई है...

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  8. प्रसंग तो पल्ले न पड़ा...पर आपकी कविता मन में उतर गयी..

    लाजवाब लिखा है...लाजवाब !!!!

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  9. 'समझो न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर'

    :)

    सादर।

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  10. बैकग्राउंड पूरा नहीं पता, इसलिए रस पूरा नहीं मिला पर जितना सकते थे उतना तो निचोड़ ही लिए हैं.... :)

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  11. बढ़िया कविता लिख डाली, ड्राइविंग करते हुए...अक्सर ही जाया करें इस तरह लॉंग ड्राइव पर...नई नई रचनाएं पढने को मिलेंगी.

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  12. कतई ज्यादा नहीं हाँके हैं आप। हों भी तो हम कहेंगे नहीं:) काहे से कि जब अपनी बतायेंगे कि कैसे टार्गेट बनाकर दो सांस या तीन सांस तक आंखे बंदकर बाईक चलाते हैं तो आप भी कहेंगे कि ज्यादा हाँके हैं।

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  13. दुनिया चाहे जितनी ही हलकट कमीनी हो जाय, अच्छाई अपनी जगह बना ही लेती है.......
    असली बात तो इसी लाइन में है भाई जी.

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  14. गिरिजेश जी,

    इन चिलगोजरों की उस दिन सफ़ेद घर में जमकर तुड़ाई की गई थी लेकिन इसका असर सीधे इनके दिमाग पर पड़ेगा और ये लोग फर्जी प्रोफाइल बना कर आंय बांय बकने लगेंगे, नहीं पता था वरना और ज्यादा तुड़ाई की जाती। वैसे भी शाब्दिक तुड़ाई ही तो करनी थी, कौन सा हाथ पैर चलाना था।

    और अब तो वो उद्देश्य भी पूरा हो गया है जिसके लिये पुरस्कारी लाल वाली पोस्ट लिखी गई थी। इन लोगों को बेनकाब करने के साथ साथ सभी ब्लॉगर गणों को आगाह करना था कि इस तरह से अपने आप को दूसरों के हितों के लिये इस्तेमाल न होने दें।

    लोग अपनी टिप्पणीयां स्वस्थ उद्देश्य से देते थे कि चलो अपनी बात रखी जाय। ब्लॉगिंग के बारे में अपने विचार रखे जांय। लेकिन चिरकुटों ने ब्लॉगरों की उन्हीं बातों को, उन्हीं के प्रोफाइल वाली तस्वीरों के साथ एक गलत भावना से इस्तेमाल किया और बदले में आ रही आलोचना वाली टिप्पणियां दनादन मिटाते चले गये। शायद इन लोगो का विचार था कि ज्यादातर को तो पुरस्कार फुरस्कार दे ही दिया गया है। कोई क्योंकर बोलेगा।

    ये वही लोग हैं जो खुला संवाद होने की वकालत करते हैं, स्वस्थ संवाद के नाम पर पुरस्कार बांटते फिरते हैं और पीठ पीछे टिप्पणियां मिटाकर संवाद का खुद ही गला घोंटते हैं। इसी बहाने उन लोगों के चेहरे से पर्दे भी उतर गये जो अपने आप को ब्लॉगजगत का शुभचिंतक बताते फिरते थे।

    खैर, ये सब तो चलता ही रहेगा। जरूरत थी कि इस तरह के सड़ांध को फैलने से रोका जाय और संभवत: काफी हद तक इस मामले में कामयाबी भी मिली है। ब्लॉगर गण समझ तो पहले से ही रहे थे लेकिन अब और मुखर होकर विरोध करेंगे इस तरह की हरकतों का।

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  15. हम तो <१० ब्लॉग के पाठक हो गए हैं. अपना अपना एक्विलिब्रियम प्वाइंट है जी. देर-सवेर इंसान वहीँ पहुंचता है. काहे को भटके इधर-उधर और दिमाग खराब करें. वैसे ही इंटरनेट पर कचरा ही कचरा है ये सभी मानते हैं. डाटा मिला तो भेजता हूँ. पर ये तो तय है कि रैंडम घूमने पर अक्सर कचरा ही हाथ लगेगा. कविता पसंद आई और जितने लिंक हैं वो <१० में आते हैं :)

