रविवार, 26 दिसंबर 2010

समझ

दोनों अपने अपने ब्लॉग पर प्रेमकहानियाँ लिखते थे। जब वह लिखता तो लड़के की तरह ही लिखता था - अपनी देखी हर खूबसूरत समझदार लड़की से कुछ कुछ चुरा कर एक सुन्दरी को गढ़ता और आह भरते सोचते हुए लिख देता कि काश! उसे कोई लड़की अपनी जैसी मिली होती तो पूरे संसार को आसमान पर टाँग आता और धरा पर सब कुछ फिर से शुरू करता - मनु और श्रद्धा की तरह। 
उसकी कहानियों में वे संवाद होते जो उसने उन लड़कियों से किए थे जो कभी उसकी प्रेमिकायें हुआ करती थीं। बहुधा दर्पण के पास जाकर स्वयं से पूछता - यार! तुम इतने हैंडसम तो न थे जो उन्हों ने तुम्हें इतना भाव दिया और फिर हौले से मुस्कुरा देता। उस पर जान छिड़कने वाली पत्नी पीछे से आकर कोंच जाती - अकेले अकेले मुस्कुराये जा रहे हो, कोई फिर याद आई क्या? वह फिर मुस्कुराता और तब तक टीवी खोल चुकी पत्नी को स्क्रीन पर किसी इश्किया गाने में डूबा देख सोच बैठता, इसने कभी किसी से इश्क़ किया भी होगा शादी से पहले? उस समय उनके बच्चे पढ़ रहे होते थे। ऐसा करीब रोज ही होता था... 
...जब वह लिखती तो कभी लड़के की तरह लिखती और कभी लड़की की तरह।
जब वह लड़के की तरह लिखती तो इतनी जान डाल देती थी कि सभी पुरुष वाह वाह कर उठते और स्त्रियाँ आहें भरतीं कि काश! कोई ऐसा चाहने वाला मिला होता। जब ऐसी कोई कहानी लिखना समाप्त करती तो चश्मा उतार कर आँखों को सहलाती और मुस्कुरा देती - पुरुष तो वैसे भी पढ़ते, वाह वाह करते। ये स्त्रियाँ इतनी सेंटी क्यों हो जाती हैं? 
संसार में ऐसे चाहने वाले लड़के एक तो होते ही कम हैं और जो होते हैं वे ग़जब के मूर्ख! वह फिर से मुस्कुराती - अगर यही बात किसी पुरुष ने कही होती तो उसे तुरन्त 'मेल शोविनिस्ट' जैसी किसी उपाधि से नवाजती और वह बेचारा या तो सफाइयाँ देता या गालियाँ देने लगता (चुपचाप का विकल्प उसकी सोच में नहीं होता।)। वह फिर मुस्कुराती कि ऐसा कर के वह उसकी उपाधि को प्रूव कर रहा होता। मार्के की बात यह कि अगर वह यही बात लड़कियों के लिए कहती तो भी दोष पुरुषों का ही होता। 
जब वह लड़की की तरह लिखती तो चार पाँच बार लिखना रोक कर आईने में खुद को निहारती। चेहरे की लकीरों को निगाहों से मसल कर सलवटों को भूल जाती। उसे अपने बच्चे की सुध भी आती और अपने पति को चिल्ला कर उसे एक बार देख लेने को कहती। उस समय वह उसे 'जानू' कह कर नहीं बुलाती थी। पति, जो कि क्रिकेट का रिकार्डेड मैच देख रहा होता, सबकॉंसस में 'जानू' की कमी को नोटिस करता और अपनी जगह से हिलता तक नहीं। वह उठती, बच्चे को देखती, पति के पास आकर पूछती,"जानू! बहुत धाँसू गेम है क्या?"। 'जानू' सुन कर वह आँखें उठाता, मुस्कुराता और पूछता,"कहानी पूरी हो गई?" वह 'नहीं' कहती और फिर से दोनों अपने काम में लग जाते। उस समय दोनों  के दिमाग ऑफिस के टेंसन से फ्री होते थे।...
एक दिन पुरुष ने स्त्री का ब्लॉग ऐसे ही पढ़ा और कुछ टिप्पणी लिख कर चला आया। कुछ ही सेकेंड बाद उसे अपनी बेध्यानी का अहसास हुआ और वह चिल्ला उठा - अरे! वह तो एकदम उसी की तरह लिखती है! वह उसे पढ़ती है क्या? चालाकी तो देखो, कितनी बारीकी से उसने उड़ाया है और अपनी मौलिकता जोड़ अलग ही फ्लेवर दे दिया है! 
वह 'मौलिकता' पर अटक गया। क्या पता वह उसी की तरह हो? वह फिर अटक गया - वह उसे क्यों नहीं मिली? 
वह उलझ गया। स्त्री का प्रोफाइल देखा, कुछ और पढ़ा तो वह विवाहिता निकली। 
उसने उसे मेल किया - बस एक प्रश्न, क्या आप मुझे पढ़ती हैं? 
दो दिनों बाद उसे उत्तर मिला - 
नहीं। मेल के बाद तुम्हें पढ़ा। समझ गई कि तुम क्या सोच रहे हो। यू मेल शोविनिस्ट! कभी लड़की की तरह लिख कर दिखाओ। 
...पुरुष ने यह आह भरना छोड़ दिया है कि काश! उसे कोई लड़की अपनी जैसी मिली होती तो पूरे संसार को आसमान पर टाँग आता और धरा पर सब कुछ फिर से शुरू करता - मनु और श्रद्धा की तरह।
आज कल अपनी पत्नी से पूछता रहता है - जानू! जब तुम लड़की, मेरा मतलब कॉलेज में थी तो कैसे सोचती थी?
उसकी पत्नी 'जानू' को नोटिस करते सोचती रहती है - मैं अब तक इस पर इतनी जान क्यों छिड़कती रही?
दूसरी तरफ क्रिकेट, कहानी, जानू और बच्चे की केमिस्ट्री वैसे ही है। घर में ऑफिस का टेंसन तो अब भी नहीं लेकिन स्त्री आईना देखते हुए चश्मा लगाने लगी है।
...यह कहानी ही है, कुछ और नहीं, इसे पुरुष की तरह लिखा है और मुझे स्त्री मन की कोई समझ नहीं है।          
     

