बिजली की दरकार है, दुखिया हैं सब लोग
हाकिम को किसकी पड़ी, तम को रहते भोग।
बड़ा बाड़ा खूब बड़ा, पत्थर की है रेल
काम न होय गए बिना, निकसे होती झेल।
कागज नेहा ना लगे, टेबल की यह रीत
थैली को ताड़े रहे, पेंग बढ़ावे प्रीत।
ना जैयो रे प्रेम पथ, धोखे में है भीर
गली किनारे बैठ कर, बाँचो अपनी पीर।
चलते चलते .....
खुद से दूर रहने को इंसाँ ने हसीं आशियाने गढ़े
हो बू-ए-रंगोरोगन या लहू पसीना,नाक ऊँची रही।
भाई साहब, आप गलती करें, ये तो संभव नहीं है लेकिन हम हँसी को हसीं पढ़कर ज्यादा आनंद पा रहे हैं। गुस्ताखी माफ़।
जवाब देंहटाएंआप की गुस्ताखी माफ कर दी है। और कोई चारा ही नहीं था जो जुगाली करते :)
जवाब देंहटाएंभई, हमें तो यह सलाह सटीक लगी:
जवाब देंहटाएंना जैयो रे प्रेम पथ, धोखे में है भीर
गली किनारे बैठ कर, बाँचो अपनी पीर।
जीवन के इस सत्य को, सह न पायें धीर,
जवाब देंहटाएंगली किनारे बैठ कर, बाँच रहे हैं पीर।
बिजली की दरकार है, दुखिया हैं सब लोग
जवाब देंहटाएंहाकिम को किसकी पड़ी, तम को रहते भोग।
सार्थक संदेश
वाह वा ...वाह वा....
जवाब देंहटाएंखल बंदना में आपके पीछे खड़े हैं भैया ...
शुभकामनायें
ab ee ma hum ka tipiyaye.....
जवाब देंहटाएंniman laga...par thora samjha...
pranam.
पसंद आए सभी दोहे, और 'चलते-चलते' भी.
जवाब देंहटाएंतो आप भी पकडे गये? हा हा हा।
जवाब देंहटाएंजीवन के इस सत्य को, सह न पायें धीर,
गली किनारे बैठ कर, बाँच रहे हैं पीर।
हर एक दोहा बहुत अच्छा लगा। धन्यवाद।
सटीक दोहे...
जवाब देंहटाएंइन्हें ध्यान में रख आदमी अपना कल्याण कर सकता है..
सबसे अच्छा यही लगा...
जवाब देंहटाएंना जैयो रे प्रेम पथ, धोखे में है भीर
गली किनारे बैठ कर, बाँचो अपनी पीर।
यह नहीं समझा...
बड़ा बाड़ा खूब बड़ा, पत्थर की है रेल
प्रयत्न करके समझ तो शायद सब गया ...तम भोग को क्या तामस भोग किया जा सकता है ? नहीं नहीं मैं कोई पिंगल नहीं पाद रहा हूँ ! बस कह रहा हूँ !
जवाब देंहटाएंना जैयो रे प्रेम पथ, धोखे में है भीर।
जवाब देंहटाएंगली किनारे बैठ कर, बाँचो अपनी पीर॥
बाँचो अपनी पीर, नीर सरिता का बहता।
भीर नहीं मति धीर सफल जीवन में रहता॥
बन सत्यार्थमित्र पक्का, मत धक्का खैयो।
भूले से भी कभी प्रेम-पथ में ना जैयो॥
@ अरविंन्द जी
जवाब देंहटाएंबिजली माने प्रकाश
प्रकाश का अभाव माने अन्धकार - तम
उस तम को प्रभु वर्ग भोग रहा है।
'तामस' न तो भाव में बैठता है और न छ्न्द के मात्रा अनुशासन में :)
वैसे दूसरी पंक्ति का एक और अर्थ निकलता है जो जन को कटघरे में खड़ा करता है।
चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोये.......
जवाब देंहटाएं२ जी और नीरा के बीच - अब बचा न कोये..
बढिया लगा ये अंदाज़.
@ देवेन्द्र जी
जवाब देंहटाएंयह प्रतीक है निर्मम, भ्रष्ट और शक्तिशाली राज्य व्यवस्था का।
सूट्टा इसे ही कहते हे क्या...
जवाब देंहटाएंकागज नेहा ना लगे, टेबल की यह रीत
थैली को ताड़े रहे, पेंग बढ़ावे प्रीत।
मस्त कर दिया जी आज तो आप ने सुट्टा ओर फ़िर पेंग धन्यवाद
नागा बाबा का सुट्टा और पंक्तियों का अट्ठा....जोरदार है यार।
जवाब देंहटाएंवैसे, नागा बाबा की आधी तस्वीर लगाई है,..... पूरी वाली लगा देते तो देखते..... पंक्तियां खुद ब खुद पंक्तिबद्ध होकर आपको नमन करतीं :)
निर्वेद है , ठीक है ! भाव चिलम के कश खींचे बिना कहाँ आते ऐसे ! निर्वेद और चिलम का यह संयोग भी गजब है !
जवाब देंहटाएंदोहे व उन पर किये गए कमेंट्स सब मिला के मजा आ गया.
जवाब देंहटाएं"खुद से दूर रहने को इंसाँ ने हसीं आशियाने गढ़े
जवाब देंहटाएंहो बू-ए-रंगोरोगन या लहू पसीना,नाक ऊँची रही।"
बॉस तेजाब में कलम घुसेड़ कर ऐसे शेर लिखते हैं क्या, पढ़ते ही दिलो दिमाग पर छाया बरसों का मैल रिसने लगा है ।
कागज नेहा ना लगे, टेबल की यह रीत
जवाब देंहटाएंथैली को ताड़े रहे, पेंग बढ़ावे प्रीत।
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प्रतीक पुराने, पर कविता आधुनिक!
टिप्पणी के मामले में सहमत तो स्मार्ट इन्डियन से हैं पर अमरेन्द्र जी के संयोग संकेत भी बुरे नहीं हैं :)
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