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  16. 'अत्यल्प' को कहाँ छोड़ सकूंगा ! बहुमत वाले इस ब्लागी लूटतंत्र में आप 'अत्यल्प' कोटे के नागरिक हैं सो बिन लिखे रहा न गया :)
    .
    सतीश जी के 'एक्टिविस्ट' जज्बे को सलाम करता हूँ !
    इतना ज्यादा चिरकुटई है कि कभी कभी चुपचाप लिखना कर्महीन बना देता है , और अगर लेखन और कर्म में ज्यादा अंतर मानने वाले मानव आप नहीं हैं तो लेखनहीन भी ! , ऐसी स्थिति में में विरोध की उपस्थिति आवश्यक हो जाती है ! प्रविष्टियों के बाद का पसरा बिलबिलाव इस तर्क को और पुख्ता कर रहा है कि '' ....... अब तो वो उद्देश्य भी पूरा हो गया है जिसके लिये पुरस्कारी लाल वाली पोस्ट लिखी गई थी। ''
    .
    अब हंसी आती है इस ब्लोग्बुड की स्थिति पर कि यहाँ ऐसे ऐसे समरस जीव है कि वाहियात पोस्ट पर भी 'खूबसूरत अभिव्यक्ति' और अच्छी पोस्ट पर भी 'खूबसूरत अभिव्यक्ति' लिख कर आते हैं | इनकी टीप की वैधता को ध्वस्त मानता हूँ , जिनके लिए लिखने और हवा छोड़ने में ज्यादा अंतर नहीं है ! ऐसे जीव संख्या मात्र के रूप में जिए जा रहे हैं , जिनके जीवन और लेखन का शायद कोई उद्देश्य नहीं ! चूंकि ऐसों की संख्या बहु है , इसलिए बहुलांश में ब्लागरी भी उद्देश्यहीन दिखेगी , वगर्ना यह माध्यम तो कमाल का है साहब !!

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  17. अपनी समझ मे मामला नही आया जी, ओर ना ही अब समझना चाहते हे, हमे क्या पडी टांग अडये.धन्यवाद सुंदर कविता के लिये.
    आप भी जुडे ओर साथियो को भी जोडे...
    http://blogparivaar.blogspot.com/

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  18. ह्म्म्म , इस मंजर का आगाज तो मनमाफिक है और अंजाम तो हमें पता ह़ी है :))))
    बकौल गुप्त जी,
    अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है
    न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है
    इस हेतु हीं तो कौरवों का पांडवों से रण हुआ
    जो भव्य भारतवर्ष के कल्पांत का कारण हुआ

    पता नहीं यह रायता वमन करने के बाद फैला या रायता फैलने के बाद वमन शुरू हुआ लेकिन एक बात तो तय है कि इसको नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए, ई विषबेल चाहें नेबुआ के झाँख काटे खातिर के केहू ना केहू के त बाऊ मतीन लंठ बनहिं के न पड़ी.

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  19. ...तो यहाँ साझा किया अपने उस रात की अपनी नशीली ड्राइविंग का सरूर और वो भी इतनी खूबसूरत कविता के जरिये।

    ब्लौग-जगत की इस तिलमिलाहट में तनिक और इजाफा करने का शुक्रिया। वैसे मेरा नाम, आफिशियल नाम गौतम राजरिशी {ऋषि वालों से क्षमा याचना सहित} ही है। अब ये क्यों कैसे हुआ, उसमें बिहार एजुकेशन बोर्ड वालों की मेहरबानी है।

    अमरेन्द्र भाई को तनिक बताइये कि उनके इस सत्यवाद से ब्लौग का तो कुछ भला नहीं होगा, उल्टा वो अपनी क्षमता का सही उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।

    ....और हाँ, नये साल की समस्त शुभकामनायें। इस आलसी का ये शाही आलस बरकरार रहे!

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  20. (१) इतने सारे आलस्य के बावजूद आप बहुत कुछ कर गुज़रते हैं :)

    या फिर ...

    (२) आज की पोस्ट पर राज भाटिया की टिप्पणी के साथ :)

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