27 टिप्‍पणियां:

  1. मजेदार।
    ..पती-पत्नी दोनो ब्लॉगर ! हाय राम! बच्चों का क्या होगा ?

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  2. ये तो बहुत ही खतरनाक स्थिति है .........

    सब में कहीं न कहीं असुरक्षा की भावना जरूर रहती है, जो इसको छिपा ले जाय वही सिकंदर !


    मनोविज्ञान से परिपूर्ण कहानी थी ......
    बहुत ही अच्छी है

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  3. कहानी के नायक को चैलेंज स्वीकार कर लेना चाहिये था। ज्यादा से ज्यादा हार ही तो जाता, कभी कभी हार में भी सुख मिलता है।
    आचार्य, आप ही कभी लड़की की तरह लिखकर दिखा दीजिये:)

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  4. @यह कहानी ही है, कुछ और नहीं, इसे पुरुष की तरह लिखा है और मुझे स्त्री मन की कोई समझ नहीं है।....
    ऊधो की तरह ?----सब कुछ लिख लेने के बाद यह लिखना कि समझ नहीं -समझ नहीं आया. बेहतरीन पोस्ट.

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  5. यह कहानी हृदय फलक पर गहरी छाप छोड़ती है। एक स्‍त्री का अस्तित्‍व अपने अतीत, वर्तमान और भविष्‍य से जूझता हुआ खुद को ढूंढता रहता है। स्मृतियों और वर्तमान के अनुभव एक-दूसरे के सामने आ खड़े होते हैं तो लिखना रोक कर आईने में खुद को निहारती। चेहरे की लकीरों को निगाहों से मसल कर सलवटों को भूल जाती। उसे अपने बच्चे की सुध भी आती।

    इस कहानी पर मुझे तो बस इतना कहना है,

    क़तरे में दरिया होता है

    दरिया भी प्यासा होता है

    मैं होता हूं वो होता है

    बाक़ी सब धोखा होता है

    बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    विलायत क़ानून की पढाई के लिए

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  6. चलिए साहब मान लिया की कहानी ही है. कहानी को पढना और उसका मजा लेना ही अपना स्वभाव है. कोई टीका टिप्पणी नहीं.

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  7. ...यह कहानी ही है, कुछ और नहीं, इसे पुरुष की तरह लिखा है और मुझे स्त्री मन की कोई समझ नहीं है।

    स्त्री मन की समझ नहीं है तो ऐसे कैसे लिख बैठे यार कि - बहुधा दर्पण के पास जाकर स्वयं से पूछता - यार! तुम इतने हैंडसम तो न थे जो उन्हों ने तुम्हें इतना भाव दिया और फिर हौले से मुस्कुरा देता। उस पर जान छिड़कने वाली पत्नी पीछे से आकर कोंच जाती - अकेले अकेले मुस्कुराये जा रहे हो, कोई फिर याद आई क्या?

    ये स्त्रीमन के बारे में निर्मला में प्रेमचंद ने कहा है कि - इंसान बूढ़ा हो जाता है लेकिन कभी स्त्री को समझ नहीं पाता।

    (प्रसंग....जब निर्मला के विवाह की तैयारी के दौरान निर्मला की मां अपने पतिदेव से कहती है कि खर्चा तनिक सोच समझकर किजिए...अभी दूसरी भी है....लेकिन किसी बात को लेकर खुद अड़ जाती है कि नहीं, निर्मला की शादी में तो यह होना ही चाहिये )

    मस्त राप्चिक पोस्ट। थोड़ा कन्फूजन हुआ लेकिन मजेदार लगा।

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  8. दोनो पक्ष महत्वपूर्ण हैं, टीस बराबर की होती है।

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  9. शायद मैं एक नयी आइडेण्टिटी बना कर सुबुकसुबुकवादी ठेलने लगूं यह पढ़ कर!

    -- भीगी पलकें, सुलगते आंसू

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  10. बहुत सारे पहलू हैं , या तो या मान लूँ कि नारी मनोविज्ञान न शरद से पहले किसी को समझ आया था, न उसके बाद , या फिर यह मान लूँ कि शरद ने उनके बारे में सिर्फ अच्छा ही लिखा है |

    जो भी हो स्त्री के मन को समझकर लिखना फिर भी ठीक है, लेकिन अन्दर घुसकर उसी हिसाब से सोचकर लिखना अपने बस का नहीं रे बाबा !!!

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  11. mujhe lagta hai ki samajha sirf manojmishra ne hai aur maza liya hai rajiv ne .ardhnarishwar ki kalpana kaise huee hogi.....aap bahut kuchh samajhte hain.bau ko layen ...intezaar bhari pad raha hai.

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  12. यह सब प्रकृति का प्रपंच है -श्रेष्ठ पुरुषों को भी इन वाहियात बातों में समय जाया कराने का उपक्रम ! कुदरत के खेल निराले !
    मैं दावे के साथ कहता हूँ की नारी को श्रेष्ठ पुरुष की समझ नहीं है ,वह मूलतः खिलंदड़ों ,दिखावा करने ,चमकदार कपडे पहनने वालों और आँख के अंधे (खुल कर रूप सौन्दर्य की बात भी तभी हो पाती है ) तथा गाँठ के पूरों (ताकि उसकी और संतति को जीने के लाले न पड़ें ) को पसंद करती है ....बहुत सी बातें मेरे मन में भी -यह कहानी उनका अंशतः प्रगटन है !
    कहानी आप और भी अच्छी लिखते हैं तो फिर कविता को क्यों थोडा विराम न दिया जाय !

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  13. @ अरविन्द जी,
    'प्रकृति और पुरुष' और एक मैट्रिक्स:

    पुरुष+पुरुष तत्व

    स्त्री+स्त्री तत्व

    पुरुष+स्त्री तत्व

    स्त्री+पुरुष तत्व

    अपने आप में एक बहुत बड़ा विषय है। जीवन के और अनुभव ले लेने के बाद, रिटायर हो जाने के बाद साइंस फिक्शन और इस विषय पर लिखने की मेरी योजना है जिसमें नारीवाद भी आएगा - अगर लिखने लायक बचे रहे तो, वरना आजकल बीमारियाँ इतनी कम उम्र में पकड़ ले रही हैं कि रिटायर होने से पहले ही रिटायर हो जाने की आशंका है :)
    कविताएँ तो बस आ जाती हैं, मन की सोच की ओर संकेत करती हुई। उन्हें मैं प्रवाही शब्द कहने लगा हूँ।

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  14. गिरिजेश जी आज पहली बार आपके चिठ्ठे पर आया हूँ। अभी तक तो ज्यादातर 'लोकप्रिय' किसम के ब्लॉग्स पर ही भटकता रहा हूँ। अब धीरे धीरे उन ब्लॉग्स तक भी पहुँचने की कोशिश कर रहा हूँ जो वास्तव में पठनीय हैं और जो 'अत्यल्प स्तरीय' में शामिल हैं। बहुत से मिले भी हैं पर अधिकांश की खोज जारी है। आप का चिठ्ठा भी बेशक इनमें से एक है।
    ये रचना आपकी चाहे कहानी हो या आपबीती, है बड़ी मनोवैज्ञानिक। अच्छी है।

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  15. aapki post padhte hain...phir tippani
    .....phir post .....hamare liye kahne
    ko kuch hota nahi .... but itna achha
    lagta hai ki 'kuch bhi tip dete hain'
    take aapko pata chale hamne bhi padha
    hai .....


    pranam.

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  16. स्त्रियों को ही कहां आपके मन की समझ होगी !

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  17. स्त्री मन की समझ होती नहीं, लोगो को?...या फिर लोग कोशिश नहीं करते??...क्रिकेट,ऑफिस की बातें खुली किताब सी हैं....कोशिश नहीं करनी पड़ती ,ना वहाँ :)

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  18. चिट्ठा पढ़ने नही, चिट्ठे का लिंक लेने आई थी और पोस्ट पढ़ कर एक स्माईली दे कर चले जाने का मन था, जो कि सच्ची टिप्पणी थी। मगर टिप्पणी पढ़ते पढ़ते लगा कि अच्छी खासी हलके फुलके मूड में लिखी गई पोस्ट फिर से नारी पुरुष के चक्कर में पड़ गई।

    खैर...!! फिलहाल पोस्ट अच्छी लगी, इसलिये नही क्योंकि कहानी में महिला पुरुषों को समझती थी, पुरुष महिलाओं को नही समझता। बल्कि इसलिये क्योंकि बुनावट अच्छी थी। वैसे महिलाएं लिखती ही कितना हैं, महिलाओं के विषय में ? पुरुष ही तो अधिकांशतः उनकी संवेदनाओं को आवाज़ देते हैं। जो भी लेखक होगा, उसमें ये सूक्ष्म दृष्टि स्वयं आ जायेगी।

    बधाई

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  19. "जब वह लिखता तो लड़के की तरह ही लिखता था - अपनी देखी हर खूबसूरत समझदार लड़की से कुछ कुछ चुरा कर.....
    ....... मुस्कुराये जा रहे हो, कोई फिर याद आई क्या?"
    ये तो गजब लिख डाले हैं महाराज. भेजता हूँ किसी को ये कहते हुए कि मेरी जीवनी लिख रहा है कोई :) पांच-सात साल बाद का सीन अभी से लिख दिया गया है.

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  20. स्त्रियों के मन और समझ पर आपकी पकड़ काफी तगड़ी लगी :)

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  21. बस इतना समझ नहीं आया कि आपने अंत में स्पष्टीकरण क्यों दिया....

    बाकी तो क्या कहूँ....

    बेजोड़ !!!!

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  22. अंतिम वाक्य एक डिस्क्लैमेर जैसा लगा.... और फिर मैंने सोंचा ' सही तो है, नहीं तो शंकराचार्य महोदय मंडन मिश्र की पत्नी से शास्त्रार्थ नहीं हारे होते'
    " वह 'मौलिकता' पर अटक गया। क्या पता वह उसी की तरह हो? वह फिर अटक गया - वह उसे क्यों नहीं मिली?"

    हम लोगों की तरफ शादी से पहले कुंडली के साथ गुण मिलान भी किया जाता है और हद्द तो तब होती है कि ३६ में से ३२ गुण मिलने के बाद भी पति को लगता है कि यार कैसे ३२ गुण मिल गए? रिअलिटी में तो ससुरा कुच्छो नहीं मिलता है हम दोनों में.

    वैसे एक जगह मैं सहमत नहीं हूँ इस कहानी से- " ...पुरुष ने यह आह भरना छोड़ दिया है कि काश! उसे कोई लड़की अपनी जैसी मिली होती तो पूरे संसार को आसमान पर टाँग आता और धरा पर सब कुछ फिर से शुरू करता - मनु और श्रद्धा की तरह।"

    पुरुष ना तो आह भरना छोड़ सकता है ना ह़ी यह कल्पना करना कि उसे कोई और लड़की, अपने टाइप की काहें नहीं मिली.

    स्कूल के जमाने कि पढी हुई एक कविता कि अंतिम पंक्ति याद आ गयी
    ' है अनंत का तत्व प्रश्न यह, फिर क्या होगा उसके बाद....'